डोंट रीड मी..!
———————-
ना पढ़ा जाने वाला लेखक होने के कई फायदे हैं..। अभी परसों ही मैंने तीसरी क्लास के अपने पहले क्रश से इज़हार-ए-मोहब्बत वाली कहानी दागी..। आप सोच सकते हैं मैं ये बकलोली करने यहां नहीं बैठा होता अगर आपकी भाभी जी उसे पढ़ लेतीं..।
अपने अब तक के रिकॉर्ड को देखकर पूरा यकीन था कि वो क्रश वाली मोहतरमा भी नहीं पढ़ेंगी..। लेकिन वो आशिकों वाली चुल और उस पर ठहरा पत्रकार..मैंने ना सिर्फ उसे टैग किया बल्कि डेढ़ दर्जन मीडिया संस्थानों से बटोरे घाघपने का पूरा सदुपयोग करते हुए गजब का क्लिकबेट शीर्षक भी चिपकाया- “वो शाम को होमवर्क के बहाने उसके साथ क्या करने आया था..?” या फिर “आखिर क्या हुआ कि राज की हो ना सकी सिमरन..? ” टाइप जैसा कुछ..।
अब ये तो कोई अंदर पढ़ता तब जाकर पता चलता ना कि ससुर होमवर्क के बहाने सपना की मां ने एक किलो चीनी, 2 किलो प्याज़ और एक विम बार मंगवाया था..। और सिमरन के मां-बाप ने कभी का ट्रेन से आना-जाना बंद कर दिया था और जहाज़ की खिड़की खुलती नहीं जहां से वो चूड़ी सजा, दे लंबा हाथ आगे करती..। और अगर करती भी तो राज को विछिन्न-भीति का रोग था, वो अपने ही एक हाथ को दूसरे हाथ से नहीं पकड़ पाता था..क्या मालूम अपना ही दिमाग झिड़क दे..!
विछिन्न-भीति..? अब अगर यहां तक पढ़ने वाला कोई होता तो मैं ज़रूर आसान भाषा में कहता कि भाईजान बंदे की फटती थी..। लेकिन ना पढ़े जाने वाले लेखक होने का ये एक और फायदा है..। आपको शब्दों का मिस्त्री बनने की ज़रूरत नहीं होती..। ‘यहां से थोड़ा छोटा रखो…नहीं, नहीं..उधर थोड़ा बाएं सरकाओ लाइन को..अरे, ऊपर से थोड़ा लंबा हो गया पैरा, इसे छांटो, इस शब्द को यहां से निकलो…ज़रा दो लाइन आगे फिट करो..’ जब मैं लिखने वाला पत्रकार होता था तो दिन भर यही झगड़ा रहता था..। लेकिन अब फिक्र बस ये करनी पड़ती है कि पश्च भाग कुर्सी में फिट जमा रहे..। नहीं तो दफ़्तर अपना जिम की मेंबरशिप देता ही है..।
आप बताइये भला कॉर्पोरेट धर्म में इस ईश-निंदा के कोपभाजन से बच पाता मैं, अगर पढ़ा जाने वाला लेखक होता..? मेरी इसी विशिष्टता की वजह से आपको मानने में आसानी होगी कि मैं खुशामद या अपने पश्च रक्षा हेतु नहीं कह रहा हूं कि अपने संपादक लोग इस मामले में काफी भले मानस हैं..। उन्हें तो ये भी नहीं पता कि बंदा कलम भी घसीटता है..। वरना मीडिया में आजकल चपरासी रखे जाने से पहले भी संस्थान की विचारधारा और आपकी सोशल मीडिया कुंडली के गुण मिलाए जाते हैं भाई साहब/ बहिनजी..!
धर्म, कुंडली, ईश-निंदा..मतलब जलते तवे पर तशरीफ धरने जैसा है आजकल सोशल मीडिया पर ऐसे लफ्ज़ों का इस्तेमाल..। यहां तो लोग कार्टून बनाने और नाटक खेलने के लिए भी नप जा रहे हैं..। लेकिन आपका ख़ाकसार योगीजी के राज में होकर भी एक-एक बाल संवरा हुआ लेकर चल लेता है..। अभी तो दूर से नक्शे में नज़र भी ना आने वाले अपने सूबे को भी जननायकों ने सुर्खियों में लाने की ठानी है..। क्यों ना हो, हमारे पास राम भी हैं और उनकी जय-जयकार भी है..। सो सबसे आसान तरीका क्या है- सुर्खियां बनाने वालों को ही लपेट लो..। लेकिन हमें देखो, हम तो रामजी की जय नहीं बोलते और फिर भी आराम से धूप सेंकते हुए मुटाए जा रहे हैं यहां पर..। जब कोई पढ़ेगा ही नहीं तो काहे की टेंशन और काहे का टंटा..।
अब पढ़े जाने वाले मेरे एक मित्र लेखक को आज सुबह जगते ही ये टेंशन साल रही थी कि स्साला अपने गांव में कब से अटके पाखाने के काम पर लिखें या वहां पेंटागन पर आन पड़ी विपदा की कहें..। हमें देखो, भाई हम तो भरी दोपहर किसी दूसरी आकाशगंगा की पैरालल रिएलिटी को पेल देते हैं..। है कोई माई का लाल पूछने वाला..।
एक दूसरे आभासी मित्र हैं फिल्म स्टारों की संतानों जैसे अग्राह्य किंतु चित्ताकर्षी नाम वाले..। इसी तरह के नाम वाले ग्रुप में पिछले दिनों उन्होंने प्रतिक्रिया-पिपासु लेखकों पर जो चोट दागी। बोले भैये, दाज्यू, गुरूजी..आप आकर कवि को ढूंढ़ों उसे पढ़ने, सुनने को..। ये आपका काम भयो..। जे का कि ‘तथाकथित’ कवि बिचारा मरा जा रहे पाठकों के संताप में..! फिर जब एक हफ़्ते बाद भी सिर्फ 2 ही नीले अंगूठों की छाप दिखी और कमेंट बॉक्स की कोख सूनी ही रही तो खुद ही कमेंट दागा- “भाई लोगो, प्लीज़ गिव प्रतिक्रिया..फ्रेंडशिप इज़ नॉट वन वे स्ट्रीट..!! अब कोई हमारी यूं घर-वापसी करा के दिखाए ज़रा..!
अगर गलती से इस पोस्ट पर कमेंट दिख जाए तो ये मत सोचिएगा कि खुद को ना पढ़े जाने वाला लेखक साबित करके मैं ‘हंबलब्रैग’ यानी विनीत-श्लाघा कर रहा था..। इन शब्दों को यहां तक चाट गए वेल्हे बहादुरों को ये सफाई देना मैं फर्ज़ समझता हूं कि बिना पढ़े भी आलोचना, समालोचना, टीका- टिप्पणी करने के कई स्मार्ट तरीके होते हैं..। एक बार एक ऐसे ही स्मार्ट बंदे को अपने लिखे की समीक्षा करने को कहा था..।
जवाब में उसने जो कहा उससे पहले तो मेरी छाती फूल गई थी- “तुम्हारा लिखा सुंदर भी है और मौलिक भी…”
“लेकिन.. ” उसने टिप्पणी का क्रम जारी रखा, “जो हिस्सा सुंदर है वो मौलिक नहीं है और जो मौलिक है वो सुंदर नहीं है..!”
कसम से, ज़िंदगी भर इस व्यंग्य वार से मेरी कलम की कमर सीधी नहीं होती अगर बाद में पता ना चलता कि स्मार्ट बंदे ने भी मेरा लिखा पढ़ा ही नहीं था..। ये कमाल की पंचलाइन किसी और की ही चेपी हुई थी..।
क्या कहा..? ‘भाभीजी घर पर हैं’ शुरू हो गया..यानी साढ़े दस बज गए..? भाई, जल्दी-जल्दी समेटने का वक्त आ गया है..। अमां, उपसंहार गया तेल लेने यार..। फेसबुक ट्रैफिक के हिसाब से लाइक्स का शुभ मुहूर्त निकला जा रहा है…
डोंट रीड मी..!
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ना पढ़ा जाने वाला लेखक होने के कई फायदे हैं..। अभी परसों ही मैंने तीसरी क्लास के अपने पहले क्रश से इज़हार-ए-मोहब्बत वाली कहानी दागी..। आप सोच सकते हैं मैं ये बकलोली करने यहां नहीं बैठा होता अगर आपकी भाभी जी उसे पढ़ लेतीं..।
अपने अब तक के रिकॉर्ड को देखकर पूरा यकीन था कि वो क्रश वाली मोहतरमा भी नहीं पढ़ेंगी..। लेकिन वो आशिकों वाली चुल और उस पर ठहरा पत्रकार..मैंने ना सिर्फ उसे टैग किया बल्कि डेढ़ दर्जन मीडिया संस्थानों से बटोरे घाघपने का पूरा सदुपयोग करते हुए गजब का क्लिकबेट शीर्षक भी चिपकाया- “वो शाम को होमवर्क के बहाने उसके साथ क्या करने आया था..?” या फिर “आखिर क्या हुआ कि राज की हो ना सकी सिमरन..? ” टाइप जैसा कुछ..।
अब ये तो कोई अंदर पढ़ता तब जाकर पता चलता ना कि ससुर होमवर्क के बहाने सपना की मां ने एक किलो चीनी, 2 किलो प्याज़ और एक विम बार मंगवाया था..। और सिमरन के मां-बाप ने कभी का ट्रेन से आना-जाना बंद कर दिया था और जहाज़ की खिड़की खुलती नहीं जहां से वो चूड़ी सजा, दे लंबा हाथ आगे करती..। और अगर करती भी तो राज को विछिन्न-भीति का रोग था, वो अपने ही एक हाथ को दूसरे हाथ से नहीं पकड़ पाता था..क्या मालूम अपना ही दिमाग झिड़क दे..!
विछिन्न-भीति..? अब अगर यहां तक पढ़ने वाला कोई होता तो मैं ज़रूर आसान भाषा में कहता कि भाईजान बंदे की फटती थी..। लेकिन ना पढ़े जाने वाले लेखक होने का ये एक और फायदा है..। आपको शब्दों का मिस्त्री बनने की ज़रूरत नहीं होती..। ‘यहां से थोड़ा छोटा रखो…नहीं, नहीं..उधर थोड़ा बाएं सरकाओ लाइन को..अरे, ऊपर से थोड़ा लंबा हो गया पैरा, इसे छांटो, इस शब्द को यहां से निकलो…ज़रा दो लाइन आगे फिट करो..’ जब मैं लिखने वाला पत्रकार होता था तो दिन भर यही झगड़ा रहता था..। लेकिन अब फिक्र बस ये करनी पड़ती है कि पश्च भाग कुर्सी में फिट जमा रहे..। नहीं तो दफ़्तर अपना जिम की मेंबरशिप देता ही है..।
आप बताइये भला कॉर्पोरेट धर्म में इस ईश-निंदा के कोपभाजन से बच पाता मैं, अगर पढ़ा जाने वाला लेखक होता..? मेरी इसी विशिष्टता की वजह से आपको मानने में आसानी होगी कि मैं खुशामद या अपने पश्च रक्षा हेतु नहीं कह रहा हूं कि अपने संपादक लोग इस मामले में काफी भले मानस हैं..। उन्हें तो ये भी नहीं पता कि बंदा कलम भी घसीटता है..। वरना मीडिया में आजकल चपरासी रखे जाने से पहले भी संस्थान की विचारधारा और आपकी सोशल मीडिया कुंडली के गुण मिलाए जाते हैं भाई साहब/ बहिनजी..!
धर्म, कुंडली, ईश-निंदा..मतलब जलते तवे पर तशरीफ धरने जैसा है आजकल सोशल मीडिया पर ऐसे लफ्ज़ों का इस्तेमाल..। यहां तो लोग कार्टून बनाने और नाटक खेलने के लिए भी नप जा रहे हैं..। लेकिन आपका ख़ाकसार योगीजी के राज में होकर भी एक-एक बाल संवरा हुआ लेकर चल लेता है..। अभी तो दूर से नक्शे में नज़र भी ना आने वाले अपने सूबे को भी जननायकों ने सुर्खियों में लाने की ठानी है..। क्यों ना हो, हमारे पास राम भी हैं और उनकी जय-जयकार भी है..। सो सबसे आसान तरीका क्या है- सुर्खियां बनाने वालों को ही लपेट लो..। लेकिन हमें देखो, हम तो रामजी की जय नहीं बोलते और फिर भी आराम से धूप सेंकते हुए मुटाए जा रहे हैं यहां पर..। जब कोई पढ़ेगा ही नहीं तो काहे की टेंशन और काहे का टंटा..।
अब पढ़े जाने वाले मेरे एक मित्र लेखक को आज सुबह जगते ही ये टेंशन साल रही थी कि स्साला अपने गांव में कब से अटके पाखाने के काम पर लिखें या वहां पेंटागन पर आन पड़ी विपदा की कहें..। हमें देखो, भाई हम तो भरी दोपहर किसी दूसरी आकाशगंगा की पैरालल रिएलिटी को पेल देते हैं..। है कोई माई का लाल पूछने वाला..।
एक दूसरे आभासी मित्र हैं फिल्म स्टारों की संतानों जैसे अग्राह्य किंतु चित्ताकर्षी नाम वाले..। इसी तरह के नाम वाले ग्रुप में पिछले दिनों उन्होंने प्रतिक्रिया-पिपासु लेखकों पर जो चोट दागी। बोले भैये, दाज्यू, गुरूजी..आप आकर कवि को ढूंढ़ों उसे पढ़ने, सुनने को..। ये आपका काम भयो..। जे का कि ‘तथाकथित’ कवि बिचारा मरा जा रहे पाठकों के संताप में..! फिर जब एक हफ़्ते बाद भी सिर्फ 2 ही नीले अंगूठों की छाप दिखी और कमेंट बॉक्स की कोख सूनी ही रही तो खुद ही कमेंट दागा- “भाई लोगो, प्लीज़ गिव प्रतिक्रिया..फ्रेंडशिप इज़ नॉट वन वे स्ट्रीट..!! अब कोई हमारी यूं घर-वापसी करा के दिखाए ज़रा..!
अगर गलती से इस पोस्ट पर कमेंट दिख जाए तो ये मत सोचिएगा कि खुद को ना पढ़े जाने वाला लेखक साबित करके मैं ‘हंबलब्रैग’ यानी विनीत-श्लाघा कर रहा था..। इन शब्दों को यहां तक चाट गए वेल्हे बहादुरों को ये सफाई देना मैं फर्ज़ समझता हूं कि बिना पढ़े भी आलोचना, समालोचना, टीका- टिप्पणी करने के कई स्मार्ट तरीके होते हैं..। एक बार एक ऐसे ही स्मार्ट बंदे को अपने लिखे की समीक्षा करने को कहा था..।
जवाब में उसने जो कहा उससे पहले तो मेरी छाती फूल गई थी- “तुम्हारा लिखा सुंदर भी है और मौलिक भी…”
“लेकिन.. ” उसने टिप्पणी का क्रम जारी रखा, “जो हिस्सा सुंदर है वो मौलिक नहीं है और जो मौलिक है वो सुंदर नहीं है..!”
कसम से, ज़िंदगी भर इस व्यंग्य वार से मेरी कलम की कमर सीधी नहीं होती अगर बाद में पता ना चलता कि स्मार्ट बंदे ने भी मेरा लिखा पढ़ा ही नहीं था..। ये कमाल की पंचलाइन किसी और की ही चेपी हुई थी..।
क्या कहा..? ‘भाभीजी घर पर हैं’ शुरू हो गया..यानी साढ़े दस बज गए..? भाई, जल्दी-जल्दी समेटने का वक्त आ गया है..। अमां, उपसंहार गया तेल लेने यार..। फेसबुक ट्रैफिक के हिसाब से लाइक्स का शुभ मुहूर्त निकला जा रहा है…
प्रेमचंद की तरह राजेन्द्र यादव की भी इच्छा थी कि उनके बाद हंस का प्रकाशन बंद न हो, चलता रहे। संजय सहाय ने इस सिलसिले को निरंतरता दी है और वर्तमान में हंस उनके संपादन में पूर्ववत निकल रही है।
संजय सहाय लेखन की दुनिया में एक स्थापित एवं प्रतिष्ठित नाम है। साथ ही वे नाट्य निर्देशक और नाटककार भी हैं. उन्होंने रेनेसांस नाम से गया (बिहार) में सांस्कृतिक केंद्र की स्थापना की जिसमें लगातार उच्च स्तर के नाटक , फिल्म और अन्य कला विधियों के कार्यक्रम किए जाते हैं.