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    ‘हंस’ मासिक पत्रिका के प्रकाशन के साथ ही साहित्यिक पत्रकारिता के एक नये युग का सूत्रपात हुआ। पत्रिका का नाम ‘हंस’ छायावाद के महत्त्वपूर्ण कवि और नाटककार जयशंकर प्रसाद द्वारा दिया गया।

“स्वाधीनता केवल मन की एक वृत्ति है।’ इस स्वाधीनता पर आजाद भारत में कम खतरे नहीं हैं। हंस लोकतंत्र और खास करके विचारों के लोकतंत्र पर आने वाले इन खतरों की पहचान करता है, और इनका पुरजोर विरोध करता है। यकीनन हंस आंदोलन-धर्मी है। ”  – प्रेमचंद 

“भारत ने शान्तिमय समर की भेरी बजा दी है, हंस भी मानसरोवर की शान्ति छोड़कर, अपनी नन्हीं सी चोंच में चुटकी भर मिट्टी लिए समुद्र पाटने, आजादी की जंग में योग देने चला है।”- प्रेमचंद

    देश की सर्व प्रतिष्ठित एवं सबसे अधिक पढ़ी जाने वाली हिंदी साहित्यिक मासिक पत्रिका ‘हंस’ की शुरुआत 1930 में जानेमाने लेखक प्रेमचंद ने की । आमतौर पर तो यह एक कथा पत्रिका थी , पर अपने सशक्त लेखों द्वारा हंस ने उस समय के बहुत से महत्वपूर्ण और क्रांतिकारी मुद्दों को उजागर किया। हंस का सौभाग्य रहा कि कुछ समय के लिए महात्मा गाँधी ने भी सम्पादन मण्डली में सलाहकार के रूप में भूमिका निभायी.

आज हंस को हिंदी साहित्य की धरोहर माना  जाता है। इस समय के  अनेक स्थापित लेखकों ने अपनी  लेखन यात्रा हंस से शुरू की। देश की  उच्चतम और बेहतरीन हिंदी साहित्यिक कृतियां – जैसे कहानीकवितायें , ग़ज़ल ,लघु कथा , लेख , समीक्षाएं , पत्र इत्यादि आप इस पत्रिका में पढ़ सकते हैं।   

 हंस विचार से भाषा तक हिन्दुस्तानियत की पक्षधर है। सांप्रदायिक सोच ने एक ही व्याकरण पर दो भाषाएँ, हिन्दी और उर्दू, बना दीं। यह भाषायी विभाजन शोषण की शक्तियों के अनुकूल रहा। हंस इस सोच का प्रतिकार करते हुए दोनों भाषाओं से अपने को समृद्ध करती है। यह हंस की भाषा-नीति है। हंस के दिसंबर-1935 के अपने संपादकीय में प्रेमचंद ने जो स्वप्न देखा था वह इसी भाषा-नीति को दर्शाता है-“दोनों जबानों का विकास इस ढंग से होगा कि वे दिन दिन एक दूसरे के समीप आती जाएँगी और एक दिन दोनों भाषाएँ एक हो जाएँगी।”

हिंदी साहित्य और समाज से जुड़े अनेक प्रासंगिक और महत्वपूर्ण  मुद्दों पर बहस, और विमर्श की शुरुआत हंस से ही हुई , जिनके प्रभाव  से इस क्षेत्र में अनेक सकारात्मक  बदलाव भी आए।  तभी  तो कहा जाता है कि  हंस  महज़ सौ पन्नों की पत्रिका ही नहीं , पर एक प्रथा और परंपरा है।   

जिस देश में सैंकड़ों पत्रिकाएँ बिना किसी प्रगतिशील विचारधारात्मक मजबूती के प्रकाशित हो रही हों और वे जनमानस के बड़े हिस्से पर इस तरह छायी हुई हों कि प्रगतिशील व भविष्योन्मुखी बातों की ओर लोगों का ध्यान दिलाने से भी न जा रहा हो, वहाँ हंस जैसी अपने उद्देश्यों, आदर्शों व नीतियों में प्रतिबद्ध और बेबाक पत्रिका का निकलना चुनौतीपूर्ण है, जरूरी है, सराहनीय है और समय-समाज की मांग है।

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