
1970-80 के दशक में पूरे देश भर में
1970-80 के दशक में पूरे देश भर में, खासतौर से महाराष्ट्र में जाति विरोधी आंदोलन चरम पर था जिसमें मराठी दलित साहित्य और उसके साहित्यकार एक बड़ी भूमिका निभा रहे थे। चाहे वह दलित पैंथर मूवमेंट में शामिल कवि नामदेव धसाल, नारायण सुर्वे, बाबुराव बागुल, अण्णा भाऊ साठे, बेबी कांबले या उर्मिला पवार हो। साहित्य आंदोलन को और आंदोलन साहित्य को प्रभावित कर रहा था। मराठी के दलित साहित्यकारों ने अपने लेखन से लेकर जीवन तक में कास्ट-असर्शन को मुख्यधारा में ला दिया था जिसका परिणाम देश के विभिन्न क्षेत्रों में देखने को मिला। दलित पैंथर के गठन की पृष्ठभूमि को यदि हम देखें तो, इसके गठन के पीछे 10 अप्रैल, 1970 को संसद में प्रस्तुत की गई इल्यापेरुमल समिति की रिपोर्ट है. रिपोर्ट में दलितों पर देश भर में हो रहे अत्याचारों के विस्तृत विवरण ने संसद को हिला कर रख दिया था. इल्यापेरुमल स्वयं सांसद थे, जिन्हें 1965 में समिति के अध्यक्ष के रूप में नियुक्त किया गया था। इसके अलावा सन 1972 में महाराष्ट्र में दलितों पर अत्याचार की दो घटनाओं ने दलित युवकों को आगबबूला कर दिया। पहली घटना पुणे जिले के बावड़ा गांव में हुई। दूसरी घटना महाराष्ट्र के परभणी जिले के ब्राह्मणगांव में दो दलित महिलाओं को नंगा कर घुमाने की थी। तब कुछ दलित नेतृत्वकारी युवाओं के बीच एकमत से निर्णय हुआ कि सरकार को चेतावनी देते हुए एक वक्तव्य जारी करना चाहिए। वक्तव्य तैयार किया गया, जिस पर राजा ढाले, चिंतामान जावले, वसंत कांबले, भगवान जारेकर और विनायक रानजने ने हस्ताक्षर किए। इसके बाद दलितों पर अत्याचारों के विरोध में प्रदर्शनों का दौर शुरू हुआ। ऐसे प्रदर्शन बंबई, नागपुर, औरंगाबाद, परभणी आदि से होते हुए दिल्ली, आगरा, कानपुर, हरियाणा आदि में हुए। इसी दौर में राजा ढाले का आलेख चर्चित लेख ‘काला स्वतन्त्रता दिवस’ प्रकाशित हुआ, जो अगस्त, 1972 को पुणे से निकलने वाली साधना पत्रिका के विशेष अंक में छपा।
मराठी दलित साहित्य में यों भी सत्तर के दशक में आत्मकथाओं और जीवनियों का खासा बोलबाला रहा है और बाद में कविताएं भी इस दायरे में आईं। वामन निम्बाळकर, अर्जुन डांगले, प्रकाश जाधव और कई अन्य जाने-माने नामों की कविताएं यहां पढ़ने को मिलती हैं। कविताओं की एक खास बात जो प्रथम दृष्टया समझ आती है, वह है उनकी भावात्मक गहराई और अथक मानवीयता। एक विशाल फलक को छू लेने की छटपटाहट और अपने आसपास के हालात के प्रति गहरी संवेदनशीलता कविताओं का मूल है। मराठी दलित साहित्यकार दादा साहब मोरे की आत्मकथा ‘डेराडंगर’ अधिकांश आत्मकथाओं से इस अर्थ में अलग है कि इसमें नायक गौण है, और उसका परिवेश, उसकी परिस्थितियां प्रधान हैं। इसमें नायक को केंद्र में स्थापित करने के बजाय उस व्यवस्था को केंद्र में रखा गया है जिसमें नायक के सम्पूर्ण समाज के लोग अपना पीड़ित, यातनामय और नारकीय जीवन जी रहे हैं।
पंजाबी में बलबीर माधोपुरी की आत्मकथा जीवन अनुभवों का अद्भुत साहित्यिक रूपांतर है। यहां लेखक से अधिक, स्थितियां बोलती हैं. ये स्थितियां सामाजिक हैं, साहित्यिक हैं, आर्थिक हैं और वैचारिक भी हैं। पंजाबी की पहली दलित आत्मकथा होने का गौरव तो इस कृति को प्राप्त है ही। इसमें इतनी अधिक ऊर्जा और ओजस्विता है कि आभिजात्य उत्कृष्टता, साहित्यिकता का आग्रह उसे बलि का बकरा नहीं बना सका। बात यह है कि इस कृति में समस्याएं साहित्य की शक्ल में दलित-शर्तों को पूरा करती हैं। कैनवास बड़ा है और अंदाज़े-बयां प्रभावशाली। लेखक परिवर्तनकामी विचारों या कहें बदलाव की इच्छा-शक्ति के साथ सामाजिक-राजनीतिक चिंतन की आंदोलनात्मक गतिविधियों में सक्रिय रहा है।
दक्षिण भारत में इसका सबसे प्राचीन उदाहरण है इड़िवा नामक एसईडीबीसी जाति के पोथेरी कुनहंबू द्वारा सन् 1892 में मलयालम में लिखा गया सरस्वतीविजयम्। यह एक ऐसे दलित लड़के की कहानी है जिसके साथ एक ब्राह्मण उसके द्वारा संस्कृत श्लोक उच्चारित करने के ‘अपराध’ में दुर्व्यवहार करता है। बाद में यह लड़का शिक्षा प्राप्त कर जज बनता है। एक अन्य पुराना उदाहरण है मल्लापल्ले (1922 में प्रकाशित)। मल्लापल्ले का अर्थ है – माला लोगों का निवास स्थान। माला, आंध्र प्रदेश की दो प्रमुख एससी जातियों में से एक है। इसके लेखक उन्नावा लक्ष्मीनारायणा (1877-1958) एक ऊँची जाति से थे। दो मार्मिक कृतियां जो हाथ से मैला साफ करने की प्रथा और उस समुदाय के चरित्रों को चित्रित करती हैं, वे हैं थोटियुडे माकन (जिसका अर्थ है मेहतर का लड़का) और थोट्टी (जिसका अर्थ है मेहतर)। इन दोनों कृतियों के लेखक क्रमश: थकाजी शिवशंकर पिल्लई (जो अपने उपन्यास चेमेन के लिए अधिक जाने जाते हैं और जिस पर फिल्म भी बनाई जा चुकी है) और नागवल्ली आरएस कुरू थे। ये दोनों कृतियां सन् 1947 में प्रकाशित हुईं थीं यद्यपि यह दिलचस्प है कि ‘मेहतर का पुत्र’, ‘मेहतर’ के पूर्व प्रकाशित हुआ था। कुमारन आसन की दुरावस्था व चंडाल भिक्षुकी भी दलित समुदायों के बारे में हैं। कुमारन आसन स्वयं इड़िवा समुदाय के थे। उस समय इड़िवाओं को भी ‘अछूत’ माना जाता था यद्यपि वे इस प्रथा से उतने पीड़ित नहीं थे जितने कि दलित।
ध्यातव्य है कुछ मराठी लेखकों की आत्मकथाएं सामाजिक-ऐतिहासिक दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण हैं जिनकी चर्चा अत्यंत आवश्यक है। इनमें एक आत्मकथा का शीर्षक है ‘उपारा’ (बाहरी व्यक्ति) (1980) जो मराठी में लक्ष्मण माने द्वारा लिखी गई थी। यह कृति केकाड़ी समुदाय के बारे में है। यह समुदाय महाराष्ट्र में एसईडीबीसी की सूची में शामिल है। यह एक ऐसा समुदाय है जिसे औपनिवेशिक काल में आपराधिक जनजाति अधिनियम 1871 के तहत आपराधिक जनजाति करार दिया गया था। केकाड़ी, आंध्र प्रदेश के येरूकुला के समकक्ष हैं, जिन्हें पूर्व में ‘दमित जातियों’ की सूची में शामिल किया गया था और बाद में एसटी का दर्जा दे दिया गया। ये दोनों कर्नाटक के कोराचा, जो एससी की सूची में हैं और तमिलनाडु के कोरावा के समकक्ष हैं। कोरावा के कुछ तबकों को एसटी और कुछ को पिछड़ी जातियों में शामिल किया गया है। अलग-अलग राज्यों में उन्हें जो भी दर्जा दिया गया हो, परंतु इसमें कोई संदेह नहीं कि केकाड़ी समुदाय, समाज के सबसे निचले पायदान पर है और उनके जीवन के बारे में लिखे गए साहित्य को ‘दलित साहित्य’ कहा ही जाना चाहिए|
इस आंदोलन का एक बड़ा प्रभाव दलित हिंदी साहित्य धारा की आत्मकथा विधा में देखने को भी मिला।
तुलसी राम हिंदी के उन लेखकों में शामिल हैं जिन्होंने अभाव और नाउम्मीदी से सुरक्षित भविष्य और ख्याति का लंबा रास्ता तय किया है. उनकी आत्मकथा ‘मुरदहिया’ ने प्रकाशित होते ही हिन्दी साहित्य जगत में सनसनी फैला दी थी| ऐसा नहीं कि मुरदहिया हिन्दी में किसी दलित लेखक की पहली या सर्वश्रेष्ठ आत्मकथा थी, लेकिन इसके साथ ही यह भी सही है कि जिस निर्लिप्तता और मार्मिकता के साथ तुलसी राम ने अपने बचपन के अनुभवों का बेबाक ढंग से वर्णन किया था, वह अपने-आप में विशिष्ट था| हिंदी दलित साहित्य में 90 के दशक में पहली आत्मकथा ‘अपने-अपने पिंजरे’ आयी. हालांकि उससे पूर्व ‘मैं भंगी हूं’ भी आयी, लेकिन स्वयं भगवानदास जी इसे अपनी आत्मकथा नहीं मानते. वे इसे पूरी जाति की आत्मकथा मानते हैं. ललिता कोशल ने इसे परिवर्तन की प्रेरणा की संवाहक कहा है. बाद के दौर में ‘जूठन’, ‘तिरस्कृत’ तथा ‘दोहरा अभिशाप’ आदि आत्मकथाएं प्रकाशित हुईं जो अपनी-अपनी तरह से दलित साहित्य के इतिहास में दर्ज हुईं. किसी अहिंदी भाषी दलित महिला की (कौशल्या बैसंत्री) ‘दोहरा अभिशाप’ पहली आत्मकथा थी. उसके बाद महिलाओं ने भी लिखना शुरू किया. पहल की सुशीला टाकभौरे ने मराठी में|
‘घर के नज़दीक ही एक गधी को बच्चा हुआ था, मां मुझे उसका दूध निकाल कर पिला देती थी. परंतु ऐसा हर रोज़ नहीं होता था। हमारे मुहल्ले में उसी समय कुछ महिलाओं ने भी बच्चों को जन्म दिया था। उनसे मेरा भूख से बिलखना देखा नहीं जाता था। वे अपने बच्चे के साथ-साथ मुझे भी दूध पिलाती थीं। इस प्रकार मैं कई माताओं का दूध पीकर जीवित रह पाया। ‘गरीबी की वजह से गाय का दूध खरीदने की हैसियत भी नहीं थी. मेरा रोना-बिलखना देखकर मां मुझे छाती से लगाकर चुप कराने का प्रयास करती, तब मेरी दादी (आजी) उसको कहती- ‘तुझे दूध तो है नहीं, फिर काहे को उसे छाती से चिपकाए बैठी है? उसे अफीम देकर सुला दे, तो वह चुपचाप सोता रहेगा। तू अपने काम पर चल।’ मेरी मां मुझे थोड़ी-सी अफीम खिला देती और मैं दिन भर सोया रहता था।
‘इस प्रकार मेरे जीवन की शुरुआत ही ज़िंदा रहने के लिए संघर्ष करने से हुई थी।’
‘हम अस्पृश्य लड़कों के दिन भर खिड़की से बाहर खड़े रहने पर पांव थक जाते थे। तब गुरुजी की अनुमति से कभी दरवाज़े के पास थोड़ी देर बैठ जाते, किंतु वहीं से सबका आना-जाना होने के कारण हमें बार-बार उठना पड़ता था। स्कूल से एक फर्लांग की दूरी पर सवर्ण बच्चों के लिए पानी का कुआं था, लेकिन हम अछूतों को कोलारी गांव के महारपुरे के कुएं पर जाकर पानी पीना पड़ता था। स्कूल से महारपुरा काफी दूर था. ‘ऐसा क्या उस तुलसी-रामायण में लिखा है कि वह मेरे स्पर्श से अपवित्र हो गयी? मैं बड़ा होकर उस किताब को ज़रूर पढूंगा। आगे चलकर जब मैंने तुलसी-रामायण पढ़ी, तब पता चला कि उसमें वर्णभेद, जातिभेद, अस्पृश्यता का समर्थन तथा ब्राह्मणों के लिए अत्यधिक आदर एवं श्रद्धा बनायी गयी है। अस्पृश्य जातियां एवं स्त्रियों के विषय में भरपूर अनादर व संकुचित मनोवृत्ति का प्रदर्शन करते हुए नारी को नरक का द्वार एवं मोक्ष में बाधा जैसी कटुतापूर्ण बातें लिखी हुई हैं, यह पढ़कर मुझे बड़ा दुख हुआ था।’ ये शब्द डॉ. एन. एम. निमगेड़ के हैं, जो देश में प्रथम दलित वैज्ञानिक बने. उनकी आत्मकथा ‘धूल का पंछी यादों के पंख’ नाम से 2003 में हिंदी में छपी। जबकि डॉ. एम.एस. शहारे की मूल पुस्तक हिंदी में ‘यादों के झरोखे’ नाम से 2005 में आयी. पार्थ पोलके की आत्मकथा पोतराज (मराठी से) 2012 में आयी। डॉ. शहारे लोक सेवा आयोग के चेयरमैन भी रहे| ‘मेरी पत्नी और भेड़िया’ अब तक की प्रकाशित आत्मकथाओं में सबसे अधिक पृष्ठों वाली पुस्तक है, जिस पर सबसे कम नोटिस लिया गया| इसका सबसे मुख्य कारण यह है कि डॉ. धर्मवीर अपने घर के फजीते में ही उलझे रहे और जार कर्म के दर्शन को बार-बार याद दिलाते रहे। रजनी के अनुसार दलित महिलाओं की अस्मिता को भी तार-तार करते रहे। यह पहली दलित आत्मकथा है, जिस पर लगभग सभी महिलाओं ने आपत्ति जतायी। आक्रोश भी प्रकट किये. समर्थन करना तो दूर की बात रही।
उन्हीं की तरह श्यौराज सिंह बेचैन की आत्मकथा ‘मेरा बचपन मेरे कंधों पर’ आयी। ‘मेरी पत्नी और भेड़िया’ से कुछ कम पृष्ठ थे लेकिन अन्य आत्मकथाओं से फिर भी अधिक पृष्ठ।श्यौराजसिंह बेचैन की आत्मकथा पढ़ते हुए पाठकों को इतना तो अहसास हो ही जाता है कि आत्मकथाकार यानी श्यौराज ने बचपन में मेहनत मज़दूरी करते हुए आरम्भिक शिक्षा ग्रहण की होगी. विषम और विकट परिस्थितियों में शिक्षा प्राप्त कर आगे बढ़ना श्यौराजसिंह बेचैन की उपलब्धि भी कहा जा सकता है। हिंदी में अन्य तीन आत्मकथाएं माता प्रसाद जी की ‘झोपड़ी से राजभवन’, डी. आर. जाटव की ‘मेरा सफर मेरी मंज़िल’, और श्याम लाल जेदिया की ‘एक भंगी उपकुलपति की आत्मकथा’ और फिर तुलसीदास की ‘मुर्दहिया’ आयी। ये चार आत्मकथाएं जब लिखी गयीं तब इन वरिष्ठ दलित लेखकों/शिक्षाविदों तथा चिंतकों की उम्र कम से कम पचास वर्ष तो रही होगी हालांकि इससे ज़्यादा उम्र में ही ये आत्मकथाएं लिखी गयीं। मुझे ये बात इसलिए लिखनी पड़ रही है कि कुछ सवर्ण समीक्षकों का यह भी कहना रहा कि दलित लेखक जवान होते ही आत्मकथा लिखना शुरू कर देते हैं| इन चारों आत्मकथाओं में जहां हमें दलित उत्पीड़न की विभिन्न परिस्थितियां मिलती हैं वहीं संजीदगी का अहसास भी होता है| समाज में एक हद तक बदलाव तो आया है लेकिन दलित उत्पीड़न और हत्याओं, बलात्कारों, और बहिष्कार की अनगिनत घटनाएं अभी भी घटती चली जा रही हैं| दलित उत्पीड़न और हत्या के मामले में 2015 का वर्ष मध्यकालीन बर्बरता को मुँह चिढ़ा रहा है| ऐसी ही एक घटना राजस्थान के डांगावास में दलित संहार की है| इस घटना में पांच लोगों को जाट समुदाय के लोगों द्वारा बर्बर तरीके से मौत के घाट उतार दिया गया और 11 लोगों को गंभीर रूप से घायल कर दिया गया| इस घटना पर विस्तृत रिपोर्ट स्वतंत्र पत्रकार भंवर मेघवंशी ने प्रकाशित कर इस घटना की मुख्य सच्चाई को सबके सामने लाने का सराहनीय प्रयास किया है|
समाज में दमन की प्रक्रिया अपने विभिन्न रूपों में जारी है| परंपरागत सामंती ब्राह्मणवादी दमन पद्धति ने कई रूप धर लिए हैं| इसके कई रूपों की आवाजाही उत्पीड़ित समाजों में भी हुई है| हिंदी दलित साहित्य के आरंभिक अभिव्यक्तियों में इन रूपों की पहचान नहीं थी इसलिए उसके खिलाफ कोई विद्रोह भी नहीं था| विद्रोह था तो जातिव्यवस्था और इसको बनाये रखने वाली विचारपद्धति ब्राह्मणवाद के खिलाफ| लेकिन जैसे-जैसे समाज में साक्षरता बढ़ी है दलित समुदाय के लोगों का दखल अकादमिक और इससे इतर महत्वपूर्ण ज्ञान की जगहों पर हुआ है वैसे-वैसे दमन के सूक्ष्म और जटिल रूपों की भी पहचान तेज हुई है| यहाँ तक कि दलित साहित्य ने अपने भीतर की कमियों और सीमाओं का रेखांकन भी करना शुरू किया है| यह एक अच्छा संकेत माना जा सकता है क्योंकि जो समाज, व्यक्ति या देश आलोचना के साथ-साथ आत्मालोचना को नहीं स्वीकार करता उसके भीतर का बदलाव बहुत टिकाऊ और दीर्घजीवी नहीं हो सकता| इसके विकास की संभावना अवरुद्ध हो जाती है| लेकिन सुखद बात यह है कि बदलावधर्मी दलित साहित्य की ताज़ी अभिव्यक्तियों में आलोचना-आत्मालोचना का संतुलन बनता दिख रहा है| आलोचना की जगह आलोचनात्मक संवाद ने ले ली है| ज्ञानमीमांसा के इकहरेपन ने इसकी बहुयामिकता को स्वीकार करना शुरू कर दिया है|
दलित कविता का फलक विस्तृत हुआ है|
दलित साहित्य का दलित दृष्टिकोण से आलोचनात्मक मूल्याङ्कन अभी भी एक महत्वपूर्ण और जरुरी कार्यभार बना हुआ है| बजरंग बिहारी तिवारी दलित साहित्य के गंभीर अध्येता माने जाते हैं| उनकी पुस्तक दलित साहित्य: एक अंतर्यात्रा हिंदी दलित साहित्य के मूल्याङ्कन का एक प्रयास है| अपनी पुस्तक के कविता वाले अध्याय में वे जयप्रकाश लीलवान की कविताओं पर लिखते हुए जो निष्कर्ष देते हैं वह समकालीन आलोचना के परिदृश से एक प्रश्न है| वह लीलवान की कविताओं पर लिखते हुए कहते हैं– ‘लीलवान की “समय की आदमखोर धुन” शीर्षक पचास पेज लम्बी कविता हिंदी के समकालीन काव्य-परिदृश्य की एक उपलब्धि है| इसे भारतीय कविता का प्रतिनिधि स्वर कहा जा सकता है| यथार्थ के सुनियोजित आभासीकरण को पहचानती हुई यह कविता उन क्रूरताओं और नृशंसताओं को चिन्हित करती है जिसे “तकनीक सज्जित निरंकुश वर्चस्व” ने चकाचौधी आवरण से ढक दिया है|’ जाहिर है समकालीन हिंदी आलोचना जब ऐसी कविताओं की कोई सुध नहीं ले रही है तब बजरंग जी का ऐसी कविता पर ध्यान जाना और उसके महत्व को रेखांकित करना समकालीन आलोचना के इकहरे और पूर्वाग्रही स्वरुप को तोड़ना है| बजरंग जी की आलोचना दृष्टि मार्क्सवादी है वे अपनी आलोचना में द्वंद्वात्मक पद्धति का इस्तेमाल करते हैं यही कारण है कि दलित साहित्य के प्रति उनका दृष्टिकोण भावुकता वाला नहीं है| वह हमेशा उसकी सकारात्मकता के साथ उसके नकारात्मक पहलू को भी सामने लाते हैं| बजरंग जी दलित साहित्य का समग्र मूल्यांकन करते हुए इस बात की आशा करते हैं कि जिन सवालों पर दलित साहित्यकारों की पहली पीढ़ी ने नहीं लिखा उस पर वर्तमान पीढ़ी लिखेगी| जेंडर, पितृसत्ता, भूमंडलीकरण, बाजारवाद आदि को वे ब्राह्मणवाद के नए नए रूप मानते हैं और इसकी सत्ता को मजबूत करने वाली शक्ति (प्रतिक्रियावादी फासीवादी पूंजीवादी) के षड़यंत्र को उजागर करने पर जोर देते हैं आलोचना का समकालीन परिदृश्य दलित साहित्य को गंभीरता से स्वीकार करते हुए इसका मूल्यांकन कर रहा है यह एक अच्छी स्थिति है| दलित साहित्य की कई मूल स्थापनाओं का समर्थन करती उनके विस्तार की मांग करती और उनसे बहस करती यह किताब दलित साहित्य और हिंदी आलोचना को समृद्ध करती है| 2015 में उनकी प्रकाशित पुस्तकें जाति और जनतंत्र–दलित उत्पीड़न पर केंद्रित, भारतीय दलित साहित्य आंदोलन और चिंतन, यथास्थिति से टकराते हुए: दलित स्त्री से जुड़ी आलोचना हैं|
आरंभिक दलित कविताओं में पूंजीवाद से उपजे उत्पीड़न और ब्राह्मणवाद से इसके संश्रय पर कोई उल्लेखनीय आलोचना नहीं है| लेकिन 2015 में प्रकाशित दलित कविता की कई पुस्तकों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि ये कविताएं सामाजिक सत्ता के साथ-साथ राजनीतिक सत्ता के विविधवर्णी उत्पीड़न दमन के रूपों की मुखर और स्पष्ट आलोचना प्रस्तुत करती हैं| लेकिन पहले हिंदी दलित कविता के इतिहास पर एक नजर डाल लेते हैं|
कुछ विद्वान 1914 में ’सरस्वती’ पत्रिका में हीरा डोम द्वारा लिखित ’अछूत की शिकायत’ को पहली दलित कविता मानते हैं। कुछ अन्य विद्वान स्वामी अछूतानन्द ‘हरिहर’ को पहला दलित कवि कहते हैं, उनकी कविताएँ 1910 से 1927 तक लिखी गई। उसी श्रेणी मे 40 के दशक में बिहारी लाल हरित ने दलितों की पीड़ा को कविता-बद्ध ही नहीं किया, अपितु अपनी भजन मंडली के साथ दलितों को जाग्रत भी किया । दलितों की दुर्दशा पर बिहारी लाल हरित ने लिखा :
एक रुपये में जमींदार के, सोलह आदमी भरती ।
रोजाना भूखे मरते, मुझे कहे बिना ना सरती ॥
दादा का कर्जा पोते से नहीं उतरने पाया ।
तीन रुपये में जमींदार ने सत्तर साल कमाया ॥
दलित पैंथर आंदोलन के दौरान बडी संख्या में दलित जातियों से आए रचनाकारों ने आम जनता तक अपनी भावनाओं, पीडाओं, दुखों-दर्दों को लेखों, कविताओं, निबन्धों, जीवनियों, कटाक्षों, व्यंगों, कथाओं आदि के माध्यम से पहुंचाया।
प्रायः दलित समर्थक साहित्यिक संत साहित्य और नाथ, सिद्ध और संत कविता को दलित कविता की पृष्ठभूमि के रूप में चिन्हित करते रहे हैं लेकिन ओमप्रकाश वाल्मीकि ने इस मान्यता को अपनी किताब ‘दलित साहित्य: अनुभव संघर्ष एवं यथार्थ’ में अस्वीकार कर दिया| इसका कारण उन्होंने यह बताया कि चूँकि संत कविता में व्यक्त भक्त और ईश्वर का संबंध वैसा ही है जैसे दास और मालिक का इसलिए यह कविता कोई सामंतवादी ढांचे को तोड़ती नहीं है, इसलिए यह दलित कविता की पृष्ठभूमि नहीं हो सकती| ओमप्रकाश वाल्मीकि का यह तर्क विल्कुल ठीक है लेकिन भक्ति या दास और मालिक के बीच संवाद फॉर्म में जो समाज व्यवस्था की आलोचना का मूल्य है उसको भी स्वीकार करना बदलाव की परंपरा की पहचान करना है| हीरा डोम की जिस कविता को कई बार दलित कविता नहीं भी कहा जाता है उसमें भी जो संवाद का फॉर्म है उसके आधार पर वाल्मीकि के पैमाने पर दलित कविता नहीं सिद्ध होती लेकिन ध्यान से पाठ करने पर यह कविता एक तरफ जहाँ ईश्वर से अपने भौतिक सांसारिक जीवन में दमन के खिलाफ ईश्वर से शिकायत करती है वहीँ वह ईश्वर के पूर्वाग्रही रूप को उजागर करते हुए उसकी सत्ता को भी चुनौती देती है| उनकी शिकायत है कि उनका दुःख भगवान भी नहीं देखता है| ध्यान रहे कि यह शिकायत एक वचन में नहीं है बल्कि बहुवचन में है- ‘हमनी के दुःख भगवानओं न देखता जे/हमनी के कबले कलेसवा उठाइबि’| ईश्वर की सत्ता को चुनौती देने की बानगी देखिये- ‘कहवा सुतल बाटे सुनत न बाटे अब/ डोम जानि हमनी के छुए से डेराले’| डोम को छूने मात्र से जो ईश्वर डर रहा हो इस बात का बोध रखने वाला कवि कब तक ऐसे ईश्वर की सत्ता को मान सकता था यह कल्पना की सीमा में सहज ही आ सकता है| यह अनायास नहीं है कि संत कवियों का ईश्वर निर्गुण है, अजन्मा है| क्या निर्गुण संतों की इस चेतना का विस्तार हीरा डोम की इस कविता में नहीं दिखाई देता? (महावीर प्रसाद द्विवेदी)|
हिंसा के संदर्भों से दलित साहित्य भरा हुआ है। इस परंपरा-पोषित हिंसा को मदांध गज से उपमित करते हुए पहली पीढ़ी के हिंदी दलित कवि मलखान सिंह लिखते हैं- ‘मदांध हाथी लदमद भाग रहा है/ हमारे बदन/ गांव की कंकरीली/ गलियों में घिसटते हुए/ लहूलुहान हो रहे हैं/ हम रो रहे हैं/ गिड़गिड़ा रहे हैं/ जिंदा रहने की भीख मांग रहे हैं/ गांव तमाशा देख रहा है/ और हाथी/ अपने खंभे जैसे पैरों से/ हमारी पसलियां कुचल रहा है/ मवेशियों को रौंद रहा है/ झोपड़ियां जला रहा है/ गर्भवती स्त्रियों की नाभि पर/ बंदूक दाग रहा है/ और हमारे दुधमुंहे बच्चों को/ लाल लपलपाती लपटों में/ उछाल रहा है।’
हेमलता महिश्वर वर्तमान समय की महत्वपूर्ण कवयित्री हैं| उनका कविता संग्रह 2015 में प्रकाशित हुआ ‘नील, नीले रंग के’ | यह सर्व विदित है कि दलित आंदोलन और साहित्य में नीले रंग का बहुत महत्व है| लेकिन इनकी कविताओं में नील दमन को प्रतिबिंबित करने वाला एक बदला हुआ प्रतीक बनकर आया है और यह जो नीले रंग का जो नील है उसे दलित चेतना ही नष्ट कर सकती है|
परिवर्तन का हर विचार जो दलित मुक्ति में सहायक है उसके खिलाफ सरकार का जो दलित आदिवासी विरोधी अभियान है उसको बहुत गौर से आलोचना की विषयवस्तु बनाती हैं|
सलवा जुडूम में आदिवासी
सलवा जुडूम का आदिवासी
एस पी ओ आदिवासी
नक्सली आदिवासी
उल्फा आदिवासी
माओ आदिवासी
मरता आदिवासी
मरने से किसको बचाता आदिवासी
आगे आदिवासी
पीछे आदिवासी
बोलो कितने बचे आदिवासी|
प्रकृति और मनुष्यता को बचाने की चिंता से युक्त यह कविता प्रकृति के प्रति कोई नास्टेल्जिक भाव नहीं पैदा करती बल्कि मनुष्यता के अस्तित्व की आधारभूत ज़रुरत के रूप में इसे देखती है| वह लिखती हैं-
जंगल में है आदिवासी
तो समझो
मौसम को सुरक्षित रखने की मदद हासिल है|
वह ‘स्वर्ग और स्त्री’ शीर्षक कविता में लिखती हैं-
रखो स्वर्ग
अपना अपने पास
तुम्हे मुबारक
डालती हूँ मैं उस पर
गारत
कि मुझको तो
भाता है स्वतंत्र भारत
जाहिर है कि स्त्री की स्वतंत्रता की भावना वाली यह कविता देश की स्वतंत्रता में ही अपनी स्वतंत्रता की तलाश करती है| कवयित्री का यह विचार दलित साहित्य पर खंडित दृष्टि का आरोप लगाने वालों के लिए एक उत्तर हो सकता है| हेमलता की कविताएं सीधे पितृसत्ता की आलोचना नहीं करती हैं बल्कि स्त्रियों की स्थितियों को कलात्मक रूप में ढालकर व्यक्त कर देती हैं| कला संवेदना का विरोधी नहीं होती| कई बार यथार्थ का वर्णन उतना प्रभावी नहीं होता जितना यथार्थ का कलामयी वर्णन| आखिर कला का भी काम तो चेतना को उन्नत ही करना होता है|
‘उपस्थित/अनुपस्थित’ शीर्षक की कविताएं स्त्री के ऊपर पुरुष वर्चस्व और उसकी उपेक्षा से उपजे भाव को व्यक्त करती हैं| वह लिखती हैं-
चिपकी रह जाती है
झाड़न में जितनी धूल
उतना सा भी
नहीं रख पाई वे
बचाकर
अपना मन
मनोंमन कई टन
झाड़कर
घर की धूल|
‘रुखसाना का घर’ शीर्षक कविता संग्रह की लेखिका अनिता भारती (भारती 2015) का यह दूसरा काव्य संग्रह है| संग्रह का शीर्षक और उसका आवरण ही दलित आंदोलन और साहित्य में एक महत्वपूर्ण मोड़ का सूचक है| ऐसे समय में जब दलित समुदाय को हिन्दू अस्मिता के एकीकरण के नाम पर मुस्लिमों के खिलाफ खड़ा करने की पूरी कोशिश हो रही है ऐसे में एक दलित स्त्री की ओर से सांप्रदायिक दंगों की शासकीय साजिश को उजागर करती कविताएं लिखना देश को बचाने और दलित साहित्य की सिमित कर दी गयी परिभाषा को विस्तार देती हैं| समय-समय पर बाबा साहब को भी मुस्लिम विरोधी साबित करने की कोशिश की जाती रही है| विडम्बना तो यह है कि वे लोग जो बाबा साहब को देश विरोधी साबित करते रहे हैं वे ही अब उनको मुस्लिम विरोधी साबित कर दलितों को हिन्दू अस्मिता के नाम पर गोलबंद कर उनके दमन का प्रमाण पत्र हासिल करने में लगे हैं| लेकिन सुखद बात यह है कि दलित स्त्री कविता सत्ता के मुस्लिम विरोधी रुख को दलित दमन से जोड़कर देखती है| ‘रुखसाना का घर संग्रह’ की कविताएं मुजफ्फर नगर दंगे में प्रभावित मुस्लिम महिलाओं के भयानक दर्द को तथा सत्ता के षड़यंत्र को दिखाती हैं| वह लिखती हैं-
रुखसाना तुम्हारी आँखों के बहते पानी ने
कई आँखों के पानी मरने की
कलई खोल दी है|
दलित स्त्री कविता धर्म निरपेक्षता की जाँच देश में होने वाली सांप्रदायिक घटनाओं से करती है| एक स्थिति के बाद कविता दुःख और आक्रोश को व्यंग्य में ढाल देती है|
तुम्हारी बेटी के नन्हे हाथों से
उत्तर कापियों पर लिखे
एक छोटे से सवाल
धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र की विशेषताओं पर
अपना अर्थ तलाश रहे हैं|
अनीता भारती का यह कविता संग्रह दलित, मुस्लिम और उपेक्षित स्त्री की एकता, उनके दुःख के पहचानने तथा एक सामूहिक आवाज बन जाने की भावना अपने में समाहित किये हुए है|
दलित साहित्य में देश की एक वैकल्पिक परिकल्पना मौजूद है| यह जो विरासत में मिला हुआ देश है वह नाकाफी है| इसलिए देश का सपना यहाँ अलग ढंग से आकार लेता है| देश में कविता और कविता में देश कब गुंथ जाते हैं पता ही नहीं चलता| रजत रानी मीनू का कविता संग्रह ‘पिता भी तो होते हैं माँ’ की कविताएं इसी ‘देश’ को अपने समाये हुए हैं| वह लिखती हैं-
कविता मेरा देश है
कविता मेरा भाव|
कविता एक स्त्री-लिंगी शब्द है
जिसमे समाया है
पूरा का पूरा
विश्व परिवार|
उनकी कविताएं व्यंग्य का रूप धर लेती हैं| लिखती हैं- देश का वंश चलाने के लिए मजदूर स्त्री/देती है एक स्त्री एक बच्चे को जन्म!’| इनकी कविताएं पितृसत्ता की खुले रूप में रूप में आलोचना करती हैं तथा पारिवारिक लोकतंत्र की आवश्यकता पर ज़ोर देती हैं| ये प्रतीक नहीं बनातीं हैं अपनी बात सीधे सपाट शब्द्दों में और कई बार तो लम्बी-लम्बी कविताओं में कहती हैं| इनकी कविताएं रहस्य का आवरण नहीं बनाती हैं| इनकी कविताओं की विषयवस्तु व्यापक है| दलित स्त्री और दलित की स्थिति के लिए ब्राह्मणवाद और पितृसत्ता को ज़िम्मेदार ठहराती उनकी कविताएं जीवन के विविध आयाम को अपने दायरे में लाती हैं| उनकी कविता ‘रविवार का दिन’ तथा ‘गोया मैंने किया है अपराध’ सहित कई कविताएं पितृसत्ता की खुली आलोचना करती हैं| वह लिखती हैं-
तुमने बना
कर रख दिया आश्रिता मात्र
और मैं
गाती रही गीत
पिता की जमीदारी के
भ्राता और पति की मजबूती के|
असंग घोष का कविता संग्रह ‘समय को इतिहास लिखने दो’ को पढ़कर दलित साहित्य में व्यक्त होने वाला आरंभिक आक्रोश दिखता है| उनकी कविताएं आक्रोश से आशा की ओर बढ़ती हुई दिखती हैं| डांटने फटकारने की शैली के कारण कविताएं दलित साहित्य के नए टेस्ट को जन्म देती हैं| यह शैली बेहद आत्मविश्वास के बिना संभव नहीं हो सकती थी| उनकी लेखनी विद्रोह का बीज बोती है|
मैंने
अपनी लेखनी से
तेरे खिलाफ
विद्रोह का बीज
बो दिया है|
उनकी कविता में फटकार का एक नमूना यह है-
इससे पहले
की मेरे सारे औजार
मेरे शस्त्र बनकर
तुम्हारे खिलाफ
विद्रोह करें
तू भाग जा यहाँ से|
संत राम आर्य चर्चित दलित साहित्यकार हैं| उनका कविता संग्रह है ‘दर्द की भाषा’| जिस आत्मालोचना की उभरती हुई प्रवृत्ति की बात ऊपर की गयी है वह इस काव्य संग्रह में दर्ज है| अपनों से ही शिकायत करती कविता-
यहाँ अपने अपनों को काटते हैं
जोड़ते नहीं बांटते हैं
टुकड़े-टुकड़े कर दिए हैं देश और आदमी के
साहित्य में कविता अपने छोटे कलेवर के कारण जल्दी पढ़ ली जाती है और कम शब्दों में वह अपनी बात भी समाज को पहुँचा देती है| लेकिन कहानी और उपन्यास के साथ यह स्थिति नहीं है| दलित साहित्य में कहानी विधा भले ही उतनी चर्चित नहीं रही हो लेकिन उसका प्रभाव एक हद तक रहा है| लेकिन यह कहा जा सकता है कि दलित कहानी की प्रतियोगिता दलित कविता से ही रही है| ओमप्रकाश वाल्मीकि एक ऐसे दलित साहित्यकार रहे जिनकी लगभग सारी विधाओं की खूब चर्चा हुई| उनकी कहानियाँ भी उतनी ही गंभीरता से पढ़ी गयीं जितनी उनकी आत्मकथा और कविताएं| ओमप्रकाश वाल्मीकि की कहानियाँ अपने कहानीपन का एक अलग अंदाज लिए हुई थीं लेकिन उनकी विषय वस्तु प्रायः जातिवादी दमन और आतंरिक जातिवाद और ब्राहमणवादी संस्कृति थे| दलित कहानी का समकालीन परिदृश्य थोड़ा समृद्ध हुआ है| विषयवस्तु का विस्तार हुआ है| बाजार, नयी पूंजी, लैंगिक उत्पीड़न, दलित समाज के भीतर व्याप्त आधुनिकता विरोधी रूढ़ियाँ, ब्राह्मणवाद का पूंजीवाद के साथ मिलकर उत्पीड़न के नए तरीकों को जन्म देने की प्रवृत्ति की पहचान इसमें प्रमुख हैं|
दलित अभिजन प्रवृत्ति और सामाजिक कुरीतियों की आलोचना करती कविताएं सांप्रदायिक उन्माद की भावना से हमें सचेत करती हैं|
इनका उपन्यास है ‘अमन के रास्ते’यह उपन्यास अंतर्जातीय विवाहों में आने वाली कठिनाईयों को ध्यान में रखकर लिखा गया| विवाह संस्था एक सामाजिक शक्ति संरचना के साथ-साथ लैंगिक शक्ति संबंध को भी अभिव्यक्त करता है| जातिवादी पूर्वाग्रह और हमारी सामाजिक रूढ़ियों का भी अपना वर्चस्वशाली ढांचा होता है| इसके कारण अंतरजातीय विवाहों के संबंध निर्धारित होते हैं| यह उपन्यास इन्हीं समस्याओं को उजागर करता है तथा इसकी ऐतिहासिकता को भी अपने दायरे में शामिल करता है|
टेकचंद एक महत्वपूर्ण कहानीकार हैं| उनकी कहानियाँ उपरोक्त विषयों पर केंद्रित हैं| टेकचंद की कहानियाँ ग्रामीण जीवन का यथार्थ कम गाँव के क़स्बा में बदलते जाने और अंततः शहर तक के परिवर्तन को अपना विषय बनाती हैं| इनकी कहानियाँ दिल्ली के आस-पास के गांवों में आने वाले दलित समाज और गैर-दलित समाज के भीतर के बदलाव पर केंद्रित हैं| विकास की गति में दलित जीवन का मनोवैज्ञानिक महाख्यान प्रस्तुत करती हैं| गतिशीलता, इतिहासबोध की स्पष्टता इनकी कहानियों की विशेषताएं हैं| उनका कहानी संग्रह है- ‘मोर का पंख’| इसकी एक कहानी है ‘ए टी एम’| यह कहानी में एक ऐसी स्त्री की दशा के बारे में चित्रण है जो पढ़ी लिखी है नौकरी पेशा है| उसके पति सहित ससुराल वाले यह चाहते हैं कि अपनी पूरी कमाई वह ससुर या पति के हाथ में रख दे और अपने खर्च के लिए भी उन्हीं पर निर्भर करे| पहले तो नहीं बाद में लेकिन वह इस बात का विरोध करती है और कहती है- ‘मैं मर-मर कर कमाऊं और कमाई पर मेरा हक़ भी नहीं| अपने लिए तो किसान पंचायत मैं सीना ठोक कै कहो हो के ‘धरती किसकी? जो बोवै उसकी!’ फिर मेरी बारी में दोगली बात क्यों? मेरी मेहनत की कमाई पर मेरा हक़ क्यूँ ना हो? अपना ए टी एम, अपनी कमाई मैं किसी को देने वाली नहीं हूँ’| यह दलित समाज में स्त्री अधिकार दावा प्रस्तुत करती कहानी है| इनकी लगभग सारी कहानियाँ दिल्ली के आप-पास के क्षेत्रों की विषयवस्तु वाली हैं| अगर बदलती हुई दिल्ली का सबाल्टर्न इतिहास जानना है तो टेकचंद जी की कहानियाँ आप को सूक्ष्मता से इसमें मदद करेंगी|
दलित साहित्य में उपन्यास विधा को अभी और विस्तार लेना बाकी है| संभवतः अनुभव के हू-ब-हू व्यक्त कर देने के दबाव ने दलित साहित्य में कलात्मक सृजन में एक बाधा पैदा किया| हालाँकि अपनी बात को कहने के लिए कलात्मक पैमाना तय कर देने से उसकी स्वभाविकता नष्ट होने का खतरा रहता है| सुशीला टाकभौरे का उपन्यास ‘तुम्हें बदलना ही होगा’अपनी विषयवस्तु और प्रवाह के कारण ध्यान आकर्षित करता है| सुशीला जी की नज़र समाज के अनेकों सवालों पर रहती है| दलित साहित्य की मूल चिंता है जातिवाद का खात्मा| यही चिंता उनके उपन्यास में अभिव्यक्त हुई है| उनका उपन्यास यह प्रस्तावित करता है कि लोग अंतर्जातीय विवाह तो करते हैं लेकिन उच्च कही जाने वाली जातियाँ बहुत हद तक आपस में ही अंतर्जातीय विवाह करती हैं| इस दृष्टिकोण को बदलना होगा तभी समाज से जाति का खात्मा होगा| दलित साहित्य में आलोचना का भी विकास होना चाहिए|
– शैलेन्द्र चौहान
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