उतरन
एक कुर्ती निकली अलमारी से अपनी
कुछ पुरानी-सी
कुछ बेरंग-सी
थोड़ी फटी थी
और थोड़ी गई थी उधड़
अलमारी से निकाल पटक दिया उसे ज़मीं पर
इस सोच के साथ कि- मुझ पर नहीं फबेगी अब ये…
मेरे घर के पीछे एक छोटी झोपड़ी में
रहती है एक लड़की
चेचक के दाग़ से भरा हुआ है चेहरा उसका
हमउम्र होगी शायद या कुछ छोटी
तो मैंने अपनी वो फटी हुई कुर्ती देदी उसे
मैं नहीं पहन सकती, पर वो तो पहन सकती है
फिर दिन बीतते गए और मैं भूल गई
उस कुर्ती को…
एक रोज़ मैंने देखा उस लड़की को
कितने करीने से संवरे हैं बाल उसके आज
आँखों में काजल है,
माथे पर बिंदी,
झुमके भी पहने हैं, जिनका रंग थोड़ा उतर गया है
पैरों में लाल चप्पल
जिसपर लगे हैं टाँके एक या दो शायद
और… और उसने पहनी है मेरी वो कुर्ती
पर दिख क्यों नहीं रहा उस पर वो छेद
जिसके कारण थमा दी थी उसे वो कुर्ती
फिर ध्यान से देखा
कुछ अलग था इस बार उस कुर्ती में
उसने काढ लिए थे बूटे कई
रंग-बिरंगे, छोटे-बड़े अनेक
जैसे किसी ने टांक दिए हों
आसमान में अनगिनत सितारे….
एकाएक वो कुर्ती मुझे वापस अपनी लगने लगी
मुझे ईर्ष्या होने लगी
मैं घमंड में खुद से बोली-
आखिर ये है तो मेरी ही कुर्ती
पर आखिर मुझसे खूबसूरत वो लग रही थी
उसके चेचक के वो दाग़ लग रहे थे चाँद के दाग़ समान…
फिर नज़रें मिली उसकी मुझसे
मैंने दी उसे वो फीकी मुस्कुराहट
जैसे दी थी वो पुरानी फीकी कुर्ती
और बदले में
वो मुस्कुरा दी आँखों में चमक के साथ
जैसे चमक रही थी देह पर उसके वो कुर्ती…
-युक्ति गौड़