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हंस की सालाना संगोष्ठी

‘हंस’ पत्रिका द्वारा इफ्को के सहयोग से 38वें प्रेमचंद जयंती समारोह का आयोजन ऐवान-ए-ग़ालिब सभागार में किया गया।

इस बार का विषय था-‘नवराष्ट्रवादी दौर में भाषा’। सामाजिक-सांस्कृतिक कार्यकर्ता, लेखक और चिंतक पद्मश्री गणेश देवी, लेखक, सामाजिक कार्यकर्ता एवं वैज्ञानिक गौहर रज़ा, बुद्धिजीवी सुधीर चंद्र, शिक्षाविद् प्रो. कृष्ण कुमार ने वक्ताओं के रूप में शिरकत की और राष्ट्र, राजनीति और भाषा के अंतर्संबंधों और विरोधाभासों की चर्चा की।

कार्यक्रम का संचालन कथाकार प्रत्यक्षा ने किया। ‘हंस’ के संपादक संजय सहाय ने संगोष्ठी की शुरुआत में विषय प्रवर्तन करते हुए कहा कि, ‘भूमंडलीकरण के कारण राष्ट्रवाद आज राजनीतिक, आर्थिक,सामाजिक परिवर्तनों के विरुद्ध प्रतिक्रियास्वरूप उभरा है। बहुसंख्यकों  द्वारा हिंदू राष्ट्र को चिन्हित करने का प्रयास जोर-शोर से जारी है। एक राष्ट्रभाषा का आग्रह भी उफान पर है। हमें नहीं भूलना चाहिए कि धर्म के आधार पर राष्ट्र का निर्माण नहीं होता अगर ऐसा होता, तो सबके सब इस्लामिक या क्रिश्चियन देश खुद को राष्ट्र घोषित कर देते।’

उन्होंने कहा कि, ‘दुनियाभर में ‘राष्ट्र’ को देश का पर्याय मान लिया गया है जबकि साझा भाषा, साझा इतिहास और साझा गौरव राष्ट्र की अनिवार्य शर्तें हैं। राष्ट्र कहाने के लिए अपना राज्य होना भी जरूरी नहीं है।भारत अपने सांस्कृतिक और भाषायी वैविध्य में एक अनोखा देश है। इसे एकरूपता प्रदान करने का कोई औचित्य नहीं है, न यह साध्य है। विडंबना यह है कि एक तरफ तो हम ‘वसुधैव कुटुंबकम’ (पृथ्वी परिवार) में विश्वास करते हैं और दूसरी तरफ ‘विश्वगुरु’ होने की बात भी करते हैं!’

प्रो. सुधीर चंद्र ने कहा कि, ‘ नवराष्ट्रवाद अलग-अलग मुल्कों में अलग-अलग स्वरूपों में रहा है। दुनिया का शायद ही कोई मुल्क हो जो इससे अछूता हो ‘। उन्होंने सवाल उठाया कि, ‘इसके प्रति क्या किसी भी राष्ट्र में सहमति बन पाती है? कौन से राष्ट्र खुशकिस्मत हैं जहां सहमति बन पाती है वो या फिर जहां सहमति नहीं बन पाती है वो?  हमारे यहां कोशिश चल रही है कि एक राष्ट्रीय सहमति बन जाए और अगर नहीं बन पाती है तो जबरन बना दी जाए। कल तक इसी को हिंदू राष्ट्रवाद कहा जा रहा था। इसमें भ्रांति और छलावा उतना बड़ा नहीं था जो कि नवराष्ट्रवाद में है।

कोई एक राष्ट्रवाद नहीं होता। कई राष्ट्रवाद एक ही समय में उभरकर सामने आने लगते हैं। दो राष्ट्रवाद में एक तो राष्ट्रवाद है और दूसरा सांप्रदायिकता है’। उन्होंने कहा कि ‘पाकिस्तान के बनने को हम राष्ट्रवाद नहीं, सांप्रदायिकता का नतीजा मानते हैं। अगर पाकिस्तान का बनना मुस्लिम राष्ट्रवाद नहीं तो उसी तर्ज पर क्या हिंदू राष्ट्रवाद संभव है? भारत जैसे देश में आज जो राष्ट्रवाद बन रहा है वो राष्ट्रवादी नैरेटिव नहीं है,सांप्रदायिक नैरेटिव है।

क्षेत्रीय और भारतीय राष्ट्रवादों में भी टकराहट रही है जो कभी विकराल रूप ले लेती है। हम जिसे भारतीय राष्ट्रवाद कहते हैं वो वास्तव में हिंदू राष्ट्रवाद है, जो अवचेतन में था वो अब चेतन में आकर हावी हो गया है। 2002 का गुजरात, 2024 का भारत बन सकता है’।

प्रो. कृष्ण कुमार ने कहा कि, ‘ भाषा के सबसे सन्निकट होता है साहित्य और पिछले सौ साल के साहित्य में हिंदी का कोई उपन्यासकार या कवि नवराष्ट्रवाद से प्रेरित नहीं रहा है।

यह धारा अनुर्वर सिद्ध हुई है। सृजन का कोई अंकुर या विचार ऐसा नहीं फूटा जो इस विचारधारा से प्रेरित हो ‘। कृष्ण कुमार सवाल उठाते हैं कि हमने अपनी भाषा का क्या किया, जिससे हमें हर चीज का अनुवाद करना पड़ता है? नियो नेशनलिज्म में नियो लैटिन भाषा का शब्द है और इसका किसी भी प्रकार से अनुवाद नव नहीं होगा। अनुवाद करते-करते हमारी भाषा अंतर्विरोधों से घिर जाती है और हमारे बौद्धिक समाज में चर्चा तक नहीं होती। इस दौर के कई चेहरे और कारण हैं। यह वही दौर है जिसे

नवउदारवाद का दौर भी कहा गया है। यह नव धनाढ्य वर्ग का भी दौर है जो विचार को ज्यादा देर तक बर्दाश्त नहीं कर सकता है। एक रेला संस्कृति बढ़ती चली जा रही है जहां हर चीज का रेला है, बिंबों का रेला है।हम वैचारिक रूप से आलसी समाज हैं। अपनी भाषा की ऊर्जा को स्वयं ही हमने नष्ट किया है। ऐसा कुछ हो गया है हमारी भाषा में कि हम एक बार तय कर लेते हैं तो उस पर पुनर्विचार के लिए तैयार नहीं होते।  नव राष्ट्रवाद, हिंदू राष्ट्रवाद का पर्यायवाची है जो अच्छा पर्यायवाची नहीं है। सबको एक जैसे बनाने का जो अभियान है वो इस बगीचे को नष्ट कर देगा।’

 

गौहर रज़ा ने कहा कि, ‘देश में फासिज्म का सबसे पहले अनुभव लेखकों को हुआ। मुझे नहीं लगता कि जर्मनी में इस तरह की कोई आवाज उठी होगी।  नेशन और स्टेट का कांसेप्ट इंसान के बीच में ज्यादा पुराना नहीं है।

इसे बनने में वक्त लगा है।  देशभक्ति और राष्ट्रवाद में अंतर है। दोनों में टकराहट है’। रज़ा कहते हैं कि, ‘नेशनलिज्म की सबसे अच्छी परिभाषा आइंस्टीन की लगती है- ‘नेशनलिज्म इज एन डीजिज ऑफ मासेज!’ और अगर आज के हिंदुस्तान में इसे अनुवाद करके घुमाना शुरू कर दें तो परिणाम विरुद्ध सिद्ध होंगे। हम यहां पहुंच चुके हैं।

 

विभाजन के झगड़े के दौरान यह प्रयास किया गया कि हम उन जबानों की ओर लौटें जो मिट्टी से जुड़ी हुई हैं। उर्दू और हिंदी के टकराव में कोलोनियल माइंडसेट था कि शासन कैसे किया जाता है। जबानें हमेशा लोगों के बीच में और बाजार में बनती हैं।

आज जरूरत है कि हम वापस अपनी जबानों की ओर लौटें। यह कहना गलत होगा कि उर्दू की मां फारसी और हिंदी की मां संस्कृत है।  लिट्रेचर को श्रेणियों में बांटा जाना कन्फ्यूज करता है।  लिट्रेचर को अगर सिर्फ अच्छे और बुरे दो श्रेणियों में बांट दिया जाए तो अच्छा लिटरेचर वह साहित्य है जो परंपराओं का ध्यान रखे, जो खूबसूरत अल्फाज का ध्यान रखे, जो खूबसूरत खयालात को हम तक पहुंचा सके, एक बेहतर समाज की कल्पना कर सके और हमें यह बता सके कि समाज में क्या बुराइयां हैं। अगर लिट्रेचर का मकसद अच्छा नहीं है तो वो अच्छा लिटरेचर नहीं हो सकता है। अगर लिटरेचर का मकसद राष्ट्रवाद को उभारना हो तो एक भी लिट्रेचर यादगार नहीं रहेगा लेकिन वक्ती तौर पर वह बहुत बड़ा घात करता है। आज दिखाई दे रहा है कि फासिस्ट नेशनलिस्ट, एक कविता, एक लेख, एक गाने से भी डरते हैं। देश की जिम्मेदारी पॉलिटिकल पार्टियों की नहीं, हमारी जिम्मेदारी है।’

 

गणेश देवी ने कहा कि, ‘नवराष्ट्रवाद के दौर में भाषा की जगह हमें नवराष्ट्रवाद के दौर में चुप्पी की बात करनी चाहिए। आज अगर हम पोजीशन को देखें तो जहां-जहां द्रविड़ भाषाएं थीं वहां हिंदू राष्ट्रवाद का अस्वीकार हुआ है। नेशनलिज्म का कोई भविष्य नहीं है।  इस राष्ट्रवाद के विरुद्ध थोपी हुई चुप्पी तोड़ने के लिए हमारे पास एक ही साधन है, वो भाषा है. इटली और जर्मनी का नेशनलिज्म भाषा को लेकर आया था। हम पर चुप्पी थोपने के कितने भी प्रयास हों, हमारी बहुभाषिकता हमारा हथियार है। 

फासिज्म से तभी लड़ा जा सकता है जब बोलने वाले लोग मौजूद हों। भाषा फासिज्म के विरुद्ध एकमात्र हथियार है । लोगों के बीच असुरक्षा की भावना के कारण सरकार जो भी कानून बनाती है और कहती है कि इससे सुरक्षा मिलेगी, जनता स्वीकार कर लेती है।  धर्म का राष्ट्र जो बन रहा है, उसी के साथ-साथ साहित्य का भी धर्म होता है।  जो ‘गीता’, ‘कुरान’, ‘बाइबल’ का धर्म नहीं है। भाषा हमें बचाएगी। दूसरों की चुप्पी तोड़ने से पहले अपनी चुप्पी तोड़ें।’

 संचालन क्रम में प्रत्यक्षा कहती हैं कि, ‘इस परिवर्तनशील समय की भाषा और राजनीति के बीच के बहुत पेचीदा और जटिल संबंध को जानना बहुत जरूरी है।  इसको अगर हम जानेंगे तो हम अपने समय को जान सकेंगे क्योंकि भाषा राजनीति को प्रभावित करती है और पॉलिटिकल आइडियोलॉजी को शेप करती है।

नवराष्ट्रवाद शब्द का आकर्षण सिर्फ भारत में ही नहीं दुनियाभर में व्याप्त है और भाषा इसमें एक टूल है नेशनलिस्टिक नैरेटिव स्थापित करने के लिए। वो पॉलिटिकल आइडेंटिटी और एजेंडा को सामने लाता है। इसको समझना इसलिए भी जरूरी है कि हमारे समय को क्या चीज प्रभावित कर रही है, वो हम तभी समझ पाएंगे जब हम भाषा और राजनीति के तार को समझ पाएंगे।’

मंचासीन वक्ताओं के वक्तव्य के बाद ‘हंस’ की वार्षिक संगोष्ठी की लोकतांत्रिक परंपरा अनुसार श्रोताओं ने प्रश्न भी उठाए जिसका मंच से जवाब दिया गया।  हमेशा की तरह विविध क्षेत्रों से जुड़े बुद्धिजीवियों, साहित्य प्रेमियों, साहित्यकारों, संस्कृतिकर्मियों और युवाओं ने संगोष्ठी में सक्रिय भागीदारी की। ‘हंस’ की प्रबंध निदेशक रचना यादव ने सबके प्रति आभार जताया ।

सविता पांडेय

(संपर्क : savitapan@gmail.com)

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खरीदें हंस का न्यू मीडिया/सोशल मीडिया विशेषांक-2018

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सुपरस्टार

सुपरस्टार

सीन गरमागरम था जाहिर है, गीत के बोल भी उत्तेजक थे धुन भी उसी के अनुरूप मादक और नशीली. बॉलीवुड के सुपरस्टार रौशन कुमार बारिश से अपादमस्तक भीगी हीरोइन की अनावृत्त कमर और गीली साड़ी में उभरे नितंब के बीच अपनी दोनों हथेलियों को टिकाए अपना चेहरा उसकी नाभि से रगड़ते हुए ऊपर की ओर ले जा रहा था. क्लोजअप में हीरोइन के लरजते होंठ दिखने लगे सुपरस्टार के फड़कते होंठ उससे जा मिले. इधर बारिश की फुहार, उधर चुंबनों की बौछार. फिल्म के प्रीमियर शो में रौशन कुमार की पत्नी और बॉलीवुड की ही प्रख्यात अभिनेत्री जयमाला भी मौजूद थीं. हॉट सीन उनकी आंखों में चुभ रहे थे. चेहरे पर किस्मकिस्म के भावों की आवाजाही जारी थी. फिल्म की कहानी विवाहेत्तर संबंधों को जस्टिफाई कर रही थी… जयमाल ने सहज और संयत होकर स्वयं को समझाया, “अरे यह तो फिल्म है. रील लाइफ..दोनों अपने अपने किरदार को जी रहे हैं. बदलते जमाने में ऐसे सींस तो कॉमन हैं. नाहक ही अनकम्फर्ट और जेलेस फील कर रही हूँ.” प्रीमियर शो खत्म होने के बाद सुपरस्टार रौशन कुमार का दामन मुबारकबाद से लबरेज हो गया. फिल्म इंडस्ट्री से जुड़े तजुर्बोकार ट्रेड पंडितों ने इस फिल्म को सुपरहिट होने की गारंटी दे दी थी. रौशन कुमार बेहद खुश था. एक और कामयाबी उसके कदम चूमने वाली थी. ‘डार्लिग कैसी लगी मूवी ?” अपने आलीशान बंगले के लग्जरी बेडरूम में पत्नी को आगोश में लेते हुए रील लाइफ के सीन को रीयल लाइफ में बदलने के क्रम में मादक अंदाज में फुसफुसाया. ‘सुपरब.! आई प्राउड ऑफ यू डार्लिग! .आई लव यू. लव मी.लव मी!’. उखड़ती सांसों और लड़खड़ाती जुबान के साथ वह रील लाइफ के सीन को जीवंत करने में उसका साथ देने लगी. ज्वार शांत हुआ. उसने सिगरेट सुलगाई. पहला कश लेकर धुएं के छल्ले छोड़ते हुए कहा “यू नो डार्लिग कल तुम्हारी मूवी देखी. क्या नाम था ?.हां याद आया “औरत तेरी यही कहानी”. वह चहक उठी, “रियली ?.कैसी लगी ?” “वो ब्लडी संजीव कुमार के साथ तुम्हारा हॉट सीन ?” “सो व्हाट ?” वह उठकर बैठ गई . उसके चेहरे को गौर से निहारने लगी. चेहरा रंग बदल रहा था. रौशन कुमार कुछ पल खामोश रहा. सिगरेट का एक लंबा कश लेने के बाद अपनी आवाज को संयत करने की असफल कोशिश करते हुए बुदबुदाया, “डॉन्ट फॉरगेट डार्लिग , यू आर मैरिड एंड एक बच्चे की मां भी हो ?” उसने गौर किया सुपरस्टार का चेहरा क्षतविक्षत हो गया था. वहां एक आदिम चेहरा आहिस्ता-आहिस्ता चस्पां हो रहा था (मार्टिन जॉन द्वारा लिखित.)
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अपने पराएं

अपने पराएं

पति की मृत्यु के बाद सुमित्रा को मजबूरन अपने पुत्र और पुत्रवधू के पास महानगर में आकर रहना पड़ रहा था । बहू ने यह जताने में कोई कसर नहीं छोड़ी कि सुमित्रा उसकी बसी-बसाई गृहस्थी में सेंध लगा रही थी। सुमित्रा को झुंझलाहट होने लगी थी बहू की रोक-टोक से ‘ इस बर्तन में छोंक क्यों लगा दिया ,इस बर्तन को गैस पर क्यों रखा ,तेल इतना क्यों डाल दिया….’ । पैंतीस साल से गृहस्थी संभाल रही थी ,आधी उम्र रसोई में बीत गयी और आज उससे आधी उम्र की लड़की ने उसकी कार्यप्रणाली पर प्रश्नचिन्ह लगा दिए।कहती हैं ” आप जरा सा काम करतीं हो सारी रसोई फैला कर रख देती हों ‌।इस से अच्छा मैं ही सुबह आपके लिए सब्ज़ी और रोटी बनाकर रख जाती हूं ,गर्म कर खां लेना।” बेटा-बहू तो दोनों सुबह आठ बजे के निकलें रात नौ बजे तक घर आते ,वह सारा दिन क्या करें। उसपर बहू की बनाई हुई उबली सब्जी से रोटी खाना सोचकर ही उबकाई आने लगती। कहां तो सोचकर आयी थी दोनों को गर्म स्वादिष्ट भोजन बना कर खिलाया करेंगी, लेकिन दोनों आधे से ज्यादा समय बाहर ही खाकर आते हैं तब तेल नहीं नजर आता। सुमित्रा का बहू बेटे के पास बिल्कुल मन नहीं लग रहा था, दसवीं मंजिल की बालकनी से नीचे झांकते हुए सोच रहीं थीं उसके जीने का क्या औचित्य है। अपनी जीवनलीला समाप्त कर दे तो किसी को क्या अंतर पड़ेगा,स्वयं भी इस घुटन से निजात पा लेंगी। तभी बगल वाले फ्लैट की बालकनी पर नजर पड़ी तो दिल धक् रह गया। वहां से एक बीस इक्कीस साल का लड़का नीचे कूदने की तैयारी में लग रहा था। ‘ है भगवान आजकल के बच्चों को क्या हो गया है,सारा दिन मस्ती में रहते हैं, अवश्य ही परीक्षा में अनुत्तीर्ण हो गया होगा अब आत्महत्या करने की सोच रहा है। वह लपक कर अपने फ्लैट से निकलकर सामने वाले फ्लैट में घुस गई। गनीमत है फ्लैट का दरवाजा अंदर से लाॅक नहीं था। बालकनी में पहुंची तो लगा शुक्र है लड़का अभी तक कूदा नहीं था। तुरंत उसका हाथ पकड़ कर कमरे में ले गयी और उसको डांटना शुरू कर दिया। ” दिमाग खराब हो गया है इस जीवन को खत्म करना चाह रहे हों जो भगवान का दिया अनमोल वरदान है। कितनी मुश्किल से मनुष्य योनि मिलती है घबरा कर खत्म करना कहां तक उचित है,हर समस्या का समाधान….।” वह लड़का बीच में टोकते हुए बोला :” जब आंटी इतना सब जानती हो तो स्वयं क्यों बालकनी से नीचे कूदने की सोचती हों?” सुमित्रा आवाक उसे देखती रह गई फिर धीरे से बोली :” जब अपने परायों जैसा व्यवहार करने लगे तो जीवन भारी लगने लगता है।” वह शरारती मुस्कान के साथ बोला :” तो आप परायों के साथ अपनों जैसा व्यवहार करके जीवन हल्का कर लो ।हम चारों लड़के अच्छे खाने को तरस जाते हैं आप हम चारों के लिए यहां खाना बनाए तो कैसा रहेगा। आप भी हमारे साथ मनपसंद खाना खा सकतीं हैं ।” सुमित्रा ने नम आंखों से हामी भर दी।
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तम्मना

तम्मना

पंखो की उडान से सारा आसमा नाप लूं, तम्मना है आज मेरी फिर से जाग लूं | अंधियारा है घना, वजूद है छिप रहा, जुगनू बन कर आज मैं, रोशनी फैला दूं……. तम्मना है आज मेरी फिर से जाग लूं | चीख भी दब रही आज , पटाखे की आवाज में, लक्श्मी के दीपक की लौ बन, जहां ये जगमगा दूं….. तम्मना है आज मेरी फिर से जाग लूं | है बेटा कुल दीपक तो, बेटी भी ‘पूजा’ लायक है, बन काबिल जमाने की, सोच को संवार दूं…. तम्मना है आज मेरी फिर से जाग लूं |
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शुभ दीवाली होगी

शुभ दीवाली होगी

शुभ दीवाली होगी मन का तिमिर जब मिट जाएगा तन का भेद जब सिमट जाएगा प्रस्फुटित होगा जब ज्ञान प्रकाश अमावस में भी चमकेगा आकाश घर घर में जब खुशहाली होगी समझना तब शुभ दिवाली होगी। जब नौजवानों का उमंग खिलेगा दिल से दिल का जब तरंग मिलेगा नव सर्जन का जब होगा उल्लास शब्द अलंकारों का होगा अनुप्रास। जब मस्ती अल्हड़ निराली होगी समझना तब शुभ दीवाली होगी। हर हाथ को जब काम मिलेगा हर साथ को जब नाम मिलेगा कर्ज में डूबकर ना मरे किसान फ़र्ज़ में पत्थर से न डरे जवान जीवन में ना जब बदहाली होगी समझना तब शुभ दीवाली होगी। भूखमरी, गरीबी और बेरोजगारी इससे बड़ी कहाँ और है बीमारी इन मुद्दों का जब भी शमन होगा सियासी मुद्दों का तब दमन होगा गली-गली सड़क और नाली होगी समझना तब शुभ दीवाली होगी। जब सत्य-अहिंसा की जय होगी संस्कृति-संस्कारों की विजय होगी जब हर घर ही प्रेमाश्रम बन जाए फिर कौन भला वृद्धाश्रम जाए। मुहब्बत से भरी जब थाली होगी समझना तब शुभ दीवाली होगी। जब कोख में बिटिया नहीं मरेगी दहेज की बेदी जब नहीं चढ़ेगी जब औरतों पर ना हो अत्याचार मासूमों का जब ना हो दुराचार। जब माँ-बहन की ना गाली होगी समझना तब शुभ दीवाली होगी। मुद्दों की फेहरिस्त है लम्बी इतनी लंका में पवनसुत पूंछ की जितनी सब पूरा होना समझो रामराज है राम को ही कहाँ मिला सुराज है! अयोध्या में जब वो दीवाली होगी समझना तब शुभ दीवाली होगी। ©पंकज प्रियम 7.11.2018 pankajkpriyam@gmail.com
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वे मजदूर

वे मजदूर

मुहल्ले के नुक्कड़ पर एक नीम का पेड़ था और उसके नीचे कूड़े का ढ़ेर…, पॉलीथिन की थैलियाँ, कागज के टुकड़े, सड़ी हुईं सब्जियाँ, रसोई के कचरे, जूठन, गोबर इत्यादि यत्र-तत्र फैले हुये थे, जिससे बदबू भरी हवा उठती रहती। दोपहर के बाद जब गर्मी बढ़ जाती तो बास मारने लगती थी। कभी-कभी समस्या गंभीर हो जाती तो आस-पास के घरवाले उस तरफ की खिड़की बन्द कर लेते थे। पास से गुजरनेवाले नाक पर रूमाल डाल लेते थे, यदि बहुत दिक्कत होती तो उधर से मुँह फेर लेते या रास्ता बदल लेते थे। कूड़े का कुछ हिस्सा उड़-उड़ कर नाली में जाने लगा और धीरे-धीरे नाली जाम हो गयी। पानी उछलकर सड़क पर बहने लगा था। कार सवार उधर से गुजरता तो कुछ प्रतिक्रिया नहीं देता क्योंकि कार की खिड़की बन्द रहती थी, उन्हें कुछ पता नहीं चलता था। कार गारा बनाती हुई गुजर जाती थी। सायकिल या बाईक का पहिया उस गंदे पानी में छपछपाता चलता तो बाईक सवार मुहल्लेवाले को गाली देता, उन्हें बूरा-भला कहता. लेकिन पैदल चलनेवाला ज्यादातर उसी मुहल्ले का होता, उसे ही सबसे ज्यादा दिक्कत होती थी। वह जब अकेले होता तो किसी तरह बच-बचाकर चुप-चाप निकल जाता, परंतु एक से अधिक, दो या तीन होने पर चर्चा अवश्य छेड़ देता था । जब चर्चा शुरू हो जाती तो नुक्कड़ के कोनेवाले घर के तिवारीजी स्वंय को रोक नहीं पाते और बड़बड़ाते हुए निकल पड़ते, “दुनियाँ भर के लोग आते–जाते हैं, किसको क्या पड़ी है ? रात- दिन रहना तो हमें है…., नरक भोगने के लिये तो हम ही हैं।“ पड़ोस का लौंडा दिनभर न जाने कहाँ मारा-मारा फिरता, पर ऎसे वखत अवश्य टपक पड़ता, “ देख चचा, एक अर्जी दे दो म्युनिसपैलिटी में…. अभी, सब ठीक हो जायेगा…।” “ क्या ठीक हो जायेगा… दसियों अर्जी दे डाली… पर कोई सुनता कहाँ है ?” “ सुनेगा, सुनेगा… सब सुनेगा.. , चलो… मेरे साथ…।” “ तू .. तू क्या उखाड़ लेगा… म्युनिसपैलिटी वाले बड़े नमकहराम हैं…!” “ अरे चचा.., खाली हाथ जाओगे…तो कौन सुनेगा., जेब भरके जाओ न..,” उसने पन्नी फाड़ी और सारा मसाला मुँह में उड़ेल लिया । “ ये कोई मेरे बाप की सड़क है… जो मैं जेब भरके जाऊँ.. । समाज का काम है दस भाई के जिम्मे है, जो चाहे करें।” “ सुनो… सुनो.. समाज की दुहाई मत दो…, बस्स.., यहाँ पर चार घर हैं…, इन्हीं चार घरों का कूड़ा पड़ता है… ”, गुप्ताजी ने अँगुली दिखाते हुए कहा । “ चार ही घर क्यों ? पानी तो पूरे मुहल्ले का बहता है.., पानी है, तबही तो कूड़ा सड़ रहा है.” कोहली बोल उठा । “ सुनो भाई कोहली… बूरा मत मानना… ये कूड़ा जाता है नाली में … नाली हो जाती है बंद .. तो पानी कहाँ जायेगा..?” बात बढती जा रही थी.. लोग घरों से निकलकर भन-भनाते हुए पेड़ के नीचे जमा हो रहे थे । जिसके समझ में जो आ रहा था बोले जा रहा था । कुछ देर बाद रामप्रसाद जी आ गये… रामप्रसाद जी वार्ड मेम्बर थे।उन्होंने सबको चुप कराने की कोशिश की…, “ सुनो.. सुनो, लड़ने-झगड़ने से कुछ नहीं होगा…, शांति से समाधान निकालो…। “ “… तो तुम्ही कुछ करो न, तुम तो राजनीतिक आदमी हो, एम एल ए साहब से भी जान-पहचान है तुम्हारी, उनसे कहकर क्यों नहीं काम करवाते हो…? मुहल्ले में जगह-जगह कूड़े पड़े हैं उसे हटवाओ..,” कोहली लपक पड़ा था । “ वो तो ठीक है… पर एम एल ए यादवजी तो समाजवादी पार्टी के हैं…वे क्यों करेंगे.. ? उनसे कहो…, जिसने स्वच्छता अभियान चला रखा है.., जिसने जगह-जगह सफाई करते हुए फोटो खिंचवाई थी । अखबार, टीबी सभी जगह झाड़ू के साथ जिनका फोटो अटा पड़ा था ।” “ तो क्या कमल छाप वाले यहाँ पर आकर झाड़ू लगायेंगे… ? लेकिन वोट तो दिया आपने साइकिल छाप को…, वाह रे वाह ! जिताया किसी और को और काम की अपेक्षा कर रहे हैं किसी और से…,” मिश्राजी असहज होकर बोल गये. “ ये तो कोई बात नहीं हुई…, जिसकी सरकार है उसके लोगों को ध्यान देना चाहिये ।एमलए साहब तो विपक्ष में है…, वह कहाँ से काम करायेंगे ?,” रामप्रसादजी ने भी सफाई दी । “ खूब पॉलिटिक्स करते हैं आप लोग ! ऎं…, जरा भी शर्म-लिहाज नहीं है आप लोगों को… ।” “आपलोगों की तरह बेशर्म नहीं हैं..। झंडा लेकर घूम रहे हैं किसी और पार्टी का.., और काम के लिये मुँह ताक रहे है किसी और पार्टी का..।” “ देखो.. कमीना पंथी मत करो…, सबको मालूम है.. कि आपलोग क्या हैं ? मुँह मत खुलवाओ, ” मिश्राजी तैश में थे। रामप्रसादजी भी पीछे हटनेवालों में नहीं थे। वह भी एक से एक घटिया आरोप लगा रहे थे । धीरे-धीरे शब्दों की गरिमा घटती जा रही थी और वे नीचता पर उतरते जा रहे थे । बात बिगड़ती देख लोगों ने दोनों को चुप कराने की कोशिश की, कुछ रामप्रसादजी को एक तरफ़ ले गये तो कुछ ने मिश्राजी को दूसरी तरफ । फिर भी झगड़ा शांत नहीं हुआ । नाली का पानी सड़क पर मचलता हुआ बह रहा था। बजबजाते कूड़े में कीड़े रेंग रहे थे.. और मच्छरों का झुंड आराम से वंशबृद्धि कर रहा था। दस-बारह मजदूरों का समूह जो अभी-अभी वहाँ पर आया था, जो मुहल्लेवालों के झगड़े का तमाशबीन बना था तथा जिनके हाथों में कुदाल और फावड़ा था, उनकी इच्छा हुई थी कूड़ा साफ कर नाली का पानी खोल देने की, पर उन्होंने सोचा—बड़ी कोठी वाले जब संवेदनहीन होकर लड़ रहें हैं…, उन्हें गरज नहीं है तो हमें क्या…? हमें कौन मजदूरी मिलनेवाली है… या बख्शीश मिलनेवाली है….? वे भी पानी में पैर छपछपाते आगे बढ़ गये.., परंतु दो ही कदम बाद वे वापस मुड़े, नाली को देखा । एक ने कहा, “ यह तो पाँच ही मिनट का काम है । “ दूसरे ने कहा, “…फिर भी इन लोगों को काम से मतलब नहीं है…, राजनीति करने से मतलब है। वे बात-बतंगड़ के द्वारा एक-दूसरे को नीचे दिखाना चाहते हैं तथा स्वंय को श्रेष्ठ साबित करना चाहते हैं । “ तीसरे ने कहा, “ चलो.., इनका टंटा ही खत्म कर देते हैं ।“ …और वह कुदाल उठाकर नाली साफ करने लगा । देखते ही देखते मजदूरों ने कूड़ा साफ कर दिया और नाली का पानी खोल दिया । अब मुहल्ले वालों के पास कोई मुद्दा नहीं था । वे चुप हो गये और आश्चर्य चकित होकर उन्हें देखने लगे । कुछ देर बाद जब नाली साफ हो गयी वे मुँह छुपाने लगे, और धीरे से अपने-अपने घरों में घुस गये । (मनोज मंजुल)
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आई. सी. यू.

आई. सी. यू.

मेरा तीसरा दिन है इस सात मंजिले बड़े अस्पताल में। इस अस्पताल में आई. सी. यू. के बाहर एक बड़ा हॉल है जिसमें ट्रेन के बर्थ की तरह बेड लगे है। आई. सी. यू. में एडमिट मरीज के किसी एक परिजन को इसमें रुकने की इजाजत दी जाती है। मुझे भी एक बेड दिया है इसी हॉल में। मेरे बाजू वाले बेड पर जो आदमी है वो सिर्फ मरीज से मिलने या सोने टाइम ही आता है। मुझ से बड़ा है उम्र में। मस्त दाढ़ी बढ़ा रखी है। जब भी आता है पीठ पर एक बैग टांगे रहता है। उसके फॉर्मल कपड़े और काले जूते से लगता है कि वो किसी ऑफिस से आ रहा है। हर वक्त गुमसुम और गमगीन रहता है और कभी किसी से कोई बातचीत नही करता। मुझसे भी नहीं की अभी तक। रात को चुप- चाप आता, बैग को सिरहाने के पास रख के लेट जाता और पता नही कब तक आँखे खोले करवटें बदलता रहता। मेरी जब नींद खुलती तो मैं देखता वो बिस्तर पर आँखे खोले शीशे की उस खिड़की से बाहर आसमान की ओर देख रहा होता। एक लगातर, बिना पलकें झपके। ऐसा लगता जैसे वो किसी को जाता हुआ देख रहा हो। ऐसा कुछ जिसे आसमान उसके अंदर से खिंचे जा रहा हो। मैं हर रोज देखता वो उस आसमान की ओर देखते-देखते अपना हाथ भी उसी ओर बढ़ा देता। ऐसे जैसे उसके और आसमान के बीच कोई है जिसे वो अपनी ओर खींच लेना चाहता है। शुरू- शुरू में जब वो आसमान की ओर हाथ बढ़ाता तो उसके आँखों मे नमी होती ऐसे जैसे वो आसमान से भीख माँग रहा हो। थोड़ी देर तक उम्मीद भी दिखती लेकिन कुछ ही पलों में वो अपनी उम्मीद खो देता। आसमान से उसका विश्वास उठ जाता। उसे लगता ये आसमान उस पर तरस नहीं खाएगी। कुछ देर तक वो आसमान से खींचातानी करता और फिर गुस्से में आ जाता और अपने उसी हाथ को आसमान की ओर बढ़ा कर झटके से मुट्ठी बाँध कर जोर से पटकता और तकिये में सर छुपा लेता फिर मुझे कुछ देर तक उसकी सिसकियाँ सुनाई देती। हर सुबह को सिसकते- सिसकते ही उठता और बैग टाँग के निकल जाता। आज मैं भी उसके पीछे- पीछे चला। लिफ्ट से हम दोनो नीचे आए। सामने ओवरब्रिज के नीचे बाँयी और कुछ देर पैदल चलते रहे फिर उसने कुछ देर फ़ोन पर बात की और वहीं रुक गया। थोड़ी देर बाद ऑटो से एक दूसरा आदमी उतरा। कद- काठी और चेहरे से बिल्कुल इस पहले आदमी की ही तरह। शायद दोनो भाई हों। दूसरे आदमी ने पहले की ओर नोटों की गड्डी बढ़ाई। पहले ने नोट गिने और कहा ‘ये तो कम है’। थोड़ी देर दोनो शांत होकर जमीन की ओर देखते रहे फिर पहले ने कहा ‘भाई अस्पताल वाले नही मानेंगे अब’। फिर कुछ देर तक कि चुप्पी रही और फिर पहले ने ही चुप्पी तोड़ी ‘तेरी गाड़ी के कितने मिले’ ‘पैंतीस’ और ‘मेरी गाड़ी के’ ‘चालीस’ दूसरे ने बस जवाब भर बोला। पहले ने फिर पूछा ‘जमीन का क्या हुआ’ ‘अभी तक ग्राहक नही मिला’। दूसरे के चेहरे पर निराशा और दुख की लकीर उभर आई। ‘ठीक है तू जा और जमीन की बात कर, अस्पताल वाले अब और नही मान रहे, ये पैसे देने के बाद भी काफी पैसा बाकी रह जाएगा और अगर जल्दी पैसा जमा नही हुआ तो इलाज रोक देंगे ये लोग’ इतना कह कर वो अस्पताल की ओर बढ़ा। अस्पताल में सीधे बिलिंग काउंटर पर गया और पैसे जमा किये। मरीज से मिलने का समय हो गया तो मैं पॉलीथिन के मोजे पहने, सीधे आई. सी. यू. में गया। मेरे पीछे वो भी आया पर वो आगे बढ़ गया। मैं उसके मरीज को देख नही पाया। वापस अपने बेड पर आया, थोड़ी देर बाद वो भी आकर बैठ गया। उसके चेहरे से निराशा का एक थोड़ा- सा टुकड़ा कम हो गया था और थोड़ी- सी चमक निखर रही थी। मैं कुछ समझ नही पाया। मुझे लगा इसका मरीज कुछ- कुछ ठीक हो रहा है इसलिए उस से मिल के आज पहली बार चैन की लंबी और ठंडी साँसे ले रहा है। कुछ देर वो ऐसे ही शांत बैठ कर कुछ सोचता रहा। उसने सोचा कि शायद अब इंतजार खत्म हो जाएगा। ट्रेन के बर्थ जैसे बिछावन और हर रोज की चीख- पुकार से शायद उसे अब छुटकारा मिल जाएगा। मेरे बेड के ठीक ऊपर एक छोटा- सा स्पीकर लगा था। उस स्पीकर में अचानक कुछ खुसुर- फुसुर हुई। हम दोनो उसी ओर देखने लगे। ‘रंधीर कुमार के परिजन अविलंब अपने मरीज के पास पँहुचे’ स्पीकर पर ये घोषणा खत्म होती उस से पहले ही अस्पताल का एक कर्मचारी दौड़ता हुआ आया और उसने दुहराया ‘रंधीर कुमार किनका मरीज है, जल्दी चलिए’ और दोनो दौड़ गए आई. सी. यू की ओर इस बेचैनी और जल्दबाजी से मैं समझ गया था कि अब स्थिति ज्यादा गंभीर हो गई है। मैं भी बाहर निकला तो देखा दवा की पर्ची लिए वो लिफ्ट के पास खड़ा है। उसने बिना रुके कई बार लिफ्ट का बटन दबाया और फिर सीढ़ियों से होता हुआ नीचे भागने लगा। मैं जब केमिस्ट की दुकान पर पहुँचा तो देखा वो दवा का लिफाफा लिए जेबें टटोल रहा था। ‘पैसा’ ‘हाँ, हाँ पैसा’ उसने फिर जेबें टटोली। फिर उसने कहा ‘बिल में जोड़ लीजिये न’ ‘नो सर दवा के पैसे आपको अभी ही जमा कराने होंगे’ केमिस्ट का जवाब सुन कर वो तीसरी बार अपनी जेबें टटोल ही रहा था कि मैंने दो हजार का नोट केमिस्ट की ओर बढ़ाया। उसने मेरी ओर एक नजर देखा और दवा का लिफाफा उठा, बिजली की रफ्तार से भागा। इस बार उसने लिफ्ट चेक भी नही किया। सीधे सीढ़ियों की ओर भागा। मैं भी उसके पीछे भागते हुए आया पर मुझे गार्ड ने आई. सी. यू के गेट पर ही रोक दिया। वो गेट से अंदर घुसा, थोड़ी देर आगे बढ़ा …. और सामने से डॉक्टर को आता देख ठिठक गया। कंधे पर हाथ रख कर डॉक्टर ने कहा ‘सॉरी’ …… तभी अस्पताल के एक दूसरे कर्मचारी ने उसके हाथ मे एक कागज थमाते हुए कहा ‘काउंटर पर पैसे जमा करा के बॉडी ले जाइए’। मैंने देखा उसके हाथ से वो कागज और दवा का लिफाफा दोनो छूट गया। उसका चेहरा सूख के लाल हो गया। मैं सोच रहा था कि वो रो क्यों नहीं रहा। मुझे लगा इतने दिनों से रोते- रोते शायद उसके आँसू सुख गए हों। उसने चारो और नजरें घुमायी। उसकी नजरें किसी अपने को ढूंढ रही थी। कोई अपना जिसका हाथ पकड़ के वो रो सके। कोई अपना जो उसे हिम्मत रखने के लिए हिम्मत दे सके। उसने कई बार नजरें घुमायी पर कोई उसकी ओर ध्यान नही दे रहा था सिवाए उस कर्मचारी और उस गार्ड के। इस असहनीय दर्द और अकेलेपन में पता नही उसे क्या सुझा जो मेरी ओर हाथ बढ़ा दिया। मैं उसकी ओर बढ़ा… इस बार गार्ड ने भी नही रोका। मैं उस तक पहुँचता तब तक वो जमीन पर गिर गया पर अभी भी रो नही रहा था। एक हाथ उसने मेरी ओर बढ़ा रखा था और दूसरे हाथ से उसने अपने कलेजे को दबा रखा था। मैंने जैसे ही उसका हाथ पकड़ा उसने झटके से मुझे अपनी ओर खींचा, मैं घुटने के बल जमीन पर आ गया फिर वो दोनो हाथों से गर्दन छान कर फूट-फूट कर बहने लगा। ऐसे जैसे उसके ये आँसू मेरे स्पर्श के लिए ही रुके थे। झाग से निकले बुलबुले को एक बार छुआ और बस, बस अब हो गया, अब सब खत्म हो गया। कुछ नही बचा अब। मैं समझ नही पाया कि मुझे क्या करना चाहिए…. मैं अपने- आप को बहुत कमजोर और मजबूर महसूस करने लगा…. रोते- रोते उसकी साँसे अटकने लगी, दर्द से कराहते हुए उसने दोनो हाथों से अपना कलेजा दबाया। मैंने उसको सहारा दिया और बेड पर ले आया। बेड पर भी वो कुछ देर तक रोता रहा…. खुद को संभालते हुए उसने फ़ोन निकाला और नंबर डायल किया। ‘पापा नही र……’ बात पूरी होने से पहले ही फिर से फुट- फुट के रोने लगा। मैंने उसके कंधे पर हाथ रखा। कुछ देर बाद उसने अपने आप को संभाला और….. ‘जमीन का कुछ होगा’। …… ‘श्राद्ध में कितना लग जाएगा’ जैसे सवाल पूछने लगा और अंत मे कुछ देर शांत बैठा रहा और फिर सिसकते हुए फ़ोन के दूसरी ओर वाले से पूछा ‘क्या करना है ? बॉडी लेना है कि नही’? मैं सन्न रह गया…. । ये, ये क्या पूछ रहा है…. जिस बाप के लिए मैंने इसे पिछले तीन दिनों से परकटे पंछी की तरह छटपटाते देखा है…. उसे इस तरह मुर्दा छोड़ कर जाने के सवाल पर पत्थर की तरह जम गया….. मैंने उसका बिल देखा। तीन लाख साठ हजार दो सौ रुपये बकाया …. जिसके पास दवा के लिए दो हजार रुपये नही थे वो ये बिल कैसे भरेगा। उसने मेरे हाथ से बिल ले लिया ….. बिल देखा….. फ़ोन देखा….. बैग देखा…. कुछ सोचा….. फिर बिल देखा……. फ़ोन देखा….. मुझे देखा…… कुछ सोचा और उसने बिल को बैग में डाला… बैग से कपड़ा निकाला….. चेहरा ढका और बैग लटका कर चोरों की तरह मुँह छिपाए जाने लगा…. उसने किसी- से नजरें नही मिलाई….. पता नही किस- से नजरें छिपाएं जा रहा था, मुझसे, अस्पताल के उस कर्मचारी से या अपने मुर्दा बाप से….. वो अकेला वापस नही जा रहा था, उसके पीछे- पीछे मेरे मन का एक टुकड़ा चल निकला था जो सोचता कि इसे रोक लूँ फिर उसके हालात को सोचता और चुप- चाप लौट आता। समझ मे नही आ रहा कि उस बेटे को अच्छा कहूँ या बुरा जिसने अपने जिंदा बाप के लिए खुद को इतना कंगाल कर दिया कि अपने मुर्दा बाप को लावारिश कर दिया….. –रवि सुमन ravisuman324@gmail.com
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एक मात्रा का बोझ

एक मात्रा का बोझ

सिखाये गये उन्हें धीरे धीरे बढ़ाते हुए रोटी को पूरा गोल आकार देने के नियम भले ही मायने नहीं रखता रोटी का गोल होना पेट की आग के लिए पूरे चाँद में छिपा उसकी गोलाई का सिद्धांत बताया नहीं गया उन्हें कभी भी चारदीवारी के बाहर कदम रखने के नियमों की घुट्टी ख़ुराक दर ख़ुराक दी जाती रही उन्हें हर रोज़ देह में धसती आँखों को अपने नोंकदार नाखूनों से नोंच कर फेंकने की कला सिखाई नहीं गयी उन्हें कभी भी कर्तव्यों की वेदी में स्वाह होने की सारी विधाएं रच दी गयीं उनके मन मस्तिष्क की दीवारों पर कभी नहीं थमाया गया उन्हें अधिकारों का वो पन्ना जिससे सुलगती चिंगारी को दी जा सके दहकते अंगार में बदलने को हवा हिदायतों की गर्म सलाखों से लगातार बनाया जा रहा था उन्हें नर्म मुलायम मोम जिससे किसी भी आकार के फ्रेम की बेड़ियों में जकड़ा जा सके आज़ादी की मिट्टी से स्वतः अपने आकर के निर्माण की स्वतंत्रता कभी नहीं सिखाई गयी उन्हें अपने ज़ख्मों को सीने की कारीगरी में कर दिया गया पारंगत उन्हें जीवन की विसात पर बिछाई गयी द्युत-क्रीड़ा में विजयी होकर दुःशासन की आत्मा को भरी सभा में निर्वस्त्र करने का हुनर कभी नहीं सिखाया गया उन्हें मौन की सारी ऋचाएं पंक्ति दर पंक्ति कंठस्थ करा दी गयी उन्हें अपनी इच्छाओं के वेदों के मंत्रों का सस्वर उच्चारण के तौर-तरीके सिखाये नहीं गए कभी उन्हें दबा दिया गया उन्हें एक मात्रा के बोझ तले, नर और नारी की असमानता की परतदार चट्टानों के भीतर छुपे गूढ़ रहस्यों को खोज रहीं हैं सदियों से “वो” अब तलक *रश्मि सक्सेना*
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ख़ामोशियों के स्वर

ख़ामोशियों के स्वर

” टन-टन-टन-टनन…।” छुट्टी की घंटी बजते ही बच्चे कंधों पर अपना – अपना स्कूल बस्ता लिए क्लास से बाहर निकलते हैं। पूरा कैंपस उनके शोर से भर जाता है….. मस्ती में हँसते-खिलखिलाते, एक-दूसरे से बातें करते बच्चे….अपने – अपने घरों की ओर दौड़ पड़ते हैं। दिन भर बच्चों से भरा रहने वाला स्कूल कैम्पस देखते-ही-देखते खाली होने लगता है…… मासूम हँसी – खुशी और जिंदगी का रेला मेन गेट से बाहर निकल जाता है, और छोड़ जाता है – सन्नाटा, अकेलापन और पहाड़ियों में गूंजती ख़ामोशी का स्वर। ” माउन्टेन व्यू “- उत्तराखंड के चमोली जिले में औली हिल स्टेशन पर शहर से दूर एक स्कूल, जिसने इन पाँच वर्षों में ही राज्य के शीर्ष स्कूलों में जगह बना ली थी। यह उसकी दुनिया थी। उसका आशियाना था। यहीं उसकी सुबह और शाम होती थी….रोज, इसी तरह। उस दिन सुबह एक भयानक शोर से अचानक उसकी नींद टूटी। घड़ी देखी। करीब सात बज रहे थे। खिड़की से बाहर देखा, तो उसके होश ही उड़ गये।। जोरों की बारिश हो रही थी….और ऊपर पहाड़ों से पानी का एक विशाल रेला चट्टानों – पत्थरों को ढकेलते हुए जोरोंं की आवाज केे साथ, तेजी से नीचे की ओर आ रहा था…….रास्ते में पड़ने वाले लोगों, घरों – मकानों, पेड़ों, सड़कों पर खड़ी गाड़ियों को पलक झपकते ही अपने तीव्र प्रवाह में लीलते हुए। जान बचाने की जद्दोजहद में तेज धार में बहते लोगों की कातर पुकार रूह तक को कंपा दे रही थी। वह संभलते हुए सीढ़ी से नीचे उतरा और माली – दरबानों को आवाज देते हुए मेन गेट की ओर भागा। सौभाग्य से उसका स्कूल सैलाब के प्रवाह में आने से बच गया था। जब ज़लज़ला थमा, तो नजरों के सामने थी भयंकर तबाही…..और टनों मलबे में तब्दील पहाड़ी धरती। मानव और प्रकृति के बीच अनादि काल से जारी संघर्ष में चाहे जीत के हजार दावे मनुष्य करता रहा हो, मगर जीत हमेशा प्रकृति की ही हुई है। प्रकृति मानव को लगातार उसकी कारस्तानियों की चेतावनी और सजा देती रही है…… कभी भूकम्प, कभी सुनामी, कभी बाढ़, तो कभी केदारनाथ में हुए भयावह ज़लज़ले के रुप में….। * * * सेना, सरकार और गैर-सरकारी संगठन आपदा प्रबंधन में युद्ध स्तर पर लग गये थे। उसका स्कूल राहत शिविर में तब्दील हो गया था। वायुसेना के हेलिकाप्टर जगह-जगह पर फंसे लोगों को निकालकर शिविरों में पहुँचा रहे थे। लोगों को भोजन के पैकेट, पानी की बोतलें व दवाईयाँ भेजी जा रही थीं। एक एनजीओ ” प्रयास ” ने डॉ. नीलिमा के नेतृत्व में स्कूल के शिविरों में मेडिकल सुविधाओं एव साफ – सफाई की जिम्मेदारी संभाल ली थी। ग्राउंड में बने टेंटों एवं स्कूल के कमरों में करीब पाँच सौ के आसपास लोग ठहरे हुए थे। वह कमरों, टेंटों में जा-जाकर लोगों का हालचाल लेता था ,उनकी समस्याएँ सुनता था और पूरा ध्यान रखता था कि उन्हें किसी प्रकार की असुविधा और परेशानी न हो। उसके सेवाभाव एवं स्नेहभरे व्यवहार से सभी अभिभूत थे। डॉ. नीलिमा ने उसके साथ शिविर में बीमार लोगों की तीमारदारी करते हुए यह महसूस किया, मानो वह व्यक्ति किसी दूसरे की पीड़ा को नहीं, बल्कि अपने दर्द को जी रहा हो। वह उसके बारे में जानने को उत्सुक हो उठी थी। उस दिन सुबह वह डॉ.नीलिमा के साथ कैम्पस के शिविरों में घूम रहा था, तभी सहसा सेना का एक युवा अधिकारी उसके पास आया और उसे सैल्यूट करते हुए अपना परिचय दिया – ” आई एम अभिषेक, प्रिंसिपल सर! ” ” नाइस टू मीट यू कैप्टेन ! ” – उसने भी गर्मजोशी से उससे हाथ मिलाते हुए कहा। ” यहाँ सब ठीक – ठाक है, सर ?” – कैप्टेन ने कैम्पस में शिविरों की ओर देखते हुए जानना चाहा। ” बिलकुल ,कैप्टेन। बस…! कम्बल,चादरें और पानी की बोतलें……यू इन्श्योर कि ये सब यहाँ पर्याप्त रहें। और हाँँ…डॉ.नीलिमा कुछ दवाईयों के बारे में बता रही थीं।उनकी तत्काल व्यवस्था हो जाती तो….। ” – उसने नीलिमा की ओर देखते हुए कहा। ” ओ के,सर। ” – युवा अधिकारी ने कहा। “रेस्क्यू ऑपरेशन की क्या स्थिति है,कैप्टेन? ” – उसने कैप्टेन से औपचारिक संवाद स्थापित करने की कोशिश की। ” मौसम साफ हो रहा है। रेस्क्यू का काम करीब – करीब पूरा हो गया है। सड़क और टेम्पररी पुल बनाए जा रहे है। आवागमन भी जल्दी चालू करने की कोशिश की जा रही है। ” – साथ- साथ चलते हुए कैप्टेन उसे मंत्रवत् बताने लगा। उसे लगा मानो उसका कोई अधिकारी उससे पूछ रहा हो। पता नहीं क्यों , इस व्यक्ति में कैप्टेन को अलग – सा, कुछ खास नजर आया था। वह ध्यान से उसे देखने लगा, तो उसने पूछा – ” इस तरह मुझे क्या देख रहे हो,कैप्टेन ? ” ” कुछ नहीं, सर! ” – कैप्टेन ने कुछ रुककर कहा – ” पर ,पता नहीं क्यों सर , मुझे लगता है कि मैंने आपको पहले भी कहीं देखा है। ” युवा कैप्टेन देर से मन में उठ रही जिज्ञासा को व्यक्त करने से खुद को नहीं रोक पाया। ” नहीं तो। “- उसने कैप्टेन की आँखों में झांकते हुए कहा, और स्कूल – बिल्डिंग की ओर मुड़ गया। शिविर में अन्य बच्चों के अलावा इस स्कूल के कुछ स्टूडेंट्स भी थे। उन्हें व्यस्त रखने के लिए ऑडिटोरियम में ऑडियो – विजुअल मोड से उन्हें मनोरंजक, ज्ञानवर्द्धक जानकारियाँ देने के साथ-साथ विभिन्न तरह की प्राकृतिक आपदाओं तथा उनसे निपटने के उपायों के बारे में भी बताया जा रहा था । उस दिन कैप्टेन अभिषेक पर्वतों, नदियों,भौगोलिक दशाओं और उन कारणों के बारे में, जो ऐसी प्राकृतिक आपदाओं की वजह बनती हैं , बच्चों को विस्तार से बता रहे थे। बच्चे तन्मय होकर उनकी बातें सुन रहे थे। डा. नीलिमा के साथ कमरों का मुआयना करते हुए, वह भी आडिटोरियम के पास आ गया था। कैप्टन अभिषेक बच्चों से मुखातिब थे -” ……और, अब मैं वह बात बताने जा रहा हूँ, जो शायद आप नहीं जानते होंगे। बच्चों, मैं आपको बता दूँ, आपके प्रिंसिपल मि. सिद्धांत……कोई और नहीं, बल्कि कैप्टेन सिद्धांत वर्मा हैं !…… मुझे अच्छी तरह से याद है,जब मैंने एनडीए में एडमिशन लिया था, उसी वर्ष इन्होंने पास आउट किया था और उस बैच में इन्हें ‘ बेस्ट जेंटिलमैन कैडेट ‘ चुना गया था। ” अभिषेक ने सहसा उसके अतीत के पन्ने खोल दिए थे। वह आश्चर्यचकित था। अपनी जिस पहचान को इतने वर्षों तक उसने किसी पर जाहिर नहीं होने दिया था,वह आज सबके सामने थी। अभिषेक बच्चों को कैप्टेन सिद्धांत वर्मा की बहादुरी की कहानियाँ सुनाने लगे और… वह यादों के समंदर में डूब गया था….। * * * कैप्टेन बनने के बाद उसने शहर में एक फ्लैट ले लिया था। उसकी पोस्टिंग सुदूर जम्मू – कश्मीर सेक्टर में थी। सेना में वह एक सख्त और कठोर अनुशासन को मानने वाला अधिकारी माना जाता था। सीमा पर घुसपैठ और कई आतंकवाद विरोधी अभियानों में उसने अपनी असाधारण नेतृत्व व जुझारू क्षमता का परिचय दिया था। कुछ दिनों में उसे नया बड़ा क्वार्टर मिलने वाला था। उसके बाद वह पत्नी-माँ-बाबूूजी को अपने साथ ले जाने के बारे में सोच रहा था। दुर्गा पूजा की छुट्टियों में वह घर आया हुआ था। शहर का दशहरा देखने की माँ – बाबूजी की बड़ी इच्छा थी। शहरों में दुर्गा पूजा की रौनक ही अलग तरह की हुआ करती है – बड़े-बड़े महलनुमा पंडाल, सुंदर, आकर्षक चलती-फिरती बोलती – सी मूर्त्तियाँ, लेड बल्बों की रंग-बिरंगी लड़ियों से जगमग संसार,सड़क किनारे सजी खिलौने – मिठाईयों की दुकानें, रंग – बिरंगे गुब्बारे, लाउडस्पीकरों से गूँजते देवी – गीत और लोगों का हुजूम। कदाचित् गाँवों की परंपरा से लुप्त हो चुके मेलों ने आधुनिकता की चादर ओढ़ शहरों की ओर रुख कर लिया है, और अब वह काफ़ी हाईटेक हो गयी हैं। वह बड़े उत्साह से पत्नी और माँ – बाबूजी को एक-एक पंडाल घुमा रहा था। अंत में वे मुख्य चौराहे पर स्थित सबसे बड़े पंडाल को देखने आए हुए थे।पत्नी-माँ-बाबूजी को पंडाल के अंदर भेज, वह गाड़ी पार्क करने लगा। गाड़ी पार्क कर ज्योंहि वह अंदर जाने को मुड़ा, कि एक जोरदार धमाका हुआ और पूरा इलाका थर्रा उठा। आसमान धुएँ और गुबार से भर गया। चीख-पुकार मच गयी। लोग बदहवास इधर-उधर भागने लगे। वह तेजी से भीड़ को चीरता हुआ ” सुरूचि – माँ – बाबूजी ” पुकारता हुआ जलते हुए पंडाल के अंदर दौड़ा। अंदर का दृश्य भयावह और दिल दहला देने वाला था – मुख्य स्थल के पास लाशों के ढेर, चीथड़ों में जमीन पर पड़े लहूलूहान लोग और जिंदा – बेजान खंडित मूर्त्तियाँ। अचानक उसकी नजर सुरूचि की साड़ी पर पड़ी तो उसका कलेजा मुँह को आ गया। सुरुचि – माँ – बाबूजी अगल – बगल क्षत-विक्षत अवस्था में पड़े हुए थे। तबाही का खौफनाक मंजर देख उसकी आँखों के सामने अंधेरा छा गया था। * * * वह वापस अपनी ड्यूटी पर लौट चुका था। जम्मू सेक्टर – देश का सबसे संवेदनशील क्षेत्र , जहाँ पाकिस्तान से लगती सीमा से आतंकियों के घुसपैठ की आशंका हमेशा बनी रहती है। दुर्गम स्थानों पर कई कठिन सैन्य अभियानों का नेतृत्व करते हुए उसने कितने – ही आतंकियों को मार गिराया था। आतंकियों के प्रति उसका आक्रोश अब और बढ़ चुका था। वक्त ने उसे पहले से ज्यादा कठोर और क्रूर बना दिया था। उस दिन सुबह – सुबह उसे सूचना मिली कि हथियारों से लैश चार – पाँच आतंकी आर्मी हेडक्वार्टर में घुस गये हैं। तुरंत जवानों ने पूरे एरिया को घेर लिया। कई घंटों तक दोनों ओर से लगातार फायरिंग होती रही। दो आतंकी मारे जा चुके थे। तीन जवानों को भी गोली लगी थी। एक जवान शहीद हो गया था। अचानक उसकी नजर झाड़ियों की ओट लेकर आर्मी बिल्डिंग की ओर बढ़ते दो आतंकियों पर पड़ी। अपनी स्टेनगन से फायरिंग करते हुए अपने साथियों के साथ वह तेजी से आगे बढ़ा। तभी अचानक एक ग्रेनेड उसके पास आकर फटता है, मगर तब तक वह दोनों आतंकियों को ढेर कर चुका था। आर्मी हास्पिटल में दूसरे दिन जब उसे होश आया, तो पता चला कि बुरी तरह क्षतिग्रस्त हो जाने के कारण उसका बायाँ पैर काटा जा चुका था। डिसेबल करार कर सेना से रिटायरमेंट मिल जाने के बाद, ” जयपुर फुट ” ने हालांकि उसे अपने दोनों पैरों पर फिर से खड़ा तो कर दिया था, मगर अब उसके लिए सबकुछ खत्म हो चुका था। हादसों के अंतहीन सिलसिलों से वह बुरी तरह टूट चुका था। दूर-दूर तक खालीपन के सिवा उसे अब कुछ भी नजर नहीं आ रहा था। जिंदगी बोझ – सदृश लगने लगी थी और वह घोर निराशा के गर्त्त में डूबता जा रहा था। क्रूर नियति ने उसे अपनी पीड़ाओं के साथ तिल – तिलकर जीने के लिए छोड़ दिया था – दूर-दूर तक फैले सुनसान, वियाबान रेगिस्तान में जैसे किसी अनजान पथिक को अकेला छोड़ दिया गया हो। किसी तरह,अपनी संकल्प और जीवनी-शक्ति को बटोरते हुए ,अपना घर – खेत और अपनी जमीन – सबकुछ बेचकर, सेना की अपनी पुरानी पहचान को पीछे छोड़ते हुए शांति और सुकून की तलाश में जब उसने सुदूर उत्तरांचल में ” माउंटेन व्यू स्कूल ” की शुरुआत की, तो लगा जैसे जीने की कोई वजह मिल गयी हो। किसी के लिए जीने में कितनी आत्मिक और अलौकिक खुशी मिलती है, इसका उसे अनुमान नहीं था। बस..अब तो यही उसका जीवन और संसार….सबकुछ था। अचानक तालियों की गड़गड़ाहट और बच्चों के समवेत स्वर – ” कैप्टेन !….कैप्टेन !” से वह यादों की गलियों से वर्त्तमान में लौटा। हॉल में बैठे सारे लोग अश्रुपूरित नजरों से उसकी ओर देख रहे थे। उसकी दर्द भरी कहानी सुनकर बगल में खड़ी डॉ.नीलिमा तड़प उठी थी। वह अपने आँसुओं को नहीं रोक पाई। भरे नयनों से वह उसे एकटक देखती रही। संवेदनाएँ जब संवेदनाओं से जुड़ीं, तो मन के तार अनायास जुड़ गये थे। वह एक बार उससे जुड़ी तो बस, जुड़ती ही चली गई। * * * युद्ध स्तर पर काम कर सेना ने सड़कों – रास्तों को दुरुस्त कर दिया था। आवागमन चालू हो गया था। कैम्पस में स्थित राहत शिविर धीरे – धीरे खाली हो रहे थे। सिद्धांत मेन गेट के बाहर खड़ा सड़क पर दूर तक जाते हुए लोगों के हुजूम और गाड़ियों के काफिलों को देख रहा था। तभी डॉ.नीलिमा उसके पास आकर खड़ी हो गयी – ” कैप्टेन सर,मैं भी अब चलती हूँ। ” “आप थोड़ी देर और नहीं रुक सकतीं, डॉक्टर? ” आज नीलिमा ने पहली बार सिद्धांत के स्वर में भारीपन महसूस किया था। ” रुकने की कोई वजह तो हो? ” नीलिमा ने मानो अपने मन की बात कह दी हो। ” हूँ।…….। ” सिद्धांत ने सहमति में सिर हिलाया, और कहा – ” हर वक्त हर चीज के होने की कोई वजह हो ही, यह जरुरी तो नहीं, डॉक्टर ? ” ” हाँ…। मगर, इतनी दूर यहाँ आकर आपके रहने की कुछ वजह तो होगी,कैप्टेन? ” नीलिमा ने उसके मन को छूने की कोशिश करते हुए प्रति प्रश्न किया – ” कहीं सुरूचि !…..अतीत की यादों के सहारे एकाकीपन में जीने की कोशिश तो नहीं ? ” ” नहीं….! हाँ।……!! ” सिद्धांत के हृदय और मन ने अलग – अलग जवाब दिया – ” मैं तो शांति और सुकून की तलाश में यहाँ आया था। मगर मैं उन यादों की गुंजलक से कभी बाहर निकल ही नहीं पाया। अतीत की यादों से दूर जाने की मैं जितनी ही कोशिश करता हूँ, उतनी ही वो आ -आकर मेरे पाँवों से लिपटती जाती हैं। सोचता हूँ, अगर सुरुचि को भूला दूँगा,तो मेरे पास रह ही क्या जाएगा?” सिद्धांत के मन की परतें खुलनी शुरु हो गई थीं। ” यादें जरुरी हैं जीने के लिए। मगर सिर्फ यादों के सहारे जीवन नहीं बिताया जा सकता, कैप्टेन। जीने के लिए हमें दु:ख भरे पलों को भुलाना पड़ता है। और फिर, यादें जब कमजोरी बन हमें एकाकीपन, खामोशी और अवसाद की ओर ले जाने लगें, तब उन यादों को अतीत के संदूक में बंद कर देना ही अच्छा होता है। ” नीलिमा एक ही साँस में अपनी बात कह गयी। वर्षों पहले एक एक्सीडेंट में अपने मम्मी – पापा को खो देने के बाद वह खुद भी तो भावनाओं के इसी तूफान से गुजरी थी। फिर किसी तरह उसने अपने आप को संभाला था।उसने कहा – ” हो सके तो निराशा के इस भंवर से बाहर निकलने की कोशिश करें, कैप्टेन। फिर आपको ये दुनिया खूबसूरत लगने लगेगी। ये नजारे आपको शांति और सुकून देंगे और नीरव खामोशी में भी जीवन के स्वर फूटेंगे। ” ” क्या आप इन खामोशियों को स्वर देंगी, डॉक्टर ? ” सिद्धांत बोल पड़े। सिद्धांत के शब्द वादियों से टकराकर सहसा नीलिमा के कानों में गूँजे,तो उसका रोम – रोम स्पंदित हो उठा। उसने भाव भरे नयन उठाकर सिद्धांत की ओर देखा – उनकी आँखों में आज उसे जिंदगी की चमक दिखाई पड़ी थी। सिद्धांत ने हाथ बढ़ाया, तो नीलिमा ने बढ़कर उनका हाथ थाम लिया और…. उनके कदम ” माउंटेन व्यू स्कूल ” की ओर बढ़ चले। मन में छाया अंधेरा दूर हो चुका था। जीवन का वीराना अब प्रेम के उजालों से रौशन था। खामोशियों को स्वर मिल गये थे। – विजयानंद विजय मो. – 9934267166 ईमेल – vijayanandsingh62@gmail.com