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हिंदी सिनेमा के सौ साल- फरवरी 2013 विशेषांक का पुस्तकाकार
हिन्दी सिनेमा के बारे में यह पुस्तक एक विलक्षण संग्रह है।
हिन्दी सिनेमा के सौ वर्ष पूर्ण होने पर ‘हंस’ ने वर्ष 2013 में सिनेमा विशेषांक निकाला था। यह किताब उसी विशेषांक का पुस्तकाकार है। सिनेमा में रूचि रखने वालों को भी यह पुस्तक तमाम नयी जानकारियों से भी लैस करती है। सिनेमा जो कि जनमानस पर प्रभाव डालने वाली बहुत ही प्रभावशाली माध्यम है, उसके बारे में तमाम रचनाकारों ने बेहद वैचारिक टिप्पणियाँ लिखी हैं। फ़िल्म निर्देशकों से हुई बातचीत का हिस्सा हिन्दी सिनेमा के भविष्य को लेकर सावधान भी करता है।
प्रेमचंद की तरह राजेन्द्र यादव की भी इच्छा थी कि उनके बाद हंस का प्रकाशन बंद न हो, चलता रहे। संजय सहाय ने इस सिलसिले को निरंतरता दी है और वर्तमान में हंस उनके संपादन में पूर्ववत निकल रही है।
संजय सहाय लेखन की दुनिया में एक स्थापित एवं प्रतिष्ठित नाम है। साथ ही वे नाट्य निर्देशक और नाटककार भी हैं. उन्होंने रेनेसांस नाम से गया (बिहार) में सांस्कृतिक केंद्र की स्थापना की जिसमें लगातार उच्च स्तर के नाटक , फिल्म और अन्य कला विधियों के कार्यक्रम किए जाते हैं.
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