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सुप्रतिष्ठित अनुवादक अमृता बेरा द्वारा ‘हंस’ में प्रकाशित तसलीमा नसरीन के लेखों की यह किताब हमेशा की तरह उनकी लेखकीय स्वतंत्रता, व्यैक्तिक गरिमा और वैचारिक प्रतिबद्धधता को दर्शाती है। अनिवार्यतः पठनीय पुस्तक जो परम्परा, धर्म, साहित्य, लोकतंत्र के छद्म और पितृसत्ता के आधुनिक रूपों को चुनौती देती है।
प्रेमचंद की तरह राजेन्द्र यादव की भी इच्छा थी कि उनके बाद हंस का प्रकाशन बंद न हो, चलता रहे। संजय सहाय ने इस सिलसिले को निरंतरता दी है और वर्तमान में हंस उनके संपादन में पूर्ववत निकल रही है।
संजय सहाय लेखन की दुनिया में एक स्थापित एवं प्रतिष्ठित नाम है। साथ ही वे नाट्य निर्देशक और नाटककार भी हैं. उन्होंने रेनेसांस नाम से गया (बिहार) में सांस्कृतिक केंद्र की स्थापना की जिसमें लगातार उच्च स्तर के नाटक , फिल्म और अन्य कला विधियों के कार्यक्रम किए जाते हैं.
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