नई दिल्ली: के आईटीओ में स्थित ऐवान – ए – ग़ालिब सभागार में प्रेमचंद की 33वीं जयंती के अवसर पर हर वर्ष की तरह इस बार भी हंसाक्षर ट्रस्ट और हँस पत्रिका की तरफ से वार्षिक गोष्ठी का आयोजन किया गया. जिसका विषय “लोकतंत्र की नैतिकताएं और नैतिकताओं का लोकतंत्र था. मंच का संचालन श्री प्रियदर्शन जी के द्वारा किया गया. इस संगोष्ठी में अलग अलग क्षेत्र के वक्ताओं ने अपना वक्तव्य दिया, जिनमे कांचा इलैया (राजनीतिक विचारक, दलित कार्यकर्ता), हर्ष मंदर (सामाजिक कार्यकर्ता), इन्दिरा जयसिंह (वरिष्ठ वकील), प्रताप भानु मेहता (शिक्षाविद, अशोका यूनिवर्सिटी के कुलपति ) और कृष्ण कुमार (समाज शास्त्री, शिक्षा शास्त्री) और नजमा हामिद जैसे ज्ञानी और प्रसिद्ध लोगों के नाम शामिल है.
गोष्ठी मे दलित चिंतक कांचा इलैया जी ने अपने व्याख्यान से बहुत प्रभावित किया. इतने प्रहारों के बाद भी उनकी बुलंद आवाज़ ने यकीन दिलाया कि ऐसी मुखर आवाज़ों को रोकना बहुत मुश्किल है. श्री हर्ष मंदर जी ने भाषण में मुस्लिम के ऊपर बढ़ रहे अत्याचार, गौ हत्या और लव-जिहाद के नाम पर उनकी मृत्यु और उनसे घृणा की स्थिति को हमारे सामने रखा.
इंदिरा जयसिंह ने अपने भाषण में सुप्रीम कोर्ट के प्रति लोगों के मन से उठते विश्वास के कारण पर बल देने का प्रयास किया. कृष्ण कुमार जी ने अपने भाषण में जिस सरलता और सहजता से आज के राजनीतिक प्रबंधन को स्पष्ट किया और पूरे देश को एक रसोई के बिंब से उकेरा और कहा कि सत्ता पक्ष जिस मुद्दे को चाहे तेज या धीमी आंच पर रख सकती है और चाहे तो कुछ देर के लिए फ्रीज भी कर सकती है.
प्रताप भानु मेहता जी का व्याख्यान पूरी गोष्ठी में उठने वाले सवालों को समेटने वाला रहा जिसमें बंधुत्व, आरक्षण , राष्ट्रवाद जैसे तमाम मुद्दे शामिल थे. आज लोक शब्द के बदलते अर्थों को भी स्पष्ट किया. समाज में नैतिकता के लिए जिस विश्वसनीयता की जरूरत होती है. उसके न रहने से हर तरफ पाखंड को फैलाया गया है जिसके कारणों पर गौर करना लाज़िमी है कि हमने क्या स्वरूप बनाया अपनी संस्थाओं का ?? उन्होंने कहा कि मैं राष्ट्रवाद को मानव अधिकारों का हनन मानता हूँ और देश में सभी संस्थानों में काबिज उच्चवर्णों के मेरिटधारियों की सच्चाई भी किसी से छुपी नहीं है.
जब तक भारतीय समाज दलितों और वंचितों को उनके पूरे अधिकार नहीं देगा तब तक भारत के निर्माण की परिकल्पना अधूरी है. आज प्रबंधन की राजनीति को जिस तरह हथियार बनाया जा रहा है और व्यक्तिगत पहचान को हटाकर समूहवाद से डराया जा रहा है यह सभी के लिए घातक है. सुप्रीमकोर्ट में दलितों और स्त्रियों के प्रतिनिधि न होना उनके शोषण की गाथा खुद बयाँ करती है. जिस समाज में पहचान बोध इतना हावी होगा वहां बंधुत्व नहीं हो सकता है. जब तक अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक को साथ लेकर नहीं चलेंगे तो विकास संभव नहीं होगा. प्रजातंत्र में कौन कहाँ से आया है ? देखने की बजाए यह देखना चाहिए कौन कहाँ जा रहा है ? उसकी प्रतिभा की सराहना हो न कि उसकी ऊँची जाति की. जब तक नए व्यक्तिवाद की बात नहीं होगी तब तक कुछ भी बदलाव अपेक्षित नहीं होगा. नजमा हामिद द्वारा फैज़ साहब की उर्दू नज़्म को बहुत अच्छे से पेश किया गया. जिसके जरिए उन्होंने देश की एकता और प्यार बनाए रखने पर जोर दिया.
इस संगोष्ठी के सार में लोकतंत्र की चुनौतियों को अच्छी तरह स्प्ष्ट करते गए सबकी समान भागीदारी और जिम्मेदारी और जात-पात जैसी रूढ़िवादी सोच को दूर करके एक बेहतर समाज के निर्माण और उसके विकास पर जोर देने का प्रयास किया गया.
31- july- 2018