जुलाई 1992 की एक शाम को हकीम शेख नाम का गरीब खेत मज़दूर कोलकाता से कुछ दूर मथुरापुर रेल्वे स्टेशन के नज़दीक रेल से गिर गया और उसके सिर में चोट लगी। मथुरापुर प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र पर उसे कुछ देर बैठाया गया, लेकिन उसे प्राथमिक उपचार तक नहीं मिला। उसे कोलकाता के एन.आर.एस. मेडिकल कॉलेज अस्पताल रेफर किया गया जहाँ उसका एक्सरे हुआ और भर्ती करने को कहा गया। लेकिन अस्पताल ने बिस्तर की अनुपलब्धता बताते हुए उसे भर्ती करने से इनकार कर दिया। सारी रात और अगले दिन दोपहर तक वह शहर के पाँच बड़े अस्पतालों में मारा-मारा फिरा। एक अस्पताल की सिफारिश पर उसे निजी क्लिनिक में सी.टी. स्कैन कराना पड़ा। स्कैन की रिपोर्ट में उसकी खोपड़ी में रक्तस्राव होने का पता चला। आखिर दस हज़ार रुपए पेशगी जमा करने के बाद उसे एक निजी अस्पताल में जगह मिली। इलाज से वह बच तो गया लेकिन इसके लिए उसे सत्ताईस हज़ार रुपए खर्च करने पड़े जो उसकी हैसियत से बाहर की रकम थी। इस पर पश्चिम बंग खेत मज़दूर समिति ने सर्वोच्च न्यायालय में एक जनहित याचिका दायर की। याचिका में कहा गया कि सरकारी अस्पताल में बिस्तर की अनुपलब्धता के चलते भर्ती न करके पश्चिम बंगाल सरकार ने अनुच्छेद 21 तहत हकीम शेख मिले मौलिक अधिकारों का हनन किया है।
पश्चिम बंग खेत मज़दूर समिति और अन्य बनाम पश्चिम बंगाल राज्य और अन्य (1996 4 एस.सी.सी. 37) में चिकित्सकीय उपचार के अधिकार को जीवन के अधिकार के साथ घनिष्ठ रूप से जोड़ते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने रेखांकित किया कि अगर शासकीय अस्पताल किसी मरीज़ को समय पर चिकित्सा सहायता मुहैया करने में विफल रहते हैं तो यह संविधान के अनुच्छेद 21 का हनन है। फैसले में कहा गया कि बेशक चिकित्सा सुविधाएँ उपलब्ध कराने के लिए आर्थिक संसाधनों की ज़रूरत है, लेकिन नागरिकों को उपचार और देखभाल के लिए पर्याप्त सुविधाएँ प्रदान करना राज्य का कर्तव्य है और वह इससे इनकार नहीं कर सकता। इस ऐतिहासिक निर्णय के मुख्य बिन्दु इस प्रकार हैं –
1. गम्भीर बीमारी और आपातकाल में सरकारी अस्पताल में भर्ती होना अनुच्छेद 21 के तहत व्यक्ति का मूल अधिकार है।
2. बिस्तर का उपलब्ध न होना, भर्ती से इनकार का आधार नहीं हो सकता।
3. सरकारी कोष में धन की कमी को अदालत का आदेश न मानने का कारण नहीं माना जा सकता।
4. भर्ती न करने की स्थिति में सरकारी अस्पताल के साथ-साथ वहाँ पदस्थ चिकित्सा अधिकारी भी मौलिक अधिकार के हनन के दोषी माने जाएँगे।
5. यह फैसला पश्चिम बंगाल के साथ-साथ अन्य राज्यों और केन्द्र सरकार पर भी लागू होता है।
खत्री बनाम बिहार राज्य (1981 (1) एस.एस.सी. 627, 631) में सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया था कि धन की कमी के आधार पर राज्य अपने संवैधानिक कर्तव्य का निर्वहन नहीं रोक सकता। राज्य का यह संवैधानिक दायित्व है कि वह नागरिकों की रक्षा के लिए चिकित्सा सहायता उपलब्ध कराने को उच्च प्राथमिकता दे।
विन्सेंट पनिकुर लोंगरा बनाम भारत संघ (ए.आई.आर. 1987 एस.सी. 990) में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा – “सार्वजनिक स्वास्थ्य के सुधार व संधारण को उच्च महत्व दिया जाना अत्यावश्यक है क्योंकि इस पर समुदाय का अस्तित्व एवं जिस समाज की कल्पना संविधान ने की है, उसका निर्माण इसकी उन्नति पर निर्भर है। इसलिए हमारा मत है कि सार्वजनिक स्वास्थ्य पर ध्यान देना उच्च प्राथमिकता है – शायद सर्वोच्च प्राथमिकता है।”
पण्डित परमानन्द कटारा बनाम भारत संघ व अन्य (ए.आई.आर. 1989 एस.सी. 2039) के फैसले में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि प्रत्येक चिकित्सक, वह सरकारी अस्पताल में कार्यरत हो या न हो, का यह पेशागत दायित्व है कि व्यक्ति जीवन रक्षा के लिए अपनी विशिष्ठ सेवा दे। कोई भी कानून या राज्य का कार्य चिकित्सा के पेशे से जुड़े व्यक्तियों को अपने इस सर्वोपरि दायित्व के निर्वहन में देरी करने या त्याग देने के लिए बाधा नहीं बन सकता।
चिकित्कों के कर्तव्यों की व्याख्या करते हुए लक्ष्मण बालकृष्ण जोशी बनाम डॉ. त्र्यंबकराव बापू गोडबोले (ए.आई.आर. 1969 एस.सी. 128) के मामले में सर्वोच्च ने कहा कि मरीज द्वारा सहायता माँगने पर चिकित्सक द्वारा मरीज की देखभाल व उपचार करने और ज़रूरत हो तो भर्ती करने से इनकार करना उसकी लापरवाही मानी जाएगी।
सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों ने चिकित्सा, उपचार और बीमारी में देखभाल को जीने के अधिकार के तहत माना है और तदुनुसार सरकारों और सम्बन्धित विभागों को अनेक आदेश दिए हैं। इन तमाम फैसलों और आदेशों को वर्तमान कोरोना महामारी से उत्पन्न स्थिति के बरअक्स देखने की ज़रूरत है।
अनेक स्रोतों से यह सूचनाएँ, तस्वीरें और विडियो सम्प्रेषित हो रहे हैं, जो बताते हैं कि अस्पतालों में इलाज नहीं मिल रहा है, कई-कई चक्कर काटने पड़ रहे हैं, मरीज़ों को बगैर इलाज के लौटाया जा रहा है, जाँच नहीं हो रही, जाँच के परिणाम आने में देरी हो रही है, उपचार नहीं मिल रहा आदि। कई अभिनेता, पत्रकार, शासकीय कर्मचारियों और राजनेताओं तक के विडीयो-ऑडियो सन्देश सोशल मीडिया पर प्रचारित हो रहे हैं जिनमें वे अपने या अपने परिवार के सदस्यों के प्रति अस्पतालों और चिकित्साकर्मियों की उपेक्षा की शिकायत करते और बेबस होकर इलाज की करुण गुहार लगाते नज़र आ रहे हैं।
उन साधनसम्पन्न लोगों के लिए सरकारी अस्पतालों में जाना और इलाज कराने की कोशिश करना एक कष्टकारी व दुखद अनुभव ज़रूर है जिनके सम-वर्गीय नाते-रिश्तेदारों को सरकार ने विशेष विमान भेजकर विदेशों से घर वापिस लौटाया है। किसी को ये तक पता नहीं कि इस आपात हवाई सफर का किराया किसने वहन किया? जबकि उस आम भारतीय नागरिक के लिए सरकारी अस्पतालों की दुर्दशा और चिकित्साकर्मियों का असंवेदनशील व्यवहार नई बात नहीं। उस भारतीय को हमने सैकड़ों-हज़ारों मील पैदल चलते देखा है, साइकिल पर बीमार पिता को ढ़ोते हुए देखा है, सड़क पर या रेल पटरियों पर और फिर रेल में सफर के दौरान मरते हुए देखा है। उन्हें घर पहुँचाने वाली श्रमिक स्पेशल ट्रेन या बसों के किराये के भुगतान को लेकर देश में संवाद के हर मंच पर चर्चा हमने देखी-सुनी है।
एक तरह से यह अच्छा ही हुआ कि खाते-पीते लोग कोविड-19 के बहाने राष्ट्र के सरकारी अस्पतालों की हकीकत से रूबरू हुए। अस्पताल ही क्यों, तामाम सरकारी संस्थाएँ उपेक्षित और जर्जर हो चुकी हैं; भारत संचार निगम, भारतीय जीवन बीमा निगम, एअर इंडिया, तमाम सरकारी बैंक आदि की हालत खस्ता है। सरकारी स्कूलों की बात करना ही बेमानी है, कोई भी “समझदार” इन्सान अपने बच्चों को वहाँ पढ़ने नहीं भेजना चाहता। कोविड-19 ने आईना दिखाया है कि जो कुछ “निजी” है, वो मुनाफे के लिए है। संकटकाल निजी उद्यमों को लिए मुनाफे की फसल काटने का मौसम होता है। आमजन के हित के लिए कुछ हो सकता है तो वह “सार्वजनिक” ही हो सकता है – सार्वजनिक स्वास्थ्य, सार्वजनिक शिक्षा, सार्वजनिक परिवहन… आदि।
भारत एक लोकतांत्रिक राष्ट्र है। हमें यह कहते हुए गर्व होता है कि भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है। हमारा संविधान कहता है कि भारत एक समाजवादी पन्थनिरपेक्ष लोकतंत्रात्मक गणराज्य है। संविधान की उद्देशिका में सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक न्याय तथा प्रतिष्ठा और अवसर की समता प्राप्त करने का संकल्प भी किया गया है। हालाँकि आज़ादी के बाद से सरकारी नीतियाँ प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से निजीकरण को बढ़ावा देती रही हैं। शुरुआत में निजी और सार्वजनिक के बीच सन्तुलन बनाए रखते हुए “मिश्रित अर्थव्यवस्था” को अपनाने की नाकाम कोशिश की गई। 1990 के दशक से खुले तौर पर निजीकरण अंगीकार कर लिया गया। तमाम सरकारी उपक्रमों को, जिनमें अस्पताल, मेडीकल कॉ़लेज, चिकित्सा शोध संस्थान, दवा निर्माण आदि शामिल हैं, को अपनी मौत मरने को लिए छोड़ दिया गया।
विश्व स्वास्थ्य संगठन की हाल ही में प्रकाशित रिपोर्ट “वर्ल्ड हेल्थ स्टेटेस्टिक्स 2020” बताती है कि विविध मानदण्डों पर भारत बेहद पिछड़ा हुआ है। आबादी, क्षेत्र, अर्थव्यवस्था आदि मापदण्डों पर लगभग भारत के समान राष्ट्रों की तुलनात्मक तालिका देखें –
मानदण्ड
भारत
ब्राज़ील
चीन
इंडोनेशिया
श्रीलंका
प्रति 10,000 आबादी पर चिकित्सकों की संख्या
8.6
21.6
19.8
4.3
10.0
प्रति 10,000 आबादी पर नर्स की संख्या
17.3
101.2
26.6
24.1
21.8
जन्म के समय जीवन प्रत्याशा
68.8
75.1
76.4
69.3
75.3
स्वास्थ्य मद में सरकार के कुल खर्च का अंश (प्रतिशत में)
3.4
10.3
9.1
8.7
8.5
भारत में चिकित्सकों, नर्सों की संख्या कम है, जीवन प्रत्याशा दर कम है और सरकारी खर्च कम भी है। ग्लोबल ह्यूमन डेवलपमेंट इंडेक्स में भारत का स्थान 129है। श्रीलंका (71), ब्राज़ील (79), चीन (85) और इंडोनेशिया (111) हमसे आगे हैं। बांग्लादेश जैसा पिछड़ा कहलाने वाला मुल्क135 वें स्थान पर है जो भारत से बहुत पीछे नहीं। केन्द्रीय बजट 2020-21 में स्वास्थ्य के लिए 67,484 लाख करोड़ रुपए और सामाजिक कल्याण पर 1,52,962 लाख करोड रुपए, जबकि रक्षा के लिए 3,23,053 करोड रुपए आवंटित किए गए हैं। रक्षा पर खर्च स्वास्थ्य और समाज कल्याण के कुल जोड़ से भी अधिक है। यही वजह है कि भारत में प्रति एक हजार की आबादी पर मात्र डेढ़ बिस्तर उपलब्ध है, जबकि चीन, ब्राज़ील, थाइलैण्ड और दक्षिण कोरिया में चार बिस्तर हैं। भारत सरकार के स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय ने जुलाई 2018 में जारी आँकड़ों के अनुसार भारत में कुल 25,778 सरकारी अस्पताल और 7,39,024 बिस्तर हैं, जिनमें प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र, सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्र, उप-जिला अस्पताल और जिला अस्पताल शामिल हैं।
सरकार ने स्वास्थ्य में खर्च कम करके निजी अस्पतालों, चिकित्सा महाविद्यालयों और शोध संस्थानों को सस्ती ज़मीन और बिजली, कर राहत जैसी सुविधाएँ देकर प्रोत्साहित किया है। वही निजी अस्पताल अब मुनाफा कमा रहे हैं और आमजन का इलाज करने से इनकार कर रहे हैं।
जाहिर है इन हालातों का सामना करना खाते-पीते लोगों को दुश्वार हो रहा है और वे हर मुमकिन रास्ते से अपनी बात सरकार या रसूखदार लोगों तक पहुँचाने की कोशिश में लगे हैं ताकि उनके अपनों का इलाज हो सके। हमारे देश में भेदभावकारी जाति व्यवस्था और सामन्तवाद की जड़ें इतनी गहरी हैं कि कतार में लगकर सार्वजनिक सुविधा पाने का इन्तज़ार करना अधिकांश लोगों को अपमानजनक लगता है। कोविड-19 के संकट में सोशल मीडिया पर प्रसारित होने वाले मदद के आग्रहों ने विशेषाधिकार पाने की बेशर्म सामन्ती लालसा को बेनकाब कर दिया है। किस तर्क के आधार अभिनेता या पत्रकार का रिश्तेदार किसी प्रवासी मज़दूर से पहले इलाज का हकदार है?
एक बार फिर हमें न्यायालयों के निर्णयों पर गौर करना चाहिए ताकि सनद रहे कि इस महामारी के दौर में भी सभी के स्वास्थ्य की समान रूप से रक्षा करना सरकार का संवैधानिक दायित्व है। संविधान हर नागरिक को प्रतिष्ठा और अवसर की समता का वादा भी करता है।
– अमित कोहली
प्रेमचंद की तरह राजेन्द्र यादव की भी इच्छा थी कि उनके बाद हंस का प्रकाशन बंद न हो, चलता रहे। संजय सहाय ने इस सिलसिले को निरंतरता दी है और वर्तमान में हंस उनके संपादन में पूर्ववत निकल रही है।
संजय सहाय लेखन की दुनिया में एक स्थापित एवं प्रतिष्ठित नाम है। साथ ही वे नाट्य निर्देशक और नाटककार भी हैं. उन्होंने रेनेसांस नाम से गया (बिहार) में सांस्कृतिक केंद्र की स्थापना की जिसमें लगातार उच्च स्तर के नाटक , फिल्म और अन्य कला विधियों के कार्यक्रम किए जाते हैं.