मार्च-1930 में प्रेमचंद ने हंस का प्रकाशन आरंभ किया। महान कथाकार और चिंतक होने के साथ-साथ प्रेमचंद अनूठे संपादक भी थे।माधुरी, जागरण और हंस के संपादन द्वारा इन्होंने एक जागरूक पत्रकार का परिचय भी दिया।
गांधीयुग की हिन्दी पत्रकारिता में अहम भूमिका निभाने वाले प्रेमचंद एक तरफ़ अपने समय और समाज का सच दिखा रहे थे- क्या होना चाहिये; यह बता रहे थे तो दूसरी ओर अपने प्रोत्साहन और प्रेरणा से रचनाकारों की एक पीढ़ी भी तैयार कर रहे थे। प्रेमचंद के रूप में हिन्दी को एक सजग व पूर्वग्रह रहित चिंतक मिला जो विभिन्न बौद्धिक
हलचलों को लेकर संवादधर्मी था।वे गाँधी से प्रभावित थे तो रूस की बोल्शेविक क्रांति से भी।गांधीयुगीन आदर्शवाद से लेकर यथार्थवाद तक की अपनी यात्रा में उन्होंने
ऐसा संपादक इस पत्रिका को कई वर्षों के ठहराव के बाद आठवें दशक में राजेन्द्र यादव के रूप में मिला। कमाल की जीवटता के साथ इन्होंने भी अपने देहावसान तक हंस का संपादन किया।
आज़ादी के बाद के कथा-साहित्य और अस्मिता-संबंधी या विमर्श-परक लेखन पर जब भी बात होगी, उसकी उपलब्धियों और इतिहास पर जब भी चर्चा होगी वह कथाकार राजेन्द्र यादव के जिक्र के बिना अधूरी होगी। उन्होंने मोहन राकेश और कमलेश्वर के साथ ‘नयी कहानी’ आंदोलन का प्रवर्तन किया। राजेन्द्र यादव ने 31 जुलाई, प्रेमचंद जयंती के दिन, 1986 में हंस का संपादन आरंभ किया जो एक बड़ी साहित्यिक धरोहर का पुनराविष्कार था। प्रेमचंद और हंस के तमाम दायित्वों को राजेन्द्र यादव ने जिस सक्रियता के साथ निभाया वह अपने आप में एक मिसाल बन गई। प्रेमचंद की ही तरह इन्होंने भी हंस के माध्यम से रचनाकारों की पीढ़ी तैयार की। वर्तमान हिन्दी साहित्य में सक्रिय दर्जनों नाम इस बात के प्रमाण हैं।
शोभा अक्षर, ‘हंस’ से दिसम्बर, 2022 से जुड़ी हैं। पत्रिका के सम्पादन सहयोग के साथ-साथ आप पर संस्थान के सोशल मीडिया कंटेंट का भी दायित्व है। सम्पादकीय विभाग से जुड़ी गतिविधियों का कार्य आप देखती हैं।
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प्रेमचंद की तरह राजेन्द्र यादव की भी इच्छा थी कि उनके बाद हंस का प्रकाशन बंद न हो, चलता रहे। संजय सहाय ने इस सिलसिले को निरंतरता दी है और वर्तमान में हंस उनके संपादन में पूर्ववत निकल रही है।
संजय सहाय लेखन की दुनिया में एक स्थापित एवं प्रतिष्ठित नाम है। साथ ही वे नाट्य निर्देशक और नाटककार भी हैं. उन्होंने रेनेसांस नाम से गया (बिहार) में सांस्कृतिक केंद्र की स्थापना की जिसमें लगातार उच्च स्तर के नाटक , फिल्म और अन्य कला विधियों के कार्यक्रम किए जाते हैं.