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अजेय परमाणु शक्ति पर जीत

अजेय परमाणु शक्ति पर जीत

वर्ष 1945 में अमेरिका दुनिया को भयभीत कर सुपर पावर बनने की राह पर निकला था, और शायद दुनिया को अपनी परमाणु शक्ति का भय दिखाने के लिए ही उसने 6 अगस्त 1945 और 9 अगस्त 1945 को हिरोशिमा और नागासाकी में लगभग 4400 किलोग्राम वज़नी 13 किलोटन टीएनटी से भरपूर परमाणु बम फैंके। जिनके कारण अधिकारिक आंकड़ों के अनुसार जापान में 1,29,000 से अधिक की मृत्यु और अनगिनत घायल हुए। इन आंकड़ों को एकत्रित करने वालों से मैं क्षमा चाहता हूँ क्योंकि मेरे अनुसार ये आंकड़े अभी अधूरे हैं। मेरी समझ से इन मृतकों और घायलों के अतिरिक्त और भी तीन बहुमूल्य चीज़ें मरी हैं, घायल अथवा आहत हुई हैं, जिनके आंकड़े एकत्रित नहीं किये गये। सबसे पहला आंकड़ा है निर्भयता की मृत्यु का – क्या इसका आकलन किया जा सकता है? आप कहेंगे नहीं, मैं भी आपसे सहमत हूँ। लेकिन फिर भी एक बात बताता हूँ। कई बार पढ़ा-सुना है कि द्वितीय विश्वयुद्ध में परमाणु हथियारों के प्रयोग के कारण हिरोशिमा और नागासाकी में आज भी कई बच्चे विकलांग पैदा होते हैं। हालाँकि मेरा मानना है कि सिर्फ वहीँ नहीं बल्कि पूरी दुनिया में बच्चे आज भी परमाणु बमों के खौफ के साथ पैदा होते हैं और अगले न जाने कितने वर्षों तक यह भय नवजात शिशुओं में कायम रहेगा। दूसरा आंकड़ा जिसे एकत्रित नहीं किया गया वह है प्रकृति दोहन का। ऊर्जा का एक उपयोग है राकेट-कृत्रिम उपग्रह आदि का प्रक्षेपण। तीव्र वेग के कारण राकेट आदि पृथ्वी के वायुमंडल को भेदते हुए अन्तरिक्ष में जाने को समर्थ हैं और वही ऊर्जा यदि पृथ्वी पर विस्फोट करे तो वायुमंडल का कितना भेदन होगा? यह क्या सोचने योग्य नहीं है? तीसरा आंकड़ा है मानवीयता पर लगे घावों का। मन और मस्तिष्क दो अलग-अलग अस्तित्व हैं। मस्तिष्क भौतिक है और मन अभौतिक या कहें अतिसूक्ष्म। मानवीयता का सम्बन्ध मन से है। मन बड़ा होना चाहिये लेकिन कठोर नहीं। कठोर मन में नकारात्मकता बड़े आराम से स्थान बना सकती है। बहुत अधिक मृत्यु आधारित हाहाकार देख-सुनकर मन की कठोरता बढ़ेगी ही बढ़ेगी, जिसके दुष्परिणाम मानवता का हनन करेंगे या नहीं, यह आप स्वयं अंदाजा लगा सकते हैं। निर्भयता की मृत्यु, प्रकृति के घाव और मानवीयता के आहत होने से पहले परमाणु शक्ति ने किस तरह अपने पैर पसारे होंगे, यह कोई अधिक शोध का विषय नहीं है। परमाणु बमों के इतिहास को खंगालें तो आधुनिक युग में अमेरिका ने परमाणु बम का सबसे पहला परीक्षण 16 जुलाई 1945 को न्यू मेक्सिको में सवेरे 5:30 बजे किया था। फिर 1949 में सोवियत संघ ने, 1952 में ब्रिटेन ने, 1960 में फ्रांस, 1964 में चीन, 1974 में भारत और 1998 में पाकिस्तान ने अपना पहला परमाणु परीक्षण किया। लेकिन यदि हम भारत में परमाणु बमों के इतिहास के बारे में विचार करें तो यह तथ्य निःसंदेह विचारणीय है कि महाभारत, रामायण और अन्य शास्त्रों में वर्णित ब्रह्मास्त्र ही शायद आधुनिक परमाणु बम है। इसके कई प्रमाण भी विद्यमान हैं, जिनके बारे में हम आगे चर्चा करेंगे लेकिन यह माना जा सकता है कि भारत में परमाणु बम सदियों पहले भी अस्तित्व रहे होंगे। परन्तु भारतवर्ष के मूल में एक विचार यह भी है कि हम शक्ति संपन्न तो होते हैं लेकिन शक्ति का दुरुपयोग कर विनाश नहीं करते। पुरातन परमाणु बम अर्थात ब्रह्मास्त्र का प्रयोग करने से हमारे ही महापुरुषों और अवतारों ने मना किया था। हम आज भी याद रखते हैं श्रीकृष्ण का दिया वह ज्ञान, जब महाभारत में अर्जुन और अश्वत्थामा ने ब्रह्मास्त्र चलाया था तो उन्होंने रोक दिया था और अश्वत्थामा द्वारा ब्रहमास्त्र को पुनः लेने में असमर्थता जाहिर करने पर उसे भयंकर रोगों के साथ हजारों वर्षों तक भटकते रहने का श्राप दे दिया था। इसी प्रकार रामायण में भी राम-रावण युद्ध के दौरान मेघनाद को मारने के लिए लक्ष्मण ने ब्रह्मास्त्र के प्रयोग की श्रीराम से अनुमति मांगी थी और राम ने मना कर दिया था। उस समय राम ने कहा था कि ब्रह्मास्त्र के प्रयोग से लंका के न केवल कई निर्दोष व्यक्ति-पशु मारे जायेंगे बल्कि प्रकृति को भी बहुत क्षति होगी। उपरोक्त दोनों उदाहरणों से यह लगभग स्पष्ट ही है कि हजारों वर्ष पूर्व हमारा देश परमाणु शक्ति सम्पन्न था और इतने शक्तिवान होने के बावजूद भी हमारे पूर्वज इस तरह के अस्त्रों का प्रयोग उचित नहीं समझते थे। शक्ति होना आवश्यक है लेकिन उसका प्रयोग मानवता के विनाश के लिए नहीं वरन मानव और मानवता की रक्षा के लिए होना चाहिए। पुरातन कालों में यह विश्वास स्थापित होने के कारण आम व्यक्तियों में ना तो भय का माहौल था, ना ही प्रकृति के दोहन की स्थिति बनी और ना ही मानवता हताहत हुई। इसके विपरीत उन कालों में हम निर्भीक थे, प्रकृति का बेहतर सरंक्षण हुआ था और मानव मूल्य अधिकतर व्यक्तियों के गुण थे। महाभारत के अनुसार यदि दो ब्रह्मास्त्र आपस में टकरा जाते हैं तो प्रलय की स्थिति उत्पन्न हो जाती है, जिससे पूरी पृथ्वी के समाप्त होने का डर भी रहता है। महाभारत में वर्णित एक श्लोक है तदस्त्रं प्रजज्वाल महाज्वालं तेजोमंडल संवृतम। सशब्द्म्भवम व्योम ज्वालामालाकुलं भृशम। चचाल च मही कृत्स्ना सपर्वतवनद्रुमा।। अर्थात ब्रह्मास्त्र छोड़े जाने के पश्चात् भयंकर तूफ़ान आया था। आसमान से हज़ारों उल्काएं गिरने लगीं। सभी को महाभय होने लगा। बहुत बड़े धमाके साथ आकाश जलने लगा। पहाड़, जंगल, पेड़ों के साथ धरती हिल गई। यदि हम परमाणु हमले को याद करें तो यही सब कुछ तो हिरोशिमा और नागासाकी में भी हुआ था – तेज़ चमक फिर धमाका उसके बाद तूफ़ान और फिर आग ही आग। इस तथ्य के अतिरिक्त मोहनजोदड़ो की खुदाई के अवशेषों के परिक्षण के बाद यह प्राप्त हुआ कि कई अस्थिपंजर जिन्होंने एक-दूसरे के हाथ ऐसे पकड़े हुए थे जैसे किसी विपत्ति के कारण वे मारे जा रहे हों, उन पर उसी प्रकार की रेडियो एक्टिविटी पायी गयी जैसी रेडियो एक्टिविटी हिरोशिमा और नागासाकी के नरकंकालों पर एटम बम के पश्चात थी। इन सभी बातों से हम यह मान सकते हैं कि आदिकालीन सभ्यता में भी कहीं न कहीं परमाणु बम किसी न किसी रूप में उपलब्ध रहे होंगे। श्रीराम और कृष्ण की तरह ही चाहे परमाणु शक्ति संपन्न देश हो या परमाणु शक्तिहीन देश, परमाणु परीक्षणों और परमाणु बमों के निर्माण का समर्थन नहीं करता। हालाँकि महाशक्ति अमेरिका और अन्य कई देश परमाणु परिक्षण और बमों में कमी नहीं ला रहे हैं। 1998 के परमाणु परीक्षण के बाद भारत को कई अंतरराष्ट्रीय आर्थिक प्रतिबंधों का सामना करना पड़ा था लेकिन हम अपनी छवि को बेहतर करते हुए स्वयं को एक जिम्मेदार देश दर्शा पाने में सफल हुए हैं। लेकिन चूँकि हमें खतरा है परमाणु शक्ति सम्पन्न पडौसी देशों से, इसलिए 1998 में किया गया परमाणु परिक्षण केवल परमाणु परिक्षण न मानकर शक्ति प्रदर्शन भी माना जा सकता है। परमाणु बमों की वास्तविक संख्या के बारे में केवल परमाणु परीक्षणों के आधार पर ही अनुमान लगाया जा सकता है, जिसके अनुसार अमेरिका के पास 7500 से अधिक, रूस के पास लगभग 8500, फ़्रांस के पास 300, चीन के पास 250, ब्रिटेन के पास 225, पाकिस्तान के पास 100 से अधिक, भारत के पास 90-100 केम मध्य, इस्राईल के पास 80-100 और उत्तर कोरिया के पास 6 परमाणु बम हो सकते हैं। इन परमाणु बमों से धरती पर सैकड़ों बार जीवन को नष्ट किया जा सकता है। परमाणु निशस्त्रीकरण की वैश्विक मांग के बावजूद भी परमाणु बमों की संख्या बढती जा रही है। यह एक सत्य है कि परमाणु शक्ति है और इस शक्ति के दुरुपयोग ‘परमाणु बमों’ से संपन्न हम स्वयं को शक्तिशाली तो मान रहे हैं लेकिन यदि पडौसी देश पाकिस्तान और हमारे बीच कभी परमाणु युद्ध हो जाये तो उसकी भयावहता के बारे में भी थोड़ा विचार कर लें। यह बात राम या कृष्ण ने खुल कर नहीं कही क्योंकि उनकी बात मान ली गयी थी और हम हैं कि मान नहीं रहे। सच तो यह है कि यदि 65 किलोटन का एक परमाणु बम फैंका जाये तो कम से कम मरने वाले लोगों की संख्या 6,50,000 और घायलों की संख्या 15,00,000 से भी अधिक होगी। ज़रा सोचिये कि भारत और पकिस्तान के कितने शहर एक ही परमाणु बम से तबाह हो सकते हैं और उसी एक परमाणु बम से कितने ही पर्वत, पेड़ आदि सभी खत्म हो जायेंगे, कितने ही वर्षों तक बच्चे विकलांग पैदा होंगे, महामारियों की चपेट में रहेंगे। और अधिक कल्पना कीजिए कि यदि 100-100 परमाणु बम दोनों देश चला दें तो…? परमाणु शक्ति से संपन्न होना चाहे पुरातन इतिहास में भी मौजूद है लेकिन है तो हानिकारक ही और यह भी एक सत्य है कि परमाणु शक्ति संपन्न सभी देशों में से किसी की भी स्थिति अर्जुन की तरह नहीं बल्कि अश्वत्थामा की तरह है, एक बार यदि चल गया तो पुनः वापस नहीं ले सकते। मेरा मत है कि धरती के भविष्य पर मंडरा रहे इस खतरे के मद्देनज़र हमें सभी परमाणु बमों और परमाणु बम से भी अधिक खतरनाक हाइड्रोजन बमों को कहीं सुदूर अन्तरिक्ष में ले जाकर शून्य में फैंक देना चाहिये। ताकि उल्का पिंडों, धूमकेतुओं आदि से टकरा कर वे वहीँ नष्ट हो जाएँ। धरती पर मानव हैं-पशु हैं-पेड़-पौधे आदि प्रकृति प्रदत्त जीव हैं, इनको बचाने के लिए इन बमों और अन्य किसी भी तरह की विनाशकारी शक्तियों को समूल नष्ट करना बहुत आवश्यक है। साथ ही हम सभी के लिए आवश्यक है कि इनको समूल नष्ट करने के लिए अपनी आवाज़ बुलंद करें। ज़रा सोचिए परमाणु शक्ति संपन्न देश परमाणु उर्जा का विकास कार्यों में उपयोग करें तो क्या कुछ नहीं किया जा सकता? – डॉ. चंद्रेश कुमार छ्तलानी
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राजेन्द्र यादव का जन्म 28 अगस्त 1929 को उत्तर प्रदेश के आगरा जिले में हुआ था। शिक्षा भी आगरा में रहकर हुई। बाद में दिल्ली आना हुआ और कई व्यापक साहित्यिक परियोजनाएं यहीं सम्पन्न हुईं। देवताओं की मूर्तियां, खेल-खिलौने, जहां लक्ष्मी कैद है, अभिमन्यु की आत्महत्या, छोटे-छोटे ताजमहल, किनारे से किनारे तक, टूटना, अपने पार, ढोल तथा अन्य कहानियां, हासिल तथा अन्य कहानियां व वहां तक पहुंचने की दौड़, इनके कहानी संग्रह हैं। उपन्यास हैं-प्रेत बोलते हैं, उखड़े हुए लोग, कुलटा, शह और मात, एक इंच मुस्कान, अनदेखे अनजाने पुल। ‘सारा आकाश,’‘प्रेत बोलते हैं’ का संशोधित रूप है। जैसे महावीर प्रसाद द्विवेदी और ‘सरस्वती’ एक दूसरे के पर्याय-से बन गए वैसे ही राजेन्द्र यादव और ‘हंस’ भी। हिन्दी जगत में विमर्श-परक और अस्मितामूलक लेखन में जितना हस्तक्षेप राजेन्द्र यादव ने किया, दूसरों को इस दिशा में जागरूक और सक्रिय किया और संस्था की तरह कार्य किया, उतना शायद किसी और ने नहीं। इसके लिए ये बारंबार प्रतिक्रियावादी, ब्राह्मणवादी और सांप्रदायिक ताकतों का निशाना भी बने पर उन्हें जो सच लगा उसे कहने से नहीं चूके। 28 अक्टूबर 2013  अपनी अंतिम सांस तक आपने  हंस का संपादन पूरी निष्ठा के साथ किया। हंस की उड़ान को इन ऊंचाइयों तक पहुंचाने का श्रेय राजेन्द्र यादव को जाता है।

उदय शंकर

संपादन सहयोग
हंस में आई  कोई भी रचना ऐसी नहीं होती जो पढ़ी न जाए। प्राप्त रचनाओं को प्रारम्भिक स्तर पर पढ़ने में उदय शंकर संपादक का   सहयोग करते  हैं । 
हिंदी आलोचक, संपादक और अनुवादक उदय शंकर जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से पढ़े हैं। उन्होंने कथा-आलोचक सुरेंद्र चौधरी की रचनाओं को तीन जिल्दों में संपादित किया है। ‘नई कहानी आलोचना’ शीर्षक से एक आलोचना पुस्तक प्रकाशित।
उत्तर प्रदेश के बनारस जिले के लमही गाँव में 31 अक्टूबर 1880 में जन्मे प्रेमचंद का मूल नाम धनपतराय था।पिता थे मुंशी अजायब राय।शिक्षा बनारस में हुई। कर्मभूमि भी प्रधानतः बनारस ही रही। स्वाधीनता आंदोलन केनेता महात्मा गांधी से काफी प्रभावित रहे और उनके ‘असहयोग आंदोलन’ के दौरान नौकरी से त्यागपत्र भी देदिया। लिखने की शुरुआत उर्दू से हुई, नवाबराय नाम से। ‘प्रेमचंद’ नाम से आगे की लेखन-यात्रा हिन्दी में जारी रही। ‘मानसरोवर,’ आठ खंडों में, इनकी कहानियों का संकलन है और इनके। उपन्यास हैं सेवासदन, प्रेमाश्रम, निर्मला, रंगभूमि, कायाकल्प, गबन, कर्मभूमि, गोदान और मंगल सूत्र (अपूर्ण)। 1936 ई. में ‘गोदान’ प्रकाशित हुआ और इसी वर्ष इन्होंने लखनऊ में प्रगतिशील लेखक संघ’ की अध्यक्षता की। दुर्योग यह कि इसी वर्ष 8 अक्टूबर को इनका निधन हो गया। जब तक शरीर में प्राण रहे प्रेमचंद हंस निकालते रहे। उनके बाद इसका संपादन जैनेन्द्र,अमृतराय आदि ने किया। बीसवीं सदी के पांचवें दशक मेंयह पत्रिका किसी योग्य, दूरदर्शी और प्रतिबद्धसंपादक के इंतजार में ठहर गई, रुक गई।

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संजय सहाय लेखन की दुनिया में एक स्थापित एवं प्रतिष्ठित नाम है। साथ ही वे नाट्य निर्देशक और नाटककार भी हैं. उन्होंने रेनेसांस नाम से गया (बिहार) में सांस्कृतिक केंद्र की स्थापना की जिसमें लगातार उच्च स्तर के नाटक , फिल्म और अन्य कला विधियों के कार्यक्रम किए जाते हैं.