Hanshindimagazine

मास्को

1.

शिमला में मैं पत्नी से कहता था – क्या भूत वर्तमान हो सकता है और वर्तमान भविष्य!! क्या हम घट रहे वर्तमान को समय में पीछे जाकर भविष्य के मानिंद देख सकते हैं?

पत्नी कुछ नहीं कहती थी| बस खिड़की के शीशे के बाहर देखती रहती| बाहर लैंप पोस्टों की पीली स्निग्ध रोशनियों के आवरण में चुपचाप सफेद बर्फ गिर रही होती थी| भीतर मुलायम बिस्तर पर प्रांजल की कोमल नींद बिछी रहती थी| टीवी पर बहुत धीमी आवाज में कोई क्लासिकल अंग्रेजी फिल्म होती जिसमें यूरोपीय स्थापत्य से भरे दृश्यों के पीछे मोजार्ट, बीथोवन या लिस्त की कांपती-सी धुने उठती रहती|

एक और अच्छा दृश्य याद आता है| आधी रात – बर्फ की खामोश सफेदी – हीटर की हल्की गर्माहट – कॉफी | हम दोनों खिड़की के पास अपनी-अपनी कुर्सियों पर बैठे थे| मेरे हाथ में टॉलस्टॉय की आत्मकथा थी| अंजु टीवी पर अंग्रेजी फिल्म ‘ब्रिजिस् ऑफ स्पाई’ देख रही थी| कोल्ड वार – रशियन जासूस – मुकदमा – कैदियों का आदान-प्रदान – विभाजित जर्मनी – बर्लिन वॉल और एक शब्द बार-बार – ‘कम्युनिस्ट’ | फिल्म के बाद देर तक इन शब्दों पर बात होती रही| शोस्तोकोविच की धीमी सिंफनी (पहले फिल्म में, अब फोन में) की तहों के ऊपर हमारी बातों में किंचित गंभीरता घुस आई थी| अंत में हमारा संवाद ‘कम्युनिस्ट’, ‘कम्युनिज्म’ पर आ टिका था| गूगल पर देर तक इसकी विभिन्न परतें खोलते रहे| पत्नी की उत्सुकता ज्यादा थी| फेसबुक पर अक्सर मुझे वामपंथी कहा जाता था| यह 2017 की सर्दियों की रात थी| देश में नवीन सत्ता की स्थापना के साथ ही कुछ पुराने शब्दों की अर्थगत पुनर्संरचना हुई थी | शब्द जैसे हिंदुत्व, सेक्युलर, देशभक्ति और वामपंथी| उसके बाद से जिसके पास भी तर्क की कमी होती या विरोध में तो रुचि होती पर बहस में नहीं, वो दूसरे को वामपंथी कहकर अस्तु कर देता|

उस रात सोने से पहले पहली बार हम दोनों के मुख से लगभग एक साथ निकला था – रशिया चलें|

पर जैसा कि मैंने पहले कहा कि मुझे कभी भी इनमें से एक भी दृश्य भूत का नहीं लगता| तो क्या ‘वर्तमान’ स्मृति की दहलीज के बाहर का उजाला है और ‘स्मृति’ वर्तमान के सुनहरे उद्यान के किनारे खड़ी खामोश छाया| दोनों एक दूसरे को देखते हैं, दोनों एक दूसरे के पास उपस्थित हैं, ये एक दूसरे के भूत और भविष्य नहीं हैं बल्कि एक दूसरे के समकालीन हैं…कि स्मृति बीता हुआ कल नहीं होती, बल्कि बीते हुए कल का वर्तमान होती है| क्या ये सच है!

2.

मॉस्को के ऊपर घने बादल थे| घोषणा हो चुकी थी कि हम कुछ ही देर में उतरने वाले हैं| सीट बेल्ट लगाने की हिदायत दी जा चुकी थी| लेकिन 15 मिनट से ज्यादा का समय बीत चुका था| स्क्रीन में साफ दिखाई दे रहा था कि हम मॉस्को के ठीक ऊपर हैं| स्पष्ट था कि कैप्टन बादलों के उस विशाल सागर में गोता लगाने से हिचकिचा रहा था| सफेद-काले बादलों में दूर कहीं-कहीं हल्की रोशनी भी चमक जाती थी | वो बिजली थी | मॉस्को में शायद तेज बरसात हो रही थी और हम बरसात के ऊपर थे| पहली नजर में मेरे लिए यह फैंटेसी जैसा था – एक काव्यात्मक एहसास | पर जल्द ही इसकी जगह किसी और चीज ने ले ली| थोड़ा उचक कर दूसरी सीटों पर देखा | वहां एक आकुल सी व्यग्रता थी |मैंने बच्चों की ओर देखा | वे सो रहे थे – सब कुछ से परे, एकदम निश्चिंत | प्रांजल खिड़की के पास थी| उसके आधे चेहरे पर उज्जवल आकाश की छाया चमक रही थी| और द्विशा – हमेशा की तरह गहरी तन्मयता से युक्त, पूर्ण आश्वस्त, मेरे सुने हुए सबसे सुंदर संगीतों का सार चित्र| अंजु की आंखें बंद थी, पर मैं जानता था कि वो जाग रही है| मैं अपने सबकुछ के साथ कड़कते बादलों के ऊपर था| हमारे साथ वाली सीट पर बैठा लड़का अब भी किताब पढ़ रहा था – ओलेश गोंचार की कहानियां (कुछ देर पहले मैंने उससे किताब मांग ली थी जब वो खा रहा था) | पर अब उसके चेहरे और उंगलियों में पहले-सी तन्मयता नहीं थी | एयर होस्टेस यात्रियों से पानी के लिए पूछने लगी थी, लेकिन वे उनसे बीयर और वाईन मांग रहे थे|

‘क्या ये डर की भूमिका है!’- मैंने खुद से कहा|

मैं डरना नहीं चाहता था| सामने स्क्रीन में बहुत सारी चीजों के साथ म्यूजिक का सैक्शन भी था| ढ़ेर से क्लासिकल यूरोपियन कंपोजर| मैंने चाइकोवस्की को चुना और अपनी आंखें बंद कर ली|

भीतर टॉलस्टॉय-दोस्तोवस्की-चेखव की बातें जल्दी-जल्दी उमड़ने-घुमड़ने लगी| (आज इन पंक्तियों को लिखते वक्त भी मैं हैरान होता हूं कि उस वक्त कोई और लेखक-रशिया के बाहर का- मेरे मन में क्यों नहीं आया| लेकिन इसका कोई मुकम्मल जवाब मुझे अभी तक नहीं मिला|)

टॉलस्टॉय ने कहा था – धैर्य और समय दो सर्वाधिक शक्तिशाली योद्धा होते हैं| क्या डर के संबंध में भी ये कथन लागू होता है? क्या डर पर कोई भी दर्शन लागू होता है?

काफी देर बाद जहाज एक ओर झुका| भीतर घना धुंधलका-सा छा गया| अंजु की हथेली मेरे हाथ पर कस गई| प्रांजल के चेहरे के पीछे खिड़की के शीशे पर पानी की बूंदे नृत्य-सा कर रही थी| चारों ओर तेज फूंफकारते बादलों का घना रेला था| न जाने कितने ही बेचैनी भरे क्षणों तक जहाज उनके बीच में हल्के हिचकोले खाता रहा — चाइकोवस्की की सिम्फनी के समानांतर उठता-गिरता रहा| … और फिर अचानक, जब मुझे इस बिल्कुल बेतुके ऊहापोह से चिढ़ होने लगी, ठीक उसी समय जहाज इस निहायती ‘अब्जर्ड’ सौंदर्य अनुभव को एक झटके से छोड़कर अनंत खुले शून्य में निकल आया| एकाएक सब कुछ समतल और शांत हो गया|

जहाज में कैप्टन की निश्चिंत आवाज गूंजने लगी| लगभग पचास मिनट तक हम बादलों के ऊपर घूमते रहे थे| खिड़की के बाहर रशिया का सुखी कर देने वाला निथरा-सा चेहरा दिखाई पड़ रहा था|

3.
वीजा-पासपोर्ट चैक से निकलने के बाद ही पहली बार मैंने रशियनों को उनके चेहरे और आँखों में देखा – एक औपचारिक परिचय की तरह। लेकिन वहाँ न तो स्वागत था, न ही उपेक्षा। बस एक किस्म का शुष्क-सा स्वीकार था। आप उनसे डरते नहीं, पर उनके पास भी नहीं जा पाते। मैं स्वीकार करता हूँ कि इस पहली मुलाक़ात में मैं उनके बारे में कुछ भी नहीं समझ पाया। उनके सख्त चेहरों के लाल रंग में न तो श्रेष्ठता की भावना प्रतिबिम्बित होती थी, न ही किसी तरह का कोई अहं। बल्कि बहुत स्पष्ट रूप से एक ‘बचके निकलने का-सा भाव’ दिखाई पड़ता था।

एयरपोर्ट की ऊंची काँच की खिड़कियों से बाहर दूर तक फैली हवाई पट्टियों पर ऐरोफ़्लोट के बोइंग जहाजों की गीली पंक्तियाँ नज़र आती थी। एक ऊंचे टावर पर रूसी ध्वज के रंग फड़फड़ा रहे थे – सफ़ेद, नीला, लाल। और उसके ऊपर रूसी आकाश के कैनवास पर काले-सफ़ेद बादलों का एक गहरा इम्प्रेस्निष्ट चित्र… जिसके अदृश्य अंतर्जगत में कितनी ही आशंकाएं और प्रार्थनाएं अब भी मंडरा रही थी| चारों ओर रूसी भाषा का सैलाब-सा था जिसके बीच में सुकून देने वाले छोटे-छोटे द्वीपों जैसे अंग्रेजी के शब्द नजर आते थे| इन्हीं द्वीपों पर रुकते-पड़ते हमें पुश्किन मिल गए – रूसी कवि अलेक्जेंडर पुश्किन| एअरपोर्ट के भीतर उनका आदम कद ब्रांज ‘रोमांटिक’ स्टैच्यू हाथ में किताब लिए उनके समय के पहनावे और शृंगार से युक्त बहुत निश्चिंत भाव में खड़ा था| शेरमिटयेवो एअरपोर्ट पुश्किन को समर्पित किया गया है| अपने महान साहित्यकारों के प्रति श्रद्धा भाव की अभिव्यक्ति का एक प्रेरक रूप जिसके और भी बहुत से उदाहरण बाद में हमें देखने को मिले|

मैंने अंजु को संक्षिप्त में बताया कि पुश्किन रशियन रोमांटिक काल के कवि थे और उनको आधुनिक रशियन साहित्य का संस्थापक माना जाता है| उनको शक था कि उनकी बेहद खूबसूरत पत्नी पर उसकी (पत्नी की) बहन का पति बुरी नियत रखता है| पुश्किन ने उसको ‘ड्यूल’ के लिए ललकारा और उसकी गोली से मारे गए| तब उनकी उम्र सिर्फ 37 साल थी|

अंजु ने पुश्किन के कंधे को किंचित खामोशी और सहानुभूति से थपथपाया और व्यंग्य मिश्रित अफसोस में अपना सिर झटक दिया| मैं हंस पड़ा| जाहिर है कि मैं भी उससे असहमत नहीं हो पाया था|

‘शायद इसलिए ही टॉलस्टॉय ने पुश्किन को नकार दिया था|’

शेरमिटयावो एयरपोर्ट मॉस्को से लगभग 30 किलोमीटर दूर खिमकी में स्थित है। हमें बेलोरुस्की ट्रेन स्टेशन पर पहुँचना था। एअरपोर्ट से चलने वाली ‘एरोएक्स्प्रैस’ की टिकिटें मैंने भारत में ही ऑनलाइन ले ली थी। एयरपोर्ट के बाहर बहुत तीखी ठंड थी| हवा तेज और पैनी थी| गेट के ऊपर लगी बड़ी-सी घड़ी में 4 डिग्री दर्ज था| दोनों बच्चे हमारे सीने से सटे थे| उनकी आंखों में पानी उतर आया था| दोनों के ही नाक और गाल एकदम से सुर्ख लाल हो गए थे| पर फिर भी दोनों ही मुस्कुरा रही थी|

4.
बेलोरुस्की स्टेशन पहली नजर में किसी परित्यक्त मैन्शन जैसा दिखाई दिया जिसके भीतर कोई म्यूजियम हो सकता था| ढ़ेर-से आर्क, लंबी-पैनी बुर्जियां, भीतर गूंजता-सा स्पेश, बाहर छोटे-छोटे झरोखों के बीच बरोक नक्काशी और फीका पड़ चुका नीला रंग| चारों तरफ खड़ी जवान इमारतों के बीच वो एक खामोश बुढ़ी आत्मा-सा जान पड़ता था…जो तब तक आपका हाथ बहुत सावधानी और अनुभव जनित सौम्यता से थामे रहता है जब तक आप उसकी सीमा के भीतर रहते हैं| लेकिन एक बार आप उससे बाहर निकल आते हैं तो वो बहुत बेरुखी से आप से मुंह मोड़ लेता है|

बाहर टैक्सी की लंबी कतार थी| पीली-हरी-सफेद टैक्सियां — चारों तरफ से रशियन शब्दों से लिपटी हुई| मैंने हाथ उठाया और ढे़र-सी बड़ी-बड़ी सख्त आँखे हमारे ऊपर ठहर गई| अनजान शब्दों और लहजों की बाढ़-सी टूट पड़ी|

हमारा अपार्टमेंट ट्रेवरस्काया स्ट्रीट पर स्थित था – कैफे पुश्किन और तुरानडोट के बिल्कुल बगल में|

5.
एक-दूसरे का हाथ थामे हम अपनी-अपनी खिड़कियों से बाहर देख रहे थे| बाहर मॉस्को था – एक सपना जो पहले हमारी आंखों के भीतर था और अब हम उसके भीतर थे| शोस्तोकोविच की सिंफनी बहुत करीब आ गई महसूस होती थी|

‘स्टालिनिस्ट’ शैली की इमारतों की लंबी पंक्तियां थी| लेकिन उनके बीच में लगभग नियमित अंतराल पर मध्यकालीन या निओक्लासिकल भवन उपस्थित थे| शायद उनकी छाया-सी उन नई इमारतों पर पड़ी हुई थी जिसके कारण उन इमारतों ने एक अलग ही स्थापत्य शैली विकसित कर ली थी| उनमें मध्यकालीन कलात्मकता भी थी और आधुनिक स्थापत्य की कठोर-सी स्पष्टता भी| बाद में हमने पाया कि ‘निर्माण शैली में एक संभ्रांत-सा अदब…अरिस्टोक्रेटिक सलीका’ लगभग समस्त मॉस्को की खासियत था|

6.
हम स्थानीय जीवन और रहन-सहन को जहां तक संभव हो सके करीब से देखना चाहते थे इसलिए हमने होटल की जगह अपार्टमेंट चुना था |

वो एक ऊंची, भव्य पर बंद-सी इमारत में था| ट्रेवरस्काया स्ट्रीट से कुछ 30 कदम भीतर एक अपेक्षाकृत संकरी गली में … रिहायशी इमारतों की बिल्कुल शुरुआत पर|

‘बोल्शाया ग्नेजडनिकोवस्की पेरूलाक 10 |’

फूलों के गमलों से सजी दीवार पर लकड़ी का बहुत चौड़ा और मोटा दरवाजा था जो पहली नजर में लिफ्ट जैसा दिखाई देता था| उसके पीछे वैसा ही एक और दरवाजा था| हम हड्डियों में उतर रही ठंडी हवा में सिकुड़े-से उसके सामने थे|

भीतर एक महिला गार्ड थी| वह लगभग 50-55 की उम्र की बलिष्ट महिला थी और बहुत शालीन थी| उसके लंबे नीले ओवरकोट के एक ओर छोटी पिस्टल टंगी थी और दूसरी ओर काला इलेक्ट्रिक शाॕक बेटन| सिर पर रोएदार गोल रूसी टोपी थी| उसके चेहरे का लाल रंग बहुत पका हुआ था| कुल मिलाकर वह उम्र के असर से मुक्त उन खूबसूरत रशियन महिलाओं जैसी थी जिनको हमने फिल्मों में देखा था|

सामान्य पूछताछ और प्रविष्टि के बाद वह हमें हमारे अपार्टमेंट तक ले गई| प्रांजल और द्विशा के प्रति उसने स्नेह दर्शाया था और दोनों को कैंडी दी थी| (बातचीत का माध्यम गूगल ट्रांसलेटर था)

अपार्टमेंट न० 322 | तीसरे तल पर लिफ्ट के ठीक सामने| पराए देश में हमारे पास चार दिन के लिए अपना घर था|

यात्रा की थकान और ठंड इस कदर हावी हुई कि बिस्तर पर पड़ते ही सो गए|

7.
शाम लगभग चार बजे मेरी आँख खुली|

शोस्ताकोविच का वाल्टज-2 धीमे-धीमे बज रहा था| न जाने अंजु ने उसको कब चलाया होगा|

‘हम रशिया में होंगे तो चायकोवस्की, शोस्ताकोविच हर वक्त हवा में तैरते रहेंगे| हम उनको सुनते हुए सो जाएंगे… और उनके स्वरों के एपिक विस्तार पर ही जागेंगे|’

मुझे लगा मैं एक सपने के भीतर निकला हूं जहां किसी पैलेस का छोटा-सा गोल्डन बाल रूम था|

जादू का-सा भ्रम देती चटक चमकती पीली दीवारें … उन पर फोटो फ्रेम जैसी सफेद कारीगिरी … दूधिया छत … बेतहाशा चमचमाता झूमर जिसकी दानेदार पीली-सफेद रोशनी दीवारों के फ्रेम में तरल तस्वीरों-सी उभरी थी| नीचे लकड़ी का फर्श था – गोल्डन ब्राउन|

हालांकि इस बारे में मैं बाद में अंजु के नजरिये से ज्यादा सहमत हुआ था – “अपार्टमेंट है या बहुत आर्टिस्टिकली तैयार किया रिच मैंगो-वेनिला केक — मोइस्ट और लश्चरस|”

काउच के बगल में खड़े शो-केस पर अपार्टमेंट का संक्षिप्त परिचय लिखा था – ‘कंटेंपरेरी मॉडर्न आर्ट विद लेट क्लासिकल फ्यूजन|’

धीरे-धीरे दूसरी चीजें भी उभरने लगी – इनडोर प्लांट, सेंट्रल हीटिंग के पाइप, फर्श से छत तक खिंचा पीला रेशमी पर्दा, रशियन चेहरों के पोट्रेट, ढेर सी किताबें, लंबे स्ट्रेचेबल रीडिंग लैंप|

कुछ और भी था| अन्य सब कुछ से ज्यादा महत्वपूर्ण और विस्मयकारी| उस अपार्टमेंट की ‘यूनिवर्सेलिटी’ के बीच विशुद्ध रशियन एहसास जैसा| दो चेहरे – टॉलस्टॉय और लेनिन| एक साथ एक फ्रेम में| हालांकि दोनों कभी नहीं मिले थे| टॉलस्टॉय का चेहरा फ्रेम से बाहर झांक रहा था और लेनिन का चेहरा टॉलस्टॉय की पीठ की ओर था| क्या यह महज संयोग था? क्या दोनों के पोर्ट्रेट को इस तरह से फ्रेम करना कोई प्रतीक हो सकता था !!

अहिंसा में दृढ़ विश्वास रखने वाले और ‘अपनी तरह से आध्यात्मिक’ टॉलस्टॉय मार्क्सवाद से पूर्णत: असहमत थे जबकि मार्क्सवादी-क्रांतिकारी लेनिन आध्यात्मिक टॉलस्टॉय से आधे सहमत थे|

अपनी डायरी में टॉलस्टॉय लिखते हैं – “भले ही वो हो जाए जिसकी भविष्यवाणी मार्क्स ने की है, पर अंतत: होगा यही कि निरंकुशता के हाथ ही बदलेंगे| अभी पूंजीवादी शासन करते हैं, बाद में मजदूर वर्ग के निर्देशकों का शासन होगा| … मार्क्सवादियों (और न केवल वे बल्कि संपूर्ण भौतिकवादी मत) की गलती इस तथ्य में निहित है कि वे यह नहीं समझ पाते कि मानवता का जीवन चेतना की वृद्धि, धर्म की गति, जीवन की समझ उत्तरोत्तर स्पष्ट होने तथा वैश्विक होने जिससे समस्त समस्याओं का निदान प्राप्त होता है, से आगे बढ़ता है; न कि किसी आर्थिक कारण से|… राज्य हिंसा से एक मुक्त, तर्कसंगत जीवन में परिवर्तन तुरंत नहीं हो सकता| जिस तरह राज्य के जीवन को आकार लेने में हजारों साल लगे, उसी तरह उसे विघटित होने में हजारों साल लगेंगे|”

पर इसके बावजूद लेनिन जिस गर्माहट, आत्मीयता और निष्पक्षता से टॉलस्टॉय के प्रति अपनी श्रद्धा और स्वीकार को अभिव्यक्त करते हैं, वो उनको समस्त राजनीतिकों में एक अलग ही व्यक्तित्व देता है जो न केवल आदरणीय है बल्कि ग्रहणीय भी है | रूसी निरंकुशता पर टॉलस्टॉय का हमला लेनिन को प्रसन्नता देता है लेकिन उनकी रहस्यवादी ईसाइयत और शांतिवाद लेनिन को अखरता है | वे हैरान होते हैं कि एक अत्यंत प्रतिभाशाली लेखक एक ही समय में एकसाथ क्रांतिकारी और प्रतिक्रियावादी कैसे हो सकता है| वे लिखते हैं – ” एक ओर, हमारे पास महान कलाकार और प्रतिभा है जिसने न केवल रूसी जीवन की अतुलनीय तस्वीरें खींची हैं, बल्कि विश्व साहित्य में प्रथम श्रेणी का योगदान दिया है| दूसरी ओर, क्राइस्ट में आसक्त जमींदार है| एक ओर, सामाजिक झूठ और पाखंड के खिलाफ उल्लेखनीय रूप से शक्तिशाली, बेबाक और इमानदार विरोध है; और दूसरी ओर है “टॉलस्टॉयन”, अर्थात क्लांत, उन्मत्त, रिरियाता शिकायती जिसको रूसी बुद्धिजीवी कहा जाता है, जो सार्वजनिक रूप से अपनी छाती पीटता है और विलाप करता है : “मैं एक बुरा दुष्ट आदमी हूँ, लेकिन मैं नैतिक आत्म-पूर्णता का अभ्यास कर रहा हूं; मैं अब माँस नहीं खाता हूं, मैं अब चावल कटलेट खाता हूं|”… एक ओर, बहुत गंभीर यथार्थवाद है… दूसरी ओर, पृथ्वी पर उपस्थित सर्वाधिक कुत्सित चीजों में से एक अर्थात धर्म का प्रवचन है| … लेकिन टॉलस्टॉय के विचारों और सिद्धांतों में उपस्थित विरोधाभास आकस्मिक नहीं है; वे उन्नीसवीं सदी के अंतिम पच्चीस वर्षों में रूसी जीवन की विरोधाभासी स्थितियों को व्यक्त करते हैं|”

मैं ज्यादा नहीं जानता पर उस समय उस फोटो फ्रेम को देखते हुए कुछ प्रश्न मेरे मन में जरुर उठे थे |

साहित्यकार अपने समय के नेताओं को जरूर पहचानते हैं, वे अपने समय की राजनीति और वादों-प्रतिवादों से बखूबी परिचित होते हैं, पर क्या राजनेता भी अपने समय के साहित्यकारों को पहचानता है? और आज जब हम एक ऐसे समय में रहते हैं जहां एक व्यक्ति दूसरे को उसके धर्म से बाहर पहचानने में मुश्किल महसूस कर रहा है, और जहां धर्म के संबंध में परस्पर मान्यताओं एवं विचारों से असहमति संपूर्ण व्यक्तित्व से ही असहमति और द्वेष का पर्याय बन गया है, वहाँ क्या लेनिन हमारी विशिष्ट संवेदनाओं के हकदार नहीं हैं?

लेकिन जैसे टॉलस्टॉय की प्रशंसा करने के बावजूद लेनिन उनकी तरह आध्यात्मिक नहीं थे, वैसे ही मैं इस संदर्भ में लेनिन के प्रति प्रशंसा भाव रखकर भी उनकी तरह कम्युनिस्ट नहीं हूं|

बाद में सेंट पीट्सबर्ग में ‘पीटर एंड पाॕल फोर्ट’ में पता चला कि लेनिन सहित अधिकांश रूसी क्रांतिकारियों पर मार्क्स से कहीं ज्यादा निकलोई चरनशवस्की का प्रभाव पड़ा था लेकिन तुर्गनेव और दस्ताएवस्की सहित टाॕलस्टाॕय ने उसको भी सिरे से नकार दिया था|

8.
पहले दिन घूमने का कोई कार्यक्रम नहीं बन सका| ठंड बहुत ज्यादा थी और हवा भी|

अंजु ने खाने के लिए कुछ ला देने को कहा|

मैं बाहर आ गया| अपार्टमेंट के भीतर जितनी भव्य चमक थी, उसके बाहर लंबे कॉरीडोरों में उतनी ही घनी सादगी और खामोशी थी| एक किस्म का उदासीन-सा एहसास पसरा था – कुछ-कुछ ठंडे पत्थरों की महक-सा| मुझे अनायास ही कॉल्ड वॉर की स्मृति हो आई … कि मैं कॉल्ड वॉर के किसी गुफानुमा फ्रंट पर खड़ा हूं और बहुत सी अंजान आशंकित आँखे मुझे घूर रही हैं, बस दिखाई ही नहीं देती|

ऐसा ही था भी | मैं लगभग पंद्रह मिनट तक उन कॉरिडोरों में (पहले से तीसरे तल तक) घूमता रहा पर मुझे एक भी व्यक्ति नहीं मिला| अपार्टमेंटों के भीतर की आवाजों की धुंधली छाया तक बाहर नहीं थी| सब दरवाजे मोटे और साउंडप्रूफ थे| ‘क्या निजी जीवन इतने गंभीर और ‘डिफाइंड’ ढंग से भी निजी हो सकता है?’ – मैंने सोचा था|

मैं नीचे उतर गया – ग्राउंड फ्लोर पर| वह गार्ड महिला अब भी पोर्च में धीमे-धीमे चक्कर लगा रही थी|

इसके बाद मैं देर तक उसके कैबिन में बैठा रहा| बाहर बारिश शुरू हो गई थी और मेरे पास छाता नहीं था| उसने मुझे अपने कैबिन में आमंत्रित किया था| भीतर बहुत धीमे स्वर में क्लासिकल ऑर्केस्ट्रा किस्म का संगीत चालू था – मार्च करती आर्मी के पार्श्व संगीत-सा| उसने मुझसे ब्रांडी के लिए पूछा| मैंने मना कर दिया|

उसका नाम लाडा था और वह एक सेवानिवृत्त कुश्ती कोच थी| उसकी दो बेटियां – जाशा और ग्लीना रूसी आर्मी में थी| दोनों की तस्वीरें उसकी कुर्सी के पीछे टंगी थी – दूसरी बहुत सारी तस्वीरों के बीच| कुछ बड़ी तस्वीरों में वो अपनी बेटियों के साथ लोगों की बड़ी भीड़ में खड़ी थी| हाथ में कुछ तस्वीरें थी| इर्द-गिर्द की भीड़ के हाथ में भी तस्वीरें थी| लाडा ने बताया कि वे “इम्मोर्टल रेजिमेंट” की परेड की तस्वीरें हैं – विक्ट्री डे की| प्रत्येक वर्ष विजय दिवस (9 मई) पर, रूस में लाखों लोग द्वितीय विश्व युद्ध में लड़ने वाले अपने रिश्तेदारों के चित्रों के साथ परेड करते हैं। रूसी सरकार भी इस परेड को हर साल जोर-शोर से आयोजित करती है| लेकिन लाडा सहित बहुत से रूसीयों को इसके प्रति सरकार के रवैए से नाराजगी है|

“सरकार इसका उपयोग देशभक्ति और वफादारी बढ़ाने के लिए कर रही है| अन्यों की तरह मैं भी इसका विरोध करती हूं| सरकार को इसमें आना ही नहीं चाहिए था| उसका उद्देश्य गलत है |” – लाडा ने कहा|

“लोगों का उद्देश्य क्या है?” – मैंने पूछा| मैं कुछ उत्सुक हो गया था| विगत कुछ वर्षों से भारत में भी इस तरह की समस्या उठी है|

“हम सिर्फ अपने पूर्वजों की स्मृति को व्यक्त करना चाहते हैं| यह सामूहिक स्मृति का उत्सव है| एक व्यापक समूह की बहुत व्यक्तिगत चीज| हमारे पूर्वज वीर थे या नहीं थे, वे लड़े या नहीं लड़े, वे डरे या नहीं डरे, वे शहीद हुए या बहुत सामान्य मौत मरे, उन्होंने गोली सामने से खाई या पीछे से – यह बिल्कुल महत्वहीन है| महत्व सिर्फ एक बात का है कि वे एक ऐसे समय का हिस्सा थे जिसमें चारों ओर मानवता की हत्या की जा रही थी और वे हत्यारों में शामिल नहीं थे| हमारा उद्देश्य महान विपत्ति के विरुद्ध महानतम संघर्ष करने वाले अपने पूर्वजों को याद करना और उनको श्रद्धांजलि देना है| जबकि देशभक्ति और वफादारी जैसे शब्द और भावनाएं उनके उस जीने के संघर्ष को बहुत सीमित ढंग से वर्गीकृत करते हैं| देशभक्ति तो स्टालिन को भी देशभक्त बताती है पर क्या …”

वो रुक गई | शायद उसको एहसास हुआ कि वो कुछ आवेग में आ गई थी और उसे ये सब नहीं कहना चाहिए| वो अपनी ब्रांडी पीने लगी| उस वक्त इस विषय पर लाडा से इतनी ही बात हो पाई| लेकिन बाद में जब मैं सामान लेकर लौटा तो उसी कैबिन में एक अन्य व्यक्ति के साथ यह बात अपने अंत पर पहुँची थी| वो उसी इमारत में रहते थे और रूसी भाषा के कवि थे|

“स्टालिन देशभक्ति है और मैंडलश्टाम एक स्मृति| देश भक्ति और स्मृति में उतना ही अंतर है जितना इन दोनों नामों में| देशभक्ति इतिहास है और स्मृति इतिहास के बाहर है| इम्मोर्टल रेजिमेंट स्मृति को इतिहास बनाने का उपक्रम नहीं है बल्कि मैंडलश्टाम जैसी स्मृतियों को अमर बनाने का प्रयास है| मैंडलश्टाम भले ही विश्व युद्ध की यातनाओं के हिस्सेदार नहीं थे, पर क्या यातनाओं का कोई नितांत अपना निजी चेहरा भी होता है? क्या यातनाएं समय के अधीन होती हैं ? मेरे किसी अपने ने विश्व युद्ध की यातनाओं को नहीं भोगा लेकिन मैं हर साल इम्मोर्टल रेजिमेंट की परेड में हिस्सेदारी करता हूं – मैंडलश्टाम की तस्वीरों के साथ| देशभक्ति शर्तों के साथ आती है और हम स्मृति को उससे भ्रष्ट नहीं करना चाहते|”

बाद में मैंने ये सारी बातें अंजु को बताई| उसने कहा – “हमारे यहां भी तो यातनाओं, संघर्षों और मौतों का लंबा इतिहास रहा है, आजादी का आंदोलन क्या किसी युद्ध से कम था, लेकिन हमारे पास तो ऐसा कुछ नहीं है – इम्मोर्टल रेजिमेंट जैसा| हो भी कैसे सकता है! इसके लिए पहचानना जरूरी है और हम पहचान की नजर पूरी तरह खो चुके हैं|”

देर रात मेरे मन में एक पंक्ति बार-बार उबाल ले रही थी – सामूहिक स्मृति का उत्सव|

राजेन्द्र यादव का जन्म 28 अगस्त 1929 को उत्तर प्रदेश के आगरा जिले में हुआ था। शिक्षा भी आगरा में रहकर हुई। बाद में दिल्ली आना हुआ और कई व्यापक साहित्यिक परियोजनाएं यहीं सम्पन्न हुईं। देवताओं की मूर्तियां, खेल-खिलौने, जहां लक्ष्मी कैद है, अभिमन्यु की आत्महत्या, छोटे-छोटे ताजमहल, किनारे से किनारे तक, टूटना, अपने पार, ढोल तथा अन्य कहानियां, हासिल तथा अन्य कहानियां व वहां तक पहुंचने की दौड़, इनके कहानी संग्रह हैं। उपन्यास हैं-प्रेत बोलते हैं, उखड़े हुए लोग, कुलटा, शह और मात, एक इंच मुस्कान, अनदेखे अनजाने पुल। ‘सारा आकाश,’‘प्रेत बोलते हैं’ का संशोधित रूप है। जैसे महावीर प्रसाद द्विवेदी और ‘सरस्वती’ एक दूसरे के पर्याय-से बन गए वैसे ही राजेन्द्र यादव और ‘हंस’ भी। हिन्दी जगत में विमर्श-परक और अस्मितामूलक लेखन में जितना हस्तक्षेप राजेन्द्र यादव ने किया, दूसरों को इस दिशा में जागरूक और सक्रिय किया और संस्था की तरह कार्य किया, उतना शायद किसी और ने नहीं। इसके लिए ये बारंबार प्रतिक्रियावादी, ब्राह्मणवादी और सांप्रदायिक ताकतों का निशाना भी बने पर उन्हें जो सच लगा उसे कहने से नहीं चूके। 28 अक्टूबर 2013  अपनी अंतिम सांस तक आपने  हंस का संपादन पूरी निष्ठा के साथ किया। हंस की उड़ान को इन ऊंचाइयों तक पहुंचाने का श्रेय राजेन्द्र यादव को जाता है।

उदय शंकर

संपादन सहयोग
हंस में आई  कोई भी रचना ऐसी नहीं होती जो पढ़ी न जाए। प्राप्त रचनाओं को प्रारम्भिक स्तर पर पढ़ने में उदय शंकर संपादक का   सहयोग करते  हैं । 
हिंदी आलोचक, संपादक और अनुवादक उदय शंकर जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से पढ़े हैं। उन्होंने कथा-आलोचक सुरेंद्र चौधरी की रचनाओं को तीन जिल्दों में संपादित किया है। ‘नई कहानी आलोचना’ शीर्षक से एक आलोचना पुस्तक प्रकाशित।
उत्तर प्रदेश के बनारस जिले के लमही गाँव में 31 अक्टूबर 1880 में जन्मे प्रेमचंद का मूल नाम धनपतराय था।पिता थे मुंशी अजायब राय।शिक्षा बनारस में हुई। कर्मभूमि भी प्रधानतः बनारस ही रही। स्वाधीनता आंदोलन केनेता महात्मा गांधी से काफी प्रभावित रहे और उनके ‘असहयोग आंदोलन’ के दौरान नौकरी से त्यागपत्र भी देदिया। लिखने की शुरुआत उर्दू से हुई, नवाबराय नाम से। ‘प्रेमचंद’ नाम से आगे की लेखन-यात्रा हिन्दी में जारी रही। ‘मानसरोवर,’ आठ खंडों में, इनकी कहानियों का संकलन है और इनके। उपन्यास हैं सेवासदन, प्रेमाश्रम, निर्मला, रंगभूमि, कायाकल्प, गबन, कर्मभूमि, गोदान और मंगल सूत्र (अपूर्ण)। 1936 ई. में ‘गोदान’ प्रकाशित हुआ और इसी वर्ष इन्होंने लखनऊ में प्रगतिशील लेखक संघ’ की अध्यक्षता की। दुर्योग यह कि इसी वर्ष 8 अक्टूबर को इनका निधन हो गया। जब तक शरीर में प्राण रहे प्रेमचंद हंस निकालते रहे। उनके बाद इसका संपादन जैनेन्द्र,अमृतराय आदि ने किया। बीसवीं सदी के पांचवें दशक मेंयह पत्रिका किसी योग्य, दूरदर्शी और प्रतिबद्धसंपादक के इंतजार में ठहर गई, रुक गई।

नाज़रीन

डिजिटल मार्केटिंग / सोशल मीडिया विशेषज्ञ
आज के बदलते दौर को देखते हुए , तीन साल पहले हंस ने सोशल मीडिया पर सक्रिय होने का निर्णय लिया। उसके साथ- साथ हंस अब डिजिटल मार्केटिंग की दुनिया में भी प्रवेश कर चुका है। जुलाई 2021 में हमारे साथ जुड़ीं नाज़रीन अब इस विभाग का संचालन कर रही हैं। वेबसाइट , फेस बुक, इंस्टाग्राम , ट्विटर जैसे सभी सोशल मीडिया प्लेटफार्म के माध्यम से ये हंस को लोगों के साथ जोड़े रखती हैं। इन नए माध्यमों द्वारा अधिक से अधिक लोगों को हंस परिवार में शामिल करने का दायित्व इनके ऊपर है।

प्रेमचंद गौतम

शब्द संयोजक
कोरोना महामारी में हमसे जुदा हुए वर्षों से जुड़े हमारे कम्पोज़र सुभाष चंद का रिक्त स्थान जुलाई 2021 में प्रेमचंद गौतम ने संभाला। हंस के सम्मानित लेखकों की सामग्री को पन्नों में सुसज्जित करने का श्रेय अब इन्हें जाता है । मुख्य आवरण ले कर अंत तक पूरी पत्रिका को एक सुचारू रूप देते हैं। इस क्षेत्र में वर्षों के अनुभव और ज्ञान के साथ साथ भाषा पर भी इनकी अच्छी पकड़ है।

दुर्गा प्रसाद

कार्यालय व्यवस्थापक
पिछले 36 साल से हंस के साथ जुड़े दुर्गा प्रसाद , इस बात का पूरा ध्यान रखते हैं की कार्यालय में आया कोई भी अतिथि , बिना चाय-पानी के न लौटे। हंस के प्रत्येक कार्यकर्ता की चाय से भोजन तक की व्यवस्था ये बहुत आत्मीयता से निभाते हैं। इसके अतिरिक्त हंस के बंडलों की प्रति माह रेलवे बुकिंग कराना , हंस से संबंधित स्थानीय काम निबाटना दुर्गा जी के जिम्मे आते हैं।

किशन कुमार

कार्यालय व्यवस्थापक / वाहन चालक
राजेन्द्र यादव के व्यक्तिगत सेवक के रूप में , पिछले 25 वर्षों से हंस से जुड़े किशन कुमार आज हंस का सबसे परिचित चेहरा हैं । कार्यालय में रखी एक-एक हंस की प्रति , प्रत्येक पुस्तक , हर वस्तु उनकी पैनी नज़र के सामने रहती है। कार्यालय की दैनिक व्यवस्था के साथ साथ वह हंस के वाहन चालक भी हैं।

हारिस महमूद

वितरण और लेखा प्रबंधक
पिछले 37 साल से हंस के साथ कार्यरत हैं। हंस को देश के कोने -कोने तक पहुँचाने का कार्य कुशलतापूर्वक निभा रहे हैं। विभिन्न राज्यों के प्रत्येक एजेंट , हर विक्रेता का नाम इन्हें कंठस्थ है। समय- समय पर व्यक्तिगत रूप से हर एजेंट से मिलकर हंस की बिक्री का पूरा ब्यौरा रखते हैं. इसके साथ लेखा विभाग भी इनके निरीक्षण में आता है।

वीना उनियाल

सम्पादन संयोजक / सदस्यता प्रभारी
पिछले 31 वर्ष से हंस के साथ जुड़ीं वीना उनियाल के कार्यभार को एक शब्द में समेटना असंभव है। रचनाओं की प्राप्ति से लेकर, हर अंक के निर्बाध प्रकाशन तक और फिर हंस को प्रत्येक सदस्य के घर तक पहुंचाने की पूरी प्रक्रिया में इनकी अहम् भूमिका है। पत्रिका के हर पहलू से पूरी तरह परिचित हैं और नए- पुराने सदस्यों के साथ निरंतर संपर्क बनाये रखती हैं।

रचना यादव

प्रबंध निदेशक
राजेन्द्र यादव की सुपुत्री , रचना व्यवसाय से भारत की जानी -मानी कत्थक नृत्यांगना और नृत्य संरचनाकर हैं। वे 2013 से हंस का प्रकाशन देख रही हैं- उसका संचालन , विपणन और वित्तीय पक्ष संभालती हैं. संजय सहाय और हंस के अन्य कार्यकर्ताओं के साथ हंस के विपणन को एक आधुनिक दिशा देने में सक्रिय हैं।

संजय सहाय

संपादक

प्रेमचंद की तरह राजेन्द्र यादव की भी इच्छा थी कि उनके बाद हंस का प्रकाशन बंद न हो, चलता रहे। संजय सहाय ने इस सिलसिले को निरंतरता दी है और वर्तमान में हंस उनके संपादन में पूर्ववत निकल रही है।

संजय सहाय लेखन की दुनिया में एक स्थापित एवं प्रतिष्ठित नाम है। साथ ही वे नाट्य निर्देशक और नाटककार भी हैं. उन्होंने रेनेसांस नाम से गया (बिहार) में सांस्कृतिक केंद्र की स्थापना की जिसमें लगातार उच्च स्तर के नाटक , फिल्म और अन्य कला विधियों के कार्यक्रम किए जाते हैं.