Hanshindimagazine

संस्थापक परिचय

प्रेमचंद ( 1880 - 1936)

मार्च-1930 में प्रेमचंद ने हंस का प्रकाशन आरंभ किया। महान कथाकार और चिंतक होने के साथ-साथ प्रेमचंद अनूठे संपादक भी थे।माधुरी, जागरण और हंस के संपादन द्वारा इन्होंने एक जागरूक पत्रकार का परिचय भी दिया।

 

गांधीयुग की हिन्दी पत्रकारिता में अहम भूमिका निभाने वाले प्रेमचंद एक तरफ़ अपने समय और समाज का सच दिखा रहे थे- क्या होना चाहिये; यह बता रहे थे तो दूसरी ओर अपने प्रोत्साहन और प्रेरणा से रचनाकारों की एक पीढ़ी भी तैयार कर रहे थे। प्रेमचंद के रूप में हिन्दी को एक सजग व पूर्वग्रह रहित चिंतक मिला जो विभिन्न बौद्धिक

हलचलों को लेकर संवादधर्मी था।वे गाँधी से प्रभावित थे तो रूस की बोल्शेविक क्रांति से भी।गांधीयुगीन आदर्शवाद से लेकर यथार्थवाद तक की अपनी यात्रा में उन्होंने

अतिरेकों से खुद को बचाया और आंखमूँद किसी का अनुसरण नहीं किया। अपने समय के और परवर्ती हिंदी कथा साहित्य को जितना इनहोंने प्रेरित और प्रभावित किया उतना अब तक हिन्दी के किसी दूसरे कथाकार ने नहीं।
संस्थापक परिचय

राजेन्द्र यादव - 1929 - 2013

ऐसा संपादक इस पत्रिका को कई वर्षों के ठहराव के बाद आठवें दशक में राजेन्द्र यादव के रूप में मिला। कमाल की जीवटता के साथ इन्होंने भी अपने देहावसान तक हंस का संपादन किया।

आज़ादी के बाद के कथा-साहित्य और अस्मिता-संबंधी या विमर्श-परक लेखन पर जब भी बात होगी, उसकी उपलब्धियों और इतिहास पर जब भी चर्चा होगी वह कथाकार राजेन्द्र यादव के जिक्र के बिना अधूरी होगी। उन्होंने मोहन राकेश और कमलेश्वर के साथ ‘नयी कहानी’ आंदोलन का प्रवर्तन किया। राजेन्द्र यादव ने 31 जुलाई, प्रेमचंद जयंती के दिन, 1986 में हंस का संपादन आरंभ किया जो एक बड़ी साहित्यिक धरोहर का पुनराविष्कार था। प्रेमचंद और हंस के तमाम दायित्वों को राजेन्द्र यादव ने जिस सक्रियता के साथ निभाया वह अपने आप में एक मिसाल बन गई। प्रेमचंद की ही तरह इन्होंने भी हंस के माध्यम से रचनाकारों की पीढ़ी तैयार की। वर्तमान हिन्दी साहित्य में सक्रिय दर्जनों नाम इस बात के प्रमाण हैं।

चौंतीस साल के अंतराल के बाद जब हंस आपके संपादन में निकलने लगी तो पत्रिका की पूर्ववत छवि और नयी जिम्मेदारियों से तालमेल बिठाने की चुनौती थी।‘परंपरा’ से मिलकर ‘नये’ को समाहित करने की चुनौती थी। इस बारे में ‘पुरानी पत्रिका के नये अंक’ के औचित्य को समझाते हुए हंस के अपने पहले संपादकीय में वे स्पष्ट मत रखते हैं कि ‘हंस प्रेमचंद की रूढ़ियों से नहीं, परंपरा से प्रतिबद्ध है।’ प्रेमचंद की परंपरा से आशय क्या है जिसके प्रति हमारी वर्तमान प्रतिबद्धता है, यह भी इसी संपादकीय में है-“सामाजिक असमानता, अन्याय और शोषण के विरुद्ध संघर्ष, रूढ़ियों और आडंबरों के खिलाफ जिहाद, शक्ति और सत्ता की अनीतियों, अत्याचारों का प्रतिरोध — यही चिंताएं और प्रतिबद्धताएं प्रेमचंद की भी थीं — अपने समय के संदर्भ में।” और यही आज के हंस की भी हैं।
राजेन्द्र यादव का जन्म 28 अगस्त 1929 को उत्तर प्रदेश के आगरा जिले में हुआ था। शिक्षा भी आगरा में रहकर हुई। बाद में दिल्ली आना हुआ और कई व्यापक साहित्यिक परियोजनाएं यहीं सम्पन्न हुईं। देवताओं की मूर्तियां, खेल-खिलौने, जहां लक्ष्मी कैद है, अभिमन्यु की आत्महत्या, छोटे-छोटे ताजमहल, किनारे से किनारे तक, टूटना, अपने पार, ढोल तथा अन्य कहानियां, हासिल तथा अन्य कहानियां व वहां तक पहुंचने की दौड़, इनके कहानी संग्रह हैं। उपन्यास हैं-प्रेत बोलते हैं, उखड़े हुए लोग, कुलटा, शह और मात, एक इंच मुस्कान, अनदेखे अनजाने पुल। ‘सारा आकाश,’‘प्रेत बोलते हैं’ का संशोधित रूप है। जैसे महावीर प्रसाद द्विवेदी और ‘सरस्वती’ एक दूसरे के पर्याय-से बन गए वैसे ही राजेन्द्र यादव और ‘हंस’ भी। हिन्दी जगत में विमर्श-परक और अस्मितामूलक लेखन में जितना हस्तक्षेप राजेन्द्र यादव ने किया, दूसरों को इस दिशा में जागरूक और सक्रिय किया और संस्था की तरह कार्य किया, उतना शायद किसी और ने नहीं। इसके लिए ये बारंबार प्रतिक्रियावादी, ब्राह्मणवादी और सांप्रदायिक ताकतों का निशाना भी बने पर उन्हें जो सच लगा उसे कहने से नहीं चूके। 28 अक्टूबर 2013  अपनी अंतिम सांस तक आपने  हंस का संपादन पूरी निष्ठा के साथ किया। हंस की उड़ान को इन ऊंचाइयों तक पहुंचाने का श्रेय राजेन्द्र यादव को जाता है।

साद अहमद

ग्राफ़िक डिज़ाइनर / वीडिओ एडिटर
साद अहमद, ‘हंस’ से जून,2021 से जुड़े हैं। ‘हंस’ के सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स पर पब्लिश सभी पोस्टर और वीडियो एडिटिंग के साथ-साथ इन पर अक्षर प्रकाशन से प्रकाशित पुस्तकों के कवर डिज़ाइन का भी दायित्व है। 
आप संस्थान सम्बन्धी सभी कार्यक्रमों के प्रचार-प्रसार से जुड़े कार्यो की ज़िम्मेदारी सँभालते हैं। साथ ही अपने अनुभव से मार्केटिंग/सोशल मीडिया विभाग में सहयोग करते हैं। 
 
आप इनसे निम्नलिखित ईमेल पर सम्पर्क कर सकते हैं : 
 
उत्तर प्रदेश के बनारस जिले के लमही गाँव में 31 अक्टूबर 1880 में जन्मे प्रेमचंद का मूल नाम धनपतराय था।पिता थे मुंशी अजायब राय।शिक्षा बनारस में हुई। कर्मभूमि भी प्रधानतः बनारस ही रही। स्वाधीनता आंदोलन केनेता महात्मा गांधी से काफी प्रभावित रहे और उनके ‘असहयोग आंदोलन’ के दौरान नौकरी से त्यागपत्र भी देदिया। लिखने की शुरुआत उर्दू से हुई, नवाबराय नाम से। ‘प्रेमचंद’ नाम से आगे की लेखन-यात्रा हिन्दी में जारी रही। ‘मानसरोवर,’ आठ खंडों में, इनकी कहानियों का संकलन है और इनके। उपन्यास हैं सेवासदन, प्रेमाश्रम, निर्मला, रंगभूमि, कायाकल्प, गबन, कर्मभूमि, गोदान और मंगल सूत्र (अपूर्ण)। 1936 ई. में ‘गोदान’ प्रकाशित हुआ और इसी वर्ष इन्होंने लखनऊ में प्रगतिशील लेखक संघ’ की अध्यक्षता की। दुर्योग यह कि इसी वर्ष 8 अक्टूबर को इनका निधन हो गया। जब तक शरीर में प्राण रहे प्रेमचंद हंस निकालते रहे। उनके बाद इसका संपादन जैनेन्द्र,अमृतराय आदि ने किया। बीसवीं सदी के पांचवें दशक मेंयह पत्रिका किसी योग्य, दूरदर्शी और प्रतिबद्धसंपादक के इंतजार में ठहर गई, रुक गई।

शोभा अक्षर

सम्पादन सहयोग

शोभा अक्षर, ‘हंस’ से दिसम्बर, 2022 से जुड़ी हैं। पत्रिका के सम्पादन सहयोग के साथ-साथ आप पर संस्थान के सोशल मीडिया कंटेंट का भी दायित्व है। सम्पादकीय विभाग से जुड़ी गतिविधियों का कार्य आप देखती हैं।

आप इनसे निम्नलिखित ईमेल एवं नम्बर पर सम्पर्क कर सकते हैं :

ईमेल : editorhans@gmail.com
फ़ोन न : 011-41050047

प्रेमचंद गौतम

शब्द संयोजक
कोरोना महामारी में हमसे जुदा हुए वर्षों से जुड़े हमारे कम्पोज़र सुभाष चंद का रिक्त स्थान जुलाई 2021 में प्रेमचंद गौतम ने संभाला। हंस के सम्मानित लेखकों की सामग्री को पन्नों में सुसज्जित करने का श्रेय अब इन्हें जाता है । मुख्य आवरण ले कर अंत तक पूरी पत्रिका को एक सुचारू रूप देते हैं। इस क्षेत्र में वर्षों के अनुभव और ज्ञान के साथ साथ भाषा पर भी इनकी अच्छी पकड़ है।

दुर्गा प्रसाद

कार्यालय व्यवस्थापक
पिछले 36 साल से हंस के साथ जुड़े दुर्गा प्रसाद , इस बात का पूरा ध्यान रखते हैं की कार्यालय में आया कोई भी अतिथि , बिना चाय-पानी के न लौटे। हंस के प्रत्येक कार्यकर्ता की चाय से भोजन तक की व्यवस्था ये बहुत आत्मीयता से निभाते हैं। इसके अतिरिक्त हंस के बंडलों की प्रति माह रेलवे बुकिंग कराना , हंस से संबंधित स्थानीय काम निबाटना दुर्गा जी के जिम्मे आते हैं।

किशन कुमार

कार्यालय व्यवस्थापक / वाहन चालक
राजेन्द्र यादव के व्यक्तिगत सेवक के रूप में , पिछले 25 वर्षों से हंस से जुड़े किशन कुमार आज हंस का सबसे परिचित चेहरा हैं । कार्यालय में रखी एक-एक हंस की प्रति , प्रत्येक पुस्तक , हर वस्तु उनकी पैनी नज़र के सामने रहती है। कार्यालय की दैनिक व्यवस्था के साथ साथ वह हंस के वाहन चालक भी हैं।

हारिस महमूद

वितरण और लेखा प्रबंधक
पिछले 37 साल से हंस के साथ कार्यरत हैं। हंस को देश के कोने -कोने तक पहुँचाने का कार्य कुशलतापूर्वक निभा रहे हैं। विभिन्न राज्यों के प्रत्येक एजेंट , हर विक्रेता का नाम इन्हें कंठस्थ है। समय- समय पर व्यक्तिगत रूप से हर एजेंट से मिलकर हंस की बिक्री का पूरा ब्यौरा रखते हैं. इसके साथ लेखा विभाग भी इनके निरीक्षण में आता है।

वीना उनियाल

सम्पादन संयोजक / सदस्यता प्रभारी
पिछले 31 वर्ष से हंस के साथ जुड़ीं वीना उनियाल के कार्यभार को एक शब्द में समेटना असंभव है। रचनाओं की प्राप्ति से लेकर, हर अंक के निर्बाध प्रकाशन तक और फिर हंस को प्रत्येक सदस्य के घर तक पहुंचाने की पूरी प्रक्रिया में इनकी अहम् भूमिका है। पत्रिका के हर पहलू से पूरी तरह परिचित हैं और नए- पुराने सदस्यों के साथ निरंतर संपर्क बनाये रखती हैं।

रचना यादव

प्रबंध निदेशक
राजेन्द्र यादव की सुपुत्री , रचना व्यवसाय से भारत की जानी -मानी कत्थक नृत्यांगना और नृत्य संरचनाकर हैं। वे 2013 से हंस का प्रकाशन देख रही हैं- उसका संचालन , विपणन और वित्तीय पक्ष संभालती हैं. संजय सहाय और हंस के अन्य कार्यकर्ताओं के साथ हंस के विपणन को एक आधुनिक दिशा देने में सक्रिय हैं।

संजय सहाय

संपादक

प्रेमचंद की तरह राजेन्द्र यादव की भी इच्छा थी कि उनके बाद हंस का प्रकाशन बंद न हो, चलता रहे। संजय सहाय ने इस सिलसिले को निरंतरता दी है और वर्तमान में हंस उनके संपादन में पूर्ववत निकल रही है।

संजय सहाय लेखन की दुनिया में एक स्थापित एवं प्रतिष्ठित नाम है। साथ ही वे नाट्य निर्देशक और नाटककार भी हैं. उन्होंने रेनेसांस नाम से गया (बिहार) में सांस्कृतिक केंद्र की स्थापना की जिसमें लगातार उच्च स्तर के नाटक , फिल्म और अन्य कला विधियों के कार्यक्रम किए जाते हैं.