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बोरे में सोना

वैसे तो मैं और मेरा परिवार अब शहर में ही रहता हैं, पर कुछ न कुछ काम से अक्सर हम गाँव जाते रहते हैं। मुझे गाँव में जाना बहुत ही अच्छा लगता हैं। गाँव में जाकर बड़ा सुकून, बड़ी शांति मिलती हैं। ना व्यापार की चिंता, ना ग्राहकों के फोन। मुझे यदि दो विकल्प दिए जाए कि सात दिन के लिए तुम्हें विदेश घूमने जाना हैं या गाँव, तो मैं अपने गाँव को ही चुनुँगा। कुछ खास बात होती हैं अपनी मातृभूमि की, जहाँ आपने जन्म लिया, जहाँ आपका बचपन बीता, जहाँ आप स्कूल गए। घर वाले अक्सर पूछते हैं अब तो गाँव खाली होता जा रहा हैं फिर भी तुझे वहाँ जाना क्या अच्छा लगता हैं? बात भी सही हैं, आज करीबन हमारे गाँव की पचास  फ़ीसदी आबादी शहर में रह रही हैं। लेकिन फिर भी मुझे तो गाँव की सुनी गलियाँ भी अच्छी लगती हैं। मैं हर गली में दिन में एक बार तो अवश्य ही चक्कर लगाता हूँ। जो बहुत ज्यादा पुराने मकान हैं उनको विशेष रूप से निहारता हूँ। उन मकानों के बाहर उनके बनने का साल लिखा हुआ होता हैं तो मेरा मन अतीत में चला जाता हैं। ज्यादातर मकान तो मेरे जन्म से भी बहुत पुराने बने हुए हैं। हमारा मकान भी करीबन मेरे जन्म से दस साल पहले बना हुआ हैं। संक्षेप में कहूँ तो मुझे उस सुनेपन में भी यादों के जरिए एक भीड़ दिखाई देती हैं।                इस बार गाँव में मैं पाँच दिन रुका। पाँचवे दिन शाम को रेलवे स्टेशन आया जो पास ही के गाँव में हैं। थोड़ी देर बाद रेलगाड़ी आ गई। मैं अपनी सीट पर जा पहुँचा। वहाँ पर श्याम बाबू पहले से बैठे हुए थे। श्याम बाबू और मैं एक ही शहर में रहते हैं और उनका गाँव भी मेरे गाँव के पास ही हैं। बड़े सहृदय व्यक्ति हैं। मेरे बड़े भाई के अच्छे मित्र हैं। महीने में एक दो बार अवश्य मुलाकात हो जाती हैं। उम्र में मुझसे करीबन बारह साल बड़े होंगे। पारिवारिक रिश्ते अच्छे हैं,  मैं उन्हें बड़ा भाई मानता हूँ और वे मुझे छोटा भाई। वह बड़ों के साथ बड़े हो जाते हैं और छोटो के साथ छोटे। मुझे देखते ही बोले- श्याम बाबू :- तुम गाँव कब आए? मैं :- (उनके पैर छूते हुए बोला) मुझे तो पाँच दिन हो गए, आप कब आए? श्याम बाबू :- मैं दो दिन पहले आया था, पहले सामान सीट के नीचे रख दो फिर आराम से बात करते हैं। मैं :- जी।               मैंने अपना सामान सीट के नीचे रखा। सामान में एक अटैची, एक बैग और एक बोरा था। श्याम बाबू ने जब मेरा तीसरा सामान भरा हुआ बोरा देखा तो मन में विश्वास नहीं हुआ कि आजकल का युवा ऐसे बोरे में सामान लेकर जा सकता है? यदि मेरे स्थान पर किसी बुजुर्ग व्यक्ति का यह बोरा होता तो उनका मन कोई प्रश्न नहीं उठाता। मैंने उनकी तरफ ध्यान से देखा तो मैं समझ गया कि बोरे को देखकर श्याम बाबू कुतूहल से भीग रहे हैं। एक तरफ उन्होंने मुझे और मेरे पहियों वाले दो सामान को तो जोड़ी के रूप में स्वीकार किया, पर जैसे ही मेरे तीसरे सामान को देखा तो फिर उनके मस्तिष्क पर विस्मय की रेखाएं उभर आई कि आखिर क्यों मैंने उस बोरे में सामान भरना उचित समझा। आखिरकार उनसे रहा नहीं गया और मुझसे पूछा- श्याम बाबू :-  इस बोरे में क्या सामान भरा हैं? मैंने दूसरे लोगों की नजर बचाकर अपने मुँह पर उंगली रखकर इशारा किया और अपनी सीट से उठकर श्याम बाबू के पास जा बैठा और उनके कान के पास जाकर धीरे से कहा। मैं :- इस बोरे में हमारे पुरखों का सोना हैं। एक क्षण को श्याम बाबू स्तब्ध हो गए दूसरे क्षण उनकी मुखाकृति बड़ी विचित्र हो गई। फिर अपनी भौहें ऊपर से नीचे करते हुए हाँ के इशारे में सिर हिलाया। शब्द अभी भी उनके मुख से निकलने में असमर्थ थे। एक मिनट के पश्चात मेरे कान के पास आकर धीरे से बोले- श्याम बाबू :- इतना कीमती सामान इस तरह बोरे में! मैं :- इस तरह से ले जाना सुरक्षित हैं। पर वे नहीं माने उन्होंने कहा- श्याम बाबू :- ऐसा कीमती सामान लोग छोटी पेटी या संदूक में भरते हैं, फिर उस पर एक छोटा ताला लगाते हैं। फिर उसे अटैची में कपड़ों के बीचो-बीच रखते हैं, अटैची पर उससे थोड़ा बड़ा ताला लगाते हैं और सोने से पहले सीट के नीचे एक जंजीर द्वारा अटैची को एक बड़े ताले से बांध कर ले जाते हैं। मैं :- इतना तामझाम करने से ही तो ट्रेनों में से अक्सर कीमती वस्तुओं की चोरियां होती है। जब चोर अटैची पर ताला और उसको भी जंजीर से बांधा हुआ देखते हैं तो उन्हें पता चल जाता हैं कि इसमें कुछ ना कुछ कीमती सामान हैैं। (मैंने उन्हें उदाहरण देकर समझाया) यदि कल मैं अपनी अटैची या बैग गाड़ी में भूल कर घर चला जाऊँ और यदि आधे घंटे बाद वापस आकर देखुु तो मुझे अपना सामान वहाँ नहीं मिलेगा लेकिन अगर मैं यह बोरा भूल जाऊँ और एक घंटे बाद भी आकर देखु तो यह सामान यही मिलेगा। ऐसे साधारण से बोरे को भला कौन लेकर जाएगा? मेरे तर्क से श्याम बाबू सहमत हो गए कुछ देर बाद टीटी आया श्याम बाबू की नजरें अभी भी बोरे पर थी दो बार टीटी द्वारा मांगे जाने पर उन्होंने अपना टिकट दिखाया और आई कार्ड तीसरी बार में, दो बार तो उन्होंने बैंकों के एटीएम कार्ड ही थमा दिए थे। कुछ देर श्याम बाबू ने कहा- श्याम बाबू :- सुबह मेरा भाई मुझे स्टेशन लेने आएगा मेरे साथ ही चलना घर पर छोड़ दूंगा और तुम्हारे पुरखों का सोना भी देख लूँगा। मैं :- अच्छी बात है।             फिर कुछ देर बैठ कर सबने सोने का निर्णय लिया। आठ लोगों के कंपाउंड में कुल पाँच ही लोग थे। मुझे तो सोते ही नींद आ गई। सवेरे नींद खुली तो शहर आ चुका था। ट्रेन प्लेटफार्म पर खड़ी थी लगभग यात्री उतर चुके थे। मैंने उठकर देखा तो श्याम बाबू डिब्बे में नहीं थे। खिड़की से प्लेटफार्म पर नजर दौड़ाई तो वहाँ भी नहीं दिखे। सोचा नीचे उतर कर आराम से देखता हूँ। सीट के नीचे से अपनी अटैची और बैग निकाला फिर बोरा लेने के लिए हाथ घुमाया बोरा हाथ में नहीं आया। नीचे बैठकर देखा तो बोरा नदारद था। मैं आश्चर्यचकित हो गया इतना साधारण सा बोरा कौन चुरा ले गया। श्याम बाबू की एक छोटी सी थैली जरुर पड़ी थी। वे अपने पास मोबाइल नहीं रखते हैं। इसे अपनी शांति का वे परम शत्रु मानते हैं। अब उनसे संपर्क करने का कोई दूसरा रास्ता नहीं था। मैं उनकी थैली और अपना दूसरा सामान लेकर नीचे उतरा। स्टेशन से बाहर आया वहाँ भी श्याम बाबू को ढूंढा नहीं मिले। कल तो ट्रेन में बता रहे थे मुझे लेने मेरा भाई आएगा तुम मेरे साथ ही चलना तुम्हें घर छोड़ दूँगा, पर मेरी बचत जाती रही। रिक्शा किया घर पहुँचा। करीबन डेढ़ घंटे बाद घंटी बजी, दरवाज़ा खोला तो श्याम बाबू हाथ में बोरा लिए खड़े थे। मैं कुछ बोलू इससे पहले ही अंदर आते हुए वे बोल उठे- श्याम बाबू :- शहर से एक स्टेशन पहले जैसे ही गाड़ी रुकी एक चोर तुम्हारा बोरा उठाकर भागने लगा। शायद उसे हमारी बातों से पता चल गया था कि  इस बोरे में कुछ कीमती सामान है मेरी आँख खुली तो मैं चोर-चोर बोलते हुए पीछे भागा। तुम तो जैसे घोड़े बेच कर सो रहे थे। मैं :- तो आप वापस ट्रेन में नहीं चढ़े? श्याम बाबू :- चढ़ता कैसे, चोर के पीछे कौन भागता? वह प्लेटफार्म की तरफ ना उतरकर पटरी की तरफ उतरा और भागने लगा। मैं उससे काफी पीछे था पर रुका नहीं। वो कोई पेशेवर चोर नहीं था जो इतना भारी बोरा उठाकर बहुत ज्यादा भाग सके। वह शायद हमारे डिब्बे का ही कोई आदमी था और शायद उसे हमारी बातचीत से शक हुआ होगा कि इस बोरे में कुछ कीमती सामान हैं। आखिर रुक कर उसने थोड़ा सोना लेकर भागने की सोच कर बोरे को खोलकर उसमें टटोलने लगा। भोर का समय था मुझे नहीं पता कि उसने कुछ लिया या नहीं पर जब मैं करीब गया तो वहाँ से भाग खड़ा हुआ। मैंने बोरे के अंदर झांका तो मुझे मिट्टी दिखाई दी पर मैंने वहाँ छानबीन करना उचित नहीं समझा। उसे वापस रस्सी से बांधकर प्लेटफार्म पर ले आया। यह गाड़ी तो निकल चुकी थी आधे घंटे बाद की गाड़ी में बैठ कर सीधा रिक्शा पकड़ कर यहाँ आया हूँ। अब जल्दी से मुझे अपना सोना दिखाओ।  मैं :- सोना तो आपने देख लिया हैं। श्याम बाबू  :- मैं कुछ समझा नहीं सही से बताओ। मैं :- ये मिट्टी ही सोना हैं । (मैं बोरे को खोलते हुए बोला) उन्होंने व्यंग्य पूर्वक कहा- श्याम बाबू :- सोने की खान से लाया हैं क्या? मैं :- नहीं अपने गाँव के खेत से। श्याम बाबू :- इसका क्या करेगा? मैं :- घर में दो गमले लगाने हैं। श्याम बाबू :- पागल हो गए हो क्या मिट्टी तो यहाँ पर भी मिल जाती। मैं :- आपकी बात सच हैं पर मेरे लिए ये मिट्टी सोने से कम कीमती नहीं हैं। श्याम बाबू :- ऐसी क्या खास बात हैं इस मिट्टी में? मैं :- इस मिट्टी में मेरे गाँव की खुशबू हैं, इस मिट्टी में मेरे खेत और मेरे पिता की यादें हैं, जहाँ कभी वो खेती किया करते थे, इस मिट्टी पर बैठकर ही भोजन किया करते थे, रात को धान की रखवाली करने वही पर सो जाया करते थे, और यही वह मिट्टी हैं जिसकी उपज से उस वक्त हमारा घर चलता था। इतना कहते-कहते मेरा गला भर आया और श्याम बाबू की आँखे। उन्होंने खड़े होकर मुझे अपने गले से लगा लिया और कहा- श्याम बाबू :- अभी जब मैं यहाँ आया तो मैं समझ रहा था कि मैं तुम्हारा सोना लेकर आया हूँ, जब तुमने कहा कि इसमें मिट्टी हैं तो मुझे लगा कि मैं तो सिर्फ धूल ही लेकर आया हूँ पर अब मुझे लगता है कि वास्तव में तो मैं खजाना लेकर आया हूँ।                                                                                                                      विनोद जैन
राजेन्द्र यादव का जन्म 28 अगस्त 1929 को उत्तर प्रदेश के आगरा जिले में हुआ था। शिक्षा भी आगरा में रहकर हुई। बाद में दिल्ली आना हुआ और कई व्यापक साहित्यिक परियोजनाएं यहीं सम्पन्न हुईं। देवताओं की मूर्तियां, खेल-खिलौने, जहां लक्ष्मी कैद है, अभिमन्यु की आत्महत्या, छोटे-छोटे ताजमहल, किनारे से किनारे तक, टूटना, अपने पार, ढोल तथा अन्य कहानियां, हासिल तथा अन्य कहानियां व वहां तक पहुंचने की दौड़, इनके कहानी संग्रह हैं। उपन्यास हैं-प्रेत बोलते हैं, उखड़े हुए लोग, कुलटा, शह और मात, एक इंच मुस्कान, अनदेखे अनजाने पुल। ‘सारा आकाश,’‘प्रेत बोलते हैं’ का संशोधित रूप है। जैसे महावीर प्रसाद द्विवेदी और ‘सरस्वती’ एक दूसरे के पर्याय-से बन गए वैसे ही राजेन्द्र यादव और ‘हंस’ भी। हिन्दी जगत में विमर्श-परक और अस्मितामूलक लेखन में जितना हस्तक्षेप राजेन्द्र यादव ने किया, दूसरों को इस दिशा में जागरूक और सक्रिय किया और संस्था की तरह कार्य किया, उतना शायद किसी और ने नहीं। इसके लिए ये बारंबार प्रतिक्रियावादी, ब्राह्मणवादी और सांप्रदायिक ताकतों का निशाना भी बने पर उन्हें जो सच लगा उसे कहने से नहीं चूके। 28 अक्टूबर 2013  अपनी अंतिम सांस तक आपने  हंस का संपादन पूरी निष्ठा के साथ किया। हंस की उड़ान को इन ऊंचाइयों तक पहुंचाने का श्रेय राजेन्द्र यादव को जाता है।

उदय शंकर

संपादन सहयोग
हंस में आई  कोई भी रचना ऐसी नहीं होती जो पढ़ी न जाए। प्राप्त रचनाओं को प्रारम्भिक स्तर पर पढ़ने में उदय शंकर संपादक का   सहयोग करते  हैं । 
हिंदी आलोचक, संपादक और अनुवादक उदय शंकर जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से पढ़े हैं। उन्होंने कथा-आलोचक सुरेंद्र चौधरी की रचनाओं को तीन जिल्दों में संपादित किया है। ‘नई कहानी आलोचना’ शीर्षक से एक आलोचना पुस्तक प्रकाशित।
उत्तर प्रदेश के बनारस जिले के लमही गाँव में 31 अक्टूबर 1880 में जन्मे प्रेमचंद का मूल नाम धनपतराय था।पिता थे मुंशी अजायब राय।शिक्षा बनारस में हुई। कर्मभूमि भी प्रधानतः बनारस ही रही। स्वाधीनता आंदोलन केनेता महात्मा गांधी से काफी प्रभावित रहे और उनके ‘असहयोग आंदोलन’ के दौरान नौकरी से त्यागपत्र भी देदिया। लिखने की शुरुआत उर्दू से हुई, नवाबराय नाम से। ‘प्रेमचंद’ नाम से आगे की लेखन-यात्रा हिन्दी में जारी रही। ‘मानसरोवर,’ आठ खंडों में, इनकी कहानियों का संकलन है और इनके। उपन्यास हैं सेवासदन, प्रेमाश्रम, निर्मला, रंगभूमि, कायाकल्प, गबन, कर्मभूमि, गोदान और मंगल सूत्र (अपूर्ण)। 1936 ई. में ‘गोदान’ प्रकाशित हुआ और इसी वर्ष इन्होंने लखनऊ में प्रगतिशील लेखक संघ’ की अध्यक्षता की। दुर्योग यह कि इसी वर्ष 8 अक्टूबर को इनका निधन हो गया। जब तक शरीर में प्राण रहे प्रेमचंद हंस निकालते रहे। उनके बाद इसका संपादन जैनेन्द्र,अमृतराय आदि ने किया। बीसवीं सदी के पांचवें दशक मेंयह पत्रिका किसी योग्य, दूरदर्शी और प्रतिबद्धसंपादक के इंतजार में ठहर गई, रुक गई।

नाज़रीन

डिजिटल मार्केटिंग / सोशल मीडिया विशेषज्ञ
आज के बदलते दौर को देखते हुए , तीन साल पहले हंस ने सोशल मीडिया पर सक्रिय होने का निर्णय लिया। उसके साथ- साथ हंस अब डिजिटल मार्केटिंग की दुनिया में भी प्रवेश कर चुका है। जुलाई 2021 में हमारे साथ जुड़ीं नाज़रीन अब इस विभाग का संचालन कर रही हैं। वेबसाइट , फेस बुक, इंस्टाग्राम , ट्विटर जैसे सभी सोशल मीडिया प्लेटफार्म के माध्यम से ये हंस को लोगों के साथ जोड़े रखती हैं। इन नए माध्यमों द्वारा अधिक से अधिक लोगों को हंस परिवार में शामिल करने का दायित्व इनके ऊपर है।

प्रेमचंद गौतम

शब्द संयोजक
कोरोना महामारी में हमसे जुदा हुए वर्षों से जुड़े हमारे कम्पोज़र सुभाष चंद का रिक्त स्थान जुलाई 2021 में प्रेमचंद गौतम ने संभाला। हंस के सम्मानित लेखकों की सामग्री को पन्नों में सुसज्जित करने का श्रेय अब इन्हें जाता है । मुख्य आवरण ले कर अंत तक पूरी पत्रिका को एक सुचारू रूप देते हैं। इस क्षेत्र में वर्षों के अनुभव और ज्ञान के साथ साथ भाषा पर भी इनकी अच्छी पकड़ है।

दुर्गा प्रसाद

कार्यालय व्यवस्थापक
पिछले 36 साल से हंस के साथ जुड़े दुर्गा प्रसाद , इस बात का पूरा ध्यान रखते हैं की कार्यालय में आया कोई भी अतिथि , बिना चाय-पानी के न लौटे। हंस के प्रत्येक कार्यकर्ता की चाय से भोजन तक की व्यवस्था ये बहुत आत्मीयता से निभाते हैं। इसके अतिरिक्त हंस के बंडलों की प्रति माह रेलवे बुकिंग कराना , हंस से संबंधित स्थानीय काम निबाटना दुर्गा जी के जिम्मे आते हैं।

किशन कुमार

कार्यालय व्यवस्थापक / वाहन चालक
राजेन्द्र यादव के व्यक्तिगत सेवक के रूप में , पिछले 25 वर्षों से हंस से जुड़े किशन कुमार आज हंस का सबसे परिचित चेहरा हैं । कार्यालय में रखी एक-एक हंस की प्रति , प्रत्येक पुस्तक , हर वस्तु उनकी पैनी नज़र के सामने रहती है। कार्यालय की दैनिक व्यवस्था के साथ साथ वह हंस के वाहन चालक भी हैं।

हारिस महमूद

वितरण और लेखा प्रबंधक
पिछले 37 साल से हंस के साथ कार्यरत हैं। हंस को देश के कोने -कोने तक पहुँचाने का कार्य कुशलतापूर्वक निभा रहे हैं। विभिन्न राज्यों के प्रत्येक एजेंट , हर विक्रेता का नाम इन्हें कंठस्थ है। समय- समय पर व्यक्तिगत रूप से हर एजेंट से मिलकर हंस की बिक्री का पूरा ब्यौरा रखते हैं. इसके साथ लेखा विभाग भी इनके निरीक्षण में आता है।

वीना उनियाल

सम्पादन संयोजक / सदस्यता प्रभारी
पिछले 31 वर्ष से हंस के साथ जुड़ीं वीना उनियाल के कार्यभार को एक शब्द में समेटना असंभव है। रचनाओं की प्राप्ति से लेकर, हर अंक के निर्बाध प्रकाशन तक और फिर हंस को प्रत्येक सदस्य के घर तक पहुंचाने की पूरी प्रक्रिया में इनकी अहम् भूमिका है। पत्रिका के हर पहलू से पूरी तरह परिचित हैं और नए- पुराने सदस्यों के साथ निरंतर संपर्क बनाये रखती हैं।

रचना यादव

प्रबंध निदेशक
राजेन्द्र यादव की सुपुत्री , रचना व्यवसाय से भारत की जानी -मानी कत्थक नृत्यांगना और नृत्य संरचनाकर हैं। वे 2013 से हंस का प्रकाशन देख रही हैं- उसका संचालन , विपणन और वित्तीय पक्ष संभालती हैं. संजय सहाय और हंस के अन्य कार्यकर्ताओं के साथ हंस के विपणन को एक आधुनिक दिशा देने में सक्रिय हैं।

संजय सहाय

संपादक

प्रेमचंद की तरह राजेन्द्र यादव की भी इच्छा थी कि उनके बाद हंस का प्रकाशन बंद न हो, चलता रहे। संजय सहाय ने इस सिलसिले को निरंतरता दी है और वर्तमान में हंस उनके संपादन में पूर्ववत निकल रही है।

संजय सहाय लेखन की दुनिया में एक स्थापित एवं प्रतिष्ठित नाम है। साथ ही वे नाट्य निर्देशक और नाटककार भी हैं. उन्होंने रेनेसांस नाम से गया (बिहार) में सांस्कृतिक केंद्र की स्थापना की जिसमें लगातार उच्च स्तर के नाटक , फिल्म और अन्य कला विधियों के कार्यक्रम किए जाते हैं.