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आत्मकथा, यानीभीतर-बाहरझांकनेकीखिड़की

आत्मकथा, यानी भीतर-बाहर झांकने की खिड़की

चाहें तो इसे संयोग कह लें कि साल का प्रारंभ और अंत दो आत्मकथाएं पढ़ते हुए ही हुआ। दोनों के प्रमुख पात्र लखनऊ के अभिजात, दोनों ही के पूर्वज पाकिस्तान के संपन्न परिवार से, और दोनों के परिवारों में अतीत के नुमाइंदे उम्रदराज बुजुर्ग, एक या दो। लीला सेठ, विक्रम सेठ की मां। खुद न्यायपालिका में भारत के उच्चतम न्यायालयों में चीफ जस्टिस होने तक उठीं। उधर विनोद मेहता विभिन्न दैनिक, साप्ताहिक और पाक्षिकों का संपादन करते हुए आज देश के लगभग सर्वश्रेष्ठ अंग्रेज़ी साप्ताहिक ‘आउटलुक’ के प्रधान संपादक हैं। राष्ट्र का

भविष्य बनाने-बिगाड़ने वालों के साथ उनका उठना-बैठना या लंच- डिनर है। देखा जाए तो देश बनाने-बिगाड़ने वाले कोई हों, उन्हें इतिहास का रूप देने या अपने फैसले सुनाने की विशेष सुविधा या तो कानून-व्यवस्था के पास है, या पांचवें स्तंभ, संचार माध्यम के। धूम-धड़ाका टी. वी. चैनलों का चाहे जितना हो। अगली पीढ़ियों के लिए इतिहास छोड़ जाने के लिए कच्चा माल यही सुलभ कराते हैं। 

जिंदगी में थके, हारे या पस्त हो चुके कितने लोगों ने आत्मकथाएं लिखी हैं, मुझे याद नहीं आ रहा। हां, उनकी जीवनियां जरूर लिखी गईं, अपनी डायरियों में भी उन्होंने मन के द्वंद्व, अवसाद और चरम हताशा के क्षणों को याद करने की कोशिश की है। भगत सिंह, रामप्रसाद बिस्मिल, ‘फांसी के तख्ते से’ के लेखक जूलियस फ्यूचिक  या एन फ्रैंक की डायरी जैसे कुछ दस्तावेज जरूर याद आते हैं जिनकी जिंदगी की फिल्मों को बीच से ही काट दिया गया या उन्हें पता था कि वे किस दिन दुनिया छोड़ देंगे। 

आत्मकथाएं प्रायः उन्होंने ही लिखी हैं, जो कहीं पहुंच चुके हैं और उनके पास यह अवकाश और सुविधा रही है कि पलटकर अपनी यात्राओं का जायजा ले सकें चूंकि वे वही देखते हैं जो देखना चाहते हैं इसलिए उन्हें सफलताओं का संपादित संकलन भी कह सकते हैं।

हैनरी शरर की ‘पैपिलोन’ उन प्रतिपक्षियों को जवाब देने के लिए लिखी गई थी जिन्होंने हत्या के झूठे आरोप में नायक को आजीवन कारावास की सजा दिला दी। नायक ने भी कसम खा ली कि किसी कालेपानी भेज दो, मैं वहां से भाग आऊंगा, और अपने बार-बार भागने की कहानी उसने ‘पैपिलोन’ में बेहद चित्रात्मक विस्तार से कही है- हजारों मील फैले समुद्र, आसमान छूते पहाड़, सूर्योदय और सूर्यास्त के जीवंत चित्रों से भरी हैं ये विकट पलायन यात्राएं। 

उत्प्रेरक मंतव्य कुछ भी रहा हो, मगर प्रायः सभी आत्मकथाएं सफलता और उपलब्धियों के द्वीपों पर बैठकर जीवन का पुनरावलोकन ही होती हैं। व्यक्ति और समाज की टकराहट से उपजी प्रतिक्रिया या रिस्पॉन्स ही अनुभवों के कोश का रूप लेते हैं और यह अनुभव-भंडार संवेदनाओं, स्मृतियों, आकांक्षाओं के रसायनों से गुजरते हुए जो समझ विकसित करता है उसे विवेक भी कहा जा सकता है, जो हमें पशुओं से अलग करता है। यही विवेक पलट कर अनुभवों, अनुभूतियों, संवेदनाओं, स्मृतियों, चेतना की जीवंत प्रक्रिया को काटता-छांटता, छोड़ता, समेटता हुआ भूत और भविष्य में विस्तारित होता या सिकुड़ता है। आत्मकथा को सोचते या लिखते समय हम अनजाने ही अनुकूल अनुभवों का ही चुनाव करते हैं, जो अनुकूल नहीं हैं उन्हें या तो भूल जाते हैं, छोड़ देते हैं या फिर उनके सही होने के वे कारण देने लगते हैं जो हमें अपराधी साबित होने से बचा सकें। आत्मकथा अपने आपको दूसरों की दृष्टि से देखना ही नहीं, नैतिक निर्णय या आगे जाकर सम्मान और यश पाना है, औरों से अलग या ऊंचा होने और बने रहने का संतोष या असंतोष अनुभव करते हुए और-और पाने की भूख में बने रहना और सफलताओं की जुगाली करते रहना है। अदा और अभिव्यक्ति कोई भी हो, हर विशिष्ट व्यक्ति या नायक तरह-तरह से अपनी करनी का ही वर्णन करता है।  वहां अपनी असफलताओं या गलतियों का वर्णन एक

शहीदाना भाव से किया जाता है। किसी ने जब विनोद मेहता की आत्मकथा ‘लखनऊ बॉय’ की यह कहकर तारीफ की कि बेहद सरल, बेबाक, प्रवाहपूर्ण और ईमानदार किताब है तो पढ़ना मजबूरी हो गया, क्योंकि किताब भी उपलब्ध करा दी गई। इसमें शक नहीं कि विनोद मेहता ने भारतीय अंग्रेजी पत्रकारिता में कुछ बेहद महत्वपूर्ण प्रयोग किए हैं और जहां तक हो सका है, संपादक की स्वतंत्रता और गरिमा का निर्वाह भी किया है। ‘संडे पोस्ट’, ‘इंडिपेंडेंट’ और ‘पायनियर’ आदि अखबारों के अलावा वे ‘डेबोनेयर’ (बंबई) जैसी पत्रिका में भी रहे, जो लगभग ‘प्ले ब्वॉय’ की नकल थी। नकल विनोद मेहता के संपादक होते हुए भी बनी रही और इसमें वैसी ही नंगी तस्वीरें छपती रहीं जिसके कारण ‘प्ले ब्वॉय’  भारत में प्रतिबंधित थी (पता नहीं अब है या नहीं)।  लेकिन ‘प्ले-ब्वॉय’ के एक विशेष फीचर ने उसे बुद्धिजीवियों के बीच अनिवार्य पत्रिका बना दिया।  दुनिया का शायद ही कोई बुद्धिजीवी हो जिसके लंबे, अछूते और अद्भुत साक्षात्कार दुर्लभ चित्रों के साथ बीच के पृष्ठों में न छापे गए हों। इसके लिए अपने क्षेत्र के प्रसिद्ध व्यक्तियों को इंटरव्यू का जिम्मा दिया जाता था जो महीनों परिश्रम करके अपना आलेख तैयार करते थे। यही ‘डेबोनेयर’ में विनोद मेहता ने भी किया और देश के हर क्षेत्र के बुद्धिजीवियों के धुआंधार साक्षात्कार छापे। इनकी वजह से ‘डिबोनायर’ पर लगा हुआ कलंक प्रायः नजरअंदाज कर दिया जाता रहा और उन साक्षात्कारों की चर्चा होती रही। 

विनोद ने ‘पायोनियर’ का जिक्र किया है, जिसमें वे ‘आउटलुक’ से पहले थे। मेरे साहित्यिक गुरु और शुभचिंतक श्याम प्रकाश दीक्षित झांसी का ‘जागरण’ छोड़कर दिल्ली आए और लिंक हाउस से निकलने वाले हिंदी मासिक ‘समाज’ के संपादक हुए। ‘समाज’ शायद महावीर अधिकारी ने शुरू किया था और वह ‘पायोनियर’ समूह की ही पत्रिका थी।  ओंप्रकाश जी (राजकमल) और अरुणा आसफ़ अली के बीच राजकमल प्रकाशन को चलाने का अनुबंध हुआ क्योंकि अपनी अत्यंत महत्वाकांक्षी योजनाओं के कारण राजकमल आर्थिक संकट से गुजर रहा था। अरुणा जी ने पुराने पार्टी वर्कर हरदेव संधु से आग्रह किया कि वे अपनी श्रीमती शीला संधु को राजकमल की बागडोर संभालने दें।  शीला जी पढ़ी-लिखी उच्च शिक्षा प्राप्त विदुषी महिला हैं लेकिन उनका सारा समय हरदेव संधु के एक्सपोर्ट-व्यवसाय के सिलसिले में सोवियत संघ से आने वाले विदेशी मेहमानों की देखरेख में ही जाता था और इससे वे संतुष्ट नहीं थीं। प्रारंभ की हिचकिचाहट और कानूनी कार्रवाई के बाद शीला जी ने राजकमल में बैठना शुरू किया और भीष्म साहनी और नामवर सिंह को अपने सलाहकार के रूप में जोड़कर राजकमल के साहित्यिक पक्ष की प्रारंभिक जानकारियां लेने की शुरुआत की। इससे पहले अंग्रेजी और पंजाबी साहित्य के बारे में वे भले ही कुछ जानती रही हों, लेकिन हिंदी-साहित्य की जानकारी उन्हें बिल्कुल नहीं थी। उन्होंने तेजी से राजकमल के लेखकों से परिचय ही नहीं बनाया, परिश्रम से पूरे साहित्यिक परिदृश्य पर अपनी पकड़ बनाई। इस नई व्यवस्था पूरे में सबसे ज्यादा असुविधा हुई ओंप्रकाश जी को। वे अकेले ही दो-ढाई दशक से राजकमल चलाने के अभ्यस्त रहे थे। यह हिस्सेदारी उनके लिए बर्दाश्त से बाहर थी। अंततः उन्होंने राजकमल छोड़ दिया और अपना राधाकृष्ण प्रकाशन शुरू किया। यहां इस प्रसंग का जिक्र इसलिए जरूरी था कि हम लोग अक्सर कभी ‘नई कहानी’ के दफ्तर या कभी ओंप्रकाश जी से मिलने ‘लिंक हाउस’ जाते थे।  याद नहीं है कि तब ‘पायनियर’ लिंक के साथ जुड़ गया था या नहीं। हां, जिन दिनों ‘पायनियर’ थापर बंधुओं के पास था, तब शायद कुछ दिनों विनोद मेहता उसके संपादक रहे। मगर उस पूरे दौरान कभी विनोद मेहता का नाम नहीं सुना। बाद में अरुणा जी के न रहने पर इस सारी व्यवस्था के कर्ता-धर्ता बने आर.के. मिश्रा। राजकमल तब पूरी तरह दरियागंज में ही केंद्रित हो चुका था। संयोग से मिश्रा जी से भी मेरा परिचय पुराना था और बहुत दिनों तक हम लोग ‘हंस’ की योजना पर बातें करते रहे थे। इसलिए लिंक हाउस में आना-जाना बना रहता था। दूसरे मित्रों के साथ मिलकर मैंने जब ‘हंस’ निकाला तो कमलेश्वर ने मिश्रा जी के साथ ‘गंगा’ मासिक पत्रिका का प्रकाशन शुरू किया, जो मुश्किल से एक साल चल पाई। मिश्रा जी के न रहने पर ‘पायनियर’ की सारी व्यवस्था चंदन मित्रा के पास चली गई और उसका झुकाव बीजेपी के साथ हुआ। हां, इसके बाद मुंबई के बड़े बिल्डर रहेजा बंधुओं के साथ विनोद ने अंग्रेजी में ‘आउटलुक’ निकाला। जाहिर है उसकी टक्कर अकेली साप्ताहिक पत्रिका ‘इंडिया टुडे’ से थी। 

‘आउटलुक’ कुछ ही दिनों में इतना लोकप्रिय और सत्ता-शिविर में इतनी प्रभावी पत्रिका बन गई कि ‘इंडिया टुडे’ को पाक्षिक से साप्ताहिक करना पड़ा। शायद इसका कारण यह था कि ‘इंडिया टुडे&’ एक बेचेहरा पत्रिका थी, उधर ‘आउटलुक’ पर विनोद मेहता का व्यक्तित्व छाया था। ‘आउटलुक’ की सफलता का एक कारण यह भी था कि विनोद ने अपने सहकर्मियों को भरपूर महत्व, संरक्षण और अवसर दिए। अंग्रेजी ‘आउटलुक’ की तरह हिंदी ‘आउटलुक’ न वैसा चर्चित हुआ, न प्रभावशाली बल्कि साप्ताहिक अंग्रेजी ‘आउटलुक’ की आज भी प्रतीक्षा की जाती है। उधर हिंदी ‘आउटलुक’ को साप्ताहिक से मासिक करना पड़ा। यहां एक विचित्र पहेली को समझने की कोशिश शायद बहुत अप्रासंगिक न होगी। अपनी रचनाओं के माध्यम से क्या व्यक्ति अपने ही बिंब प्रतिबिंब नहीं बनाता चलता है! चाहे वह अपनी ही संतान हो या मानसिक संतान अर्थात् कला और रचना, हम उलट-पुलट कर अपने आपको ही देखते हैं। यह सारा खेल ‘एकाकी न रमन्ते’ (अकेले नहीं रह पाऊंगा) से ‘एकोऽहम बहुस्यामः’  (मैं एक हूं-बहुतों में रूपांतरित हो जाऊं) की भीतरी बाहरी यात्राओं का खेल ही तो नहीं है? रचना के व्यक्तित्व के बहाने स्रष्टा अपना ही व्यक्तित्व प्रक्षेपित करता रहता है-चाहे वह मंच या जीवन का नाटक हो या एकांत में रचा जाने वाला साहित्य। हमारी हर रचना क्या अपने ही सूक्ष्म, स्थूल, दृश्य-अदृश्य व्यक्तित्व का विस्तार, प्रक्षेपण और अस्वीकार ही नहीं है? कभी-कभी मुझे यह भी लगता है कि हम अपनी रचनाओं के माध्यम से अपने पापों या अपराधों का प्रायश्चित ही तो नहीं करते? जो कुछ जिंदगी में नहीं कर पाए उसे कला के माध्यम से करना और इस तरह अपनी सीमाओं का अतिक्रमण करना, यही वजह रही होगी कि प्रारंभिक टॉलस्टॉय जैसा डिबाउच (दुश्चरित्र) अपनी रचनाओं में नैतिकता के उच्चतम मानदंड स्थापित करता रहा। यही नहीं, बाद में तो ऐसा संत बन गया कि महात्मा गांधी ने उसे अपना गुरु ही नहीं बनाया, अफ्रीका में बाकायदा ‘टॉलस्टॉय फार्म’ की स्थापना की। हर पाप और अपराध में लिप्त ज्यॉ जेने ने नाटक की धारा ही बदल डालने वाले नाटक लिखे। ‘एक चोर का रोजनामचा’ (ए थीव्स जर्नल) में उसने उन्हीं विचलनों का जिक्र किया है। हेमिंग्वे कहता है कि हर नई स्त्री का संपर्क मुझे एक नई रचना दे जाता है। फ्रेंक हैरिस नाम के पत्रकार ने अपने संस्मरणों में रोमांटिक युगीन इंग्लैंड के प्रायः सारे बड़े लेखकों और कवियों की हरमजदगी के किस्से लिखे हैं। मैं अभी भी इस पहेली से जूझ रहा हूं कि जिन रचनाकारों ने कला और लेखन की चली आती परंपरा से विद्रोह करते हुए नई प्रवृत्तियों का सूत्रपात किया है वे निरपवाद रूप से आदर्श और अनुकरणीय व्यक्ति क्यों नहीं रहे हैं? शरतचंद्र से लेकर मंटो और भुवनेश्वर तक। उधर जो मर्यादावादी थे उनकी रचनाओं में कलात्मक तराश या वैचारिक प्रतिबद्धता चाहे जितनी रही हो, मगर निश्चय ही वह ताप और आग अनुपस्थित है जो ‘उग्र’ और राजकमल चौधरी में थी। मैं अभी भी याद करने की कोशिश कर रहा हूं कि ‘बहू- बेटियों के पढ़ने लायक’ वह कौन-सा लेखक है जिसे हम बार-बार पढ़ना चाहेंगे? बहरहाल, वर्ष के प्रारंभ और अंत में पढ़ी गई ये दो आत्मकथाएं मुझे खुद अपने वर्ष भर का जायजा लेने को प्रेरित जरूर करती हैं। यह सारा समय पीठ-दर्द और डायबिटीज से पैदा होने वाली शिकायतों से लड़ते हुए बीता है-एक आत्मघाती व्यर्थता बोध के साथ अपने आपको तिल-तिल मरते हुए देखना बहुत सुखद तो नहीं ही है। बिस्तर से कुर्सी तक की आवाजाही ने सारी सक्रियता सीमित कर डाली है। मगर आज भी अगर मुझे कोई बीमार कहता है तो चिढ़ लगती है-जीवन के प्रति लालसा, मित्रों से हंसना-बोलना ऊर्जा देता है। अपने को अशक्त कहना और बीमार कहना दो अलग बातें हैं। हार्निया के दूसरे ऑपरेशन के लिए 22 दिसंबर को एम्स में भर्ती हुआ था- ओल्ड प्राइवेट वार्ड की चौथी मंजिल के कमरा नंबर 409 में। सारी कोशिशों के बाद भी ब्लड शुगर नियंत्रण में नहीं आया तो लौट आया 5 जनवरी को। क्रिसमस और नया साल वहां अकेले ही गुजरा। इस बीच पहले मुक्ता फिर वेददान सुधीर तो साथ बने ही रहे, फिर विपिन, हारिस, अजय, सुनील ने अकेला महसूस नहीं होने दिया-किशन तो छाया की तरह साथ है ही। मुझे क्या-क्या नहीं करना चाहिए इसके उपदेश देने के लिए रचना रोज आती ही रही। हां, पैंतालीस-पचास साल पुराना पाइप लगभग पूरी तरह छूट गया। बाथरूम में एक सिगरेट की ललक अभी भी बेबस कर देती है। अच्छा है यह भी छूट जाए। शायद

पाइप फोटो खींचने के लिए रह जाएगा। 

अशोक वाजपेयी और दिवंगत प्रभाष जोशी की तरह यह अपनी दिनचर्या गिनाना न अच्छा लगता है, न सुरुचिपूर्ण। मगर दिन-प्रतिदिन का यह ‘संघर्ष’ दर्ज तो होना ही है। खासकर लीला सेठ और विनोद मेहता की उपलब्धियों की तुलना में अपने ‘व्यर्थ’ होने के रिकॉर्ड के रूप में अपने आपको धिक्कारने के लिए ही सही। बहरहाल, सुबह होती है शाम होती है, उम्र यूं ही तमाम होती है...

  • राजेन्द्र यादव

  • ‘हंस’ फरवरी, 2012 अंक से 

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