पाषाण कोर्तक
उषाकाल,अक्षुण्ण पाषाण कोर्तक से मिली
उपेक्षित सूफी अल्फ़ाज़ सी झरती झर झर
किसी सन्नध्द अडिग प्राण सी चार रही थी
और सुना रही थी कस कर बंद मुष्ठिका व्यथा
नंगे पांव वसुधा को नापती स्वैराचार
और करती अभिज्ञानशाकुन्तलम् का अनुसरण
हड़प्पा की अपठित अनुबंध लिपि जैसी
किसी गुहा में लिखी, अस्पष्ट
75 वर्षों में एक दफा दिखने वाले
उस धूमकेतु के समान सरकती इतिहास में
मैंने उठा लिया उसे तांबे के पुराने संदूक से
और रख दिया टिमटिमाते ढिबरी संग
चुरन की पुड़िया के चटख को
लपेट दिया उसके आवरण में मलतास की पंखुड़ियों को उठाया पथ से
काढ़ कर मिला दिया स्याह पन्नों में
फिर भी न जाने क्यों,वह
मुक्त नहीं, सशक्त नहीं
मानो जिस्म में उसके रक्त नहीं
राख वसन से झांकती उसकी देह
उन्मुक्तता को तत्पर न थी
तीन पहर बुझा कर ज्यों हताश लौटी मैं
बुझ चुकी थी वह कोर्तक
किसी खंडहर में पाषाण बनी
शब्द दर शब्द मैंने ढोया था उसे
और खोया था उसे ‘स्त्री’ पा कर