कुछ घड़ी अंकुश हटाकर बन्धनों के देख
समय की अपनी गति फिर मोह कैसा है..
चल रहा हर एक कदम बस लक्ष्य साधकर
खिल रही कुसुमावलि का रूप कैसा है..
भाँप ले उन्माद चाहे लाख झोंकों का
रोक सकता कौन इन्हें तन भेद सकने से..
तज रहे हैं भोग जिन निधियों को पाने को
वह छिपी हर श्वास भर उन्मुक्त जीने में..
पल्लवी चतुर्वेदी
प्रेमचंद की तरह राजेन्द्र यादव की भी इच्छा थी कि उनके बाद हंस का प्रकाशन बंद न हो, चलता रहे। संजय सहाय ने इस सिलसिले को निरंतरता दी है और वर्तमान में हंस उनके संपादन में पूर्ववत निकल रही है।
संजय सहाय लेखन की दुनिया में एक स्थापित एवं प्रतिष्ठित नाम है। साथ ही वे नाट्य निर्देशक और नाटककार भी हैं. उन्होंने रेनेसांस नाम से गया (बिहार) में सांस्कृतिक केंद्र की स्थापना की जिसमें लगातार उच्च स्तर के नाटक , फिल्म और अन्य कला विधियों के कार्यक्रम किए जाते हैं.