यूँ तो ‘हंस’ अपनी वैचारिक गोष्ठियों और बहसों-रचनाओं द्वारा बार-बार दलित-समस्या को उठाता ही रहा है फिर भी दलित-संस्कृति और साहित्य को आज के सत्ता-विमर्श की जटिलताओं के सन्दर्भ में समझने की एक और कोशिश के रूप में ही हंस के दलित विशेषांक को दो खण्डों में पुस्तकाकार लाया गया है।
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