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‘संस्कृति और वर्चस्व’ विषय में बार-बार यही बात उभरती है कि वर्चस्व की संस्कृति के सबसे अधिक शिकार रहे हैं दलित और स्त्री। जीवन और पत्रकारिता में ‘औरत’ गम्भीर विमर्श की कम, चटकारे का विषय अधिक रही है और उसके बहाने नारी-देह का व्यवसायिक इस्तेमाल पुरुष पत्रकारों का स्थायी शगल रहा है। इस चमक-दमक से अलग गम्भीर ढंग से स्थितियों को समझना या स्वीकार करना क्या समय की ज़रूरत नहीं है ? यह किताब ऐसे ही सवालों को उठाने का कार्य करती है। राजेन्द्र यादव जी के सम्पादन में निकला स्त्री-विमर्श केन्द्रित विशेषांक का यह पुस्तकाकार है, जो कि तीन खण्डों में अपने पाठकों के लिए उपलब्ध है।
शोभा अक्षर, ‘हंस’ से दिसम्बर, 2022 से जुड़ी हैं। पत्रिका के सम्पादन सहयोग के साथ-साथ आप पर संस्थान के सोशल मीडिया कंटेंट का भी दायित्व है। सम्पादकीय विभाग से जुड़ी गतिविधियों का कार्य आप देखती हैं।
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प्रेमचंद की तरह राजेन्द्र यादव की भी इच्छा थी कि उनके बाद हंस का प्रकाशन बंद न हो, चलता रहे। संजय सहाय ने इस सिलसिले को निरंतरता दी है और वर्तमान में हंस उनके संपादन में पूर्ववत निकल रही है।
संजय सहाय लेखन की दुनिया में एक स्थापित एवं प्रतिष्ठित नाम है। साथ ही वे नाट्य निर्देशक और नाटककार भी हैं. उन्होंने रेनेसांस नाम से गया (बिहार) में सांस्कृतिक केंद्र की स्थापना की जिसमें लगातार उच्च स्तर के नाटक , फिल्म और अन्य कला विधियों के कार्यक्रम किए जाते हैं.
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