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आत्मविक्षा और आत्म मूल्यांकन के अनेक रूपों में एक है अपनी ही मृत्यु की परिकल्पना। मृत्यु से साक्षात्कार आदमी को अपने भीतर उतरने का दबाव पैदा करता है। ‘आत्म-तर्पण’ भी अपने को औरों की या खुद अपनी निगाह से देखने की रचनात्मक कोशिश है। इस विधा में विश्व के अनेक साहित्यकारों ने विलक्षण रचनाएँ दी हैं। आत्मश्राद्ध या खुद अपना ही फातिहा पढ़ना लोक विश्वास के अनुसार आदमी की उम्र और बढ़ा देता है। इस शृंखला में लिखने वाले रचनाकार भी शतायु होंगे लेकिन एक बार अपने को मरा हुआ ‘देखना’ भी तो कम मनोरंजक नहीं है…
प्रेमचंद की तरह राजेन्द्र यादव की भी इच्छा थी कि उनके बाद हंस का प्रकाशन बंद न हो, चलता रहे। संजय सहाय ने इस सिलसिले को निरंतरता दी है और वर्तमान में हंस उनके संपादन में पूर्ववत निकल रही है।
संजय सहाय लेखन की दुनिया में एक स्थापित एवं प्रतिष्ठित नाम है। साथ ही वे नाट्य निर्देशक और नाटककार भी हैं. उन्होंने रेनेसांस नाम से गया (बिहार) में सांस्कृतिक केंद्र की स्थापना की जिसमें लगातार उच्च स्तर के नाटक , फिल्म और अन्य कला विधियों के कार्यक्रम किए जाते हैं.
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