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पत्ते पीले पड़ गए

पत्ते पीले पड़ गए

समय से समर में, ये बूढ़ा भी हार गया आज… पत्त्ते पीले पड़ गए इसके… जब छोटा था मैं, ये भी मेरे जैसा ही था। साथ बड़े हुए हम। पर आज इसके सामने तिनके जैसा हूँ मैँ। इतना विशाल होकर भी काँप रहा ये आज… पत्ते पीले पड़ गए इसके… इसने हर मौसम की मार झेली है। अपने सौतेले भाई को मरते हुए भी देखा है इसने। बस देख न सका ये अंत अपना.. पत्ते पीले पड़ गए इसके… कभी सुनाता था अपनी मजबूती के किस्से मुझको। आज मेरा ही सहारा ढूंढ रहा है। पक्षी भी अनाथ कर चल दिए इसको। दीमकों को अब ये किराया दे रहा है… पत्ते पीले पड़ गए इसके… लोग अपना चूल्हा तैयार कर रहे हैं। आज बोली लगने वाली है इसके शरीर की। शायद गोद लेना चाहते हैं इस अनाथ को। पर क्या वो जानते नहीं….. पत्ते पीले पड़ गए इसके….
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सरनेम

सशक्तिकरण का बीजारोपण

सरकारी बैंक में कार्यरत सुयश कुमार के स्थानंतरण के दो महीने हो चुके थे, परंतु किराये का मकान उसे अभी तक नहीं मिला था, जबकि उसने यहाँ ज्वाइन करते ही सभी सहकर्मियों, वेंडरों व खास ग्राहकों को मकान खोजने के लिये कह दिया था । सुबह की हवा थी इसलिये ठंढक महसूस हो रही थी । आर के त्रिपाठी ने चाय की अंतिम घूंट ली और पाठक जी के घर की ओर चल पड़ा, उसने सुयश कुमार को जल्द ही मकान खोजने का आश्वासन दिया था । उसे पता चला था कि पाठक जी के मकान के उपर के तल का हिस्सा खाली था । “ पाठक जी, आपके घर के उपर वाला हिस्सा खाली है क्या ? हमारे कर्यालय में एक अधिकारी आयें हैं, उनके लिये किराये की एक मकान की आवश्यकता है ।“ उसने लगभग प्रश्न पूछते हुए कहा था । ” हाँ.., हाँ, खाली तो है । आप चाहे तो दिखा सकते हैं, लेकिन कैसे हैं वे…? मांस-मच्छी खाने वाले तो नहीं है ? क्योंकि हम लोग शुद्ध शाकाहरी हैं और पवित्रता से रहने वाले हैं । “ ठीक है, हम उनसे पूछ कर बताते हैं । उपर के पोर्सन में क्या क्या है ? दो रुम तो होंगे न ?” “ हाँ, हाँ, दो रुम, एक किचेन, एक ट्वाइलेट एवं बाथ रुम भी है । “ अगले दिन जब आर के त्रिपाठी पुन: पाठक जी के पास पहुँचा तो पाठक जी ने पूछ ही लिया, “ अच्छा यह बताइये कि आपके अधिकारी का नाम क्या है ? “ नाम तो सुयश कुमार है । “ “ आगे क्या लिखते हैं ? “ “ आगे… , माने सरनेम..? टाइटिल ? “ ” हाँ.., हाँ, वही । “ “ वह तो पता नहीं.., सरनेम नहीं लिखते हैं । “ “ अच्छा तो इसका मतलब है कि वह निम्न जाति के हैं…, उन लोगों को मकान नहीं देना है…, उन लोगों का क्या भरोषा… ? मांस-मच्छी तो खाते ही होंगे…, उनके पास कोई आचार- विचार नहीं होता…, धर्म भ्रष्ट नहीं करवाना है…। “ पाठक जी ने मकान देने से मना कर दिया । आर के त्रिपाठी ने सीधे असली बात सुयश कुमार से नहीं बताई, उसने छिपाते हुए कहा कि पाठक जी के यहाँ मकान खाली तो है, परंतु उनके घर में शादी होने वाली है इसलिये वह अभी नहीं देना चाहते । मकान के लिये सुयश कुमार जहाँ भी जाता, माकान मालिक उससे उसका सरनेम अवश्य पूछता, यदि सीधे तरीके से पता नहीं चलता तो बात घुमाकर जानने की कोशिश करता, उसके पिता का नाम पूछ कर या कोई अन्य बहाने…, । जब उसे पता चल जाता कि वह निम्न जाति से हैं तो वह मकान देने से इंकार कर देता । वह उच्च शिक्षा प्राप्त एम बी ए था, परंतु उससे कोई नहीं पूछता की आपकी योग्यता क्या है ? आप इतनी कम उम्र में कैसे तरक्की कर शाखा प्रबंधक बन गये हैं ? लोग यही समझते कि आरक्षण की वजह से ही उसे नौकरी एवं प्रोन्नति मिली है। वह बचपन से ही सुनता आ रहा था कि जाति-पाति की मूल वजह अशिक्षा और अज्ञानता है, आधुनिक शिक्षा के अभाव में यह सब फल-फूल रहा है, जैसे ही लोग शिक्षित होंगे, जाति-पाति स्वत: ही समाप्त हो जायेगी, लेकिन अब उसे यह महसूस होने लगा था कि यह समाप्त होने वाली नहीं है। पढे-लिखे लोग भी परंपरा के नाम पर मानसिकता बदलने को तैयार नहीं हैं, वे आधुनिक शिक्षा को केवल धनोपार्जन का माध्यम समझते हैं और पारंपरिक रुढ़िवादी  आचार-व्यवहार को संस्कार । उसने एक तरकीब सोची, अब वह जहाँ भी मकान खोजने जाता तो पहले सरनेम बताता, उसके बाद यह कहता कि वह एक साल का किराया एडवांस में देने को तैयार है और मांस-मच्छी भी नहीं खाता है । यह बात सुनकर कई मकान मालिक उसे गंभीरता से लेने लगे । एक साल का किराया एडवांश यनि बड़ी रकम और बड़ी रकम के लिये मुँह से लाड़ टपकना स्वभाविक था । अब उनके सामने धर्म भ्रष्ट होने वाली बात नहीं थी क्योंकि बड़ी रकम से बड़ा काम हो सकता था, किसी के बच्चे के लिये कॉलेज की फीस हो सकती थी, किसी के अधूरे मकान का काम पूरा हो सकता था तो किसी के घर में कोई वाहन या बाइक आ सकती थी । मकान मालिक अब बुला-बुला कर उसे मकान दिखाता, यदि वह उसमें कोई कमी बताता तो वह उसे तुरत ठीक कराने की बात करता । दो तीन दिनों में ही उसके सामने कई किराये के मकान उपलब्ध हो गये थे, परंतु अब उसके सामने यह समस्या उत्पन्न हो गयी कि वह कौन-सा मकान ले क्योंकि उसके दिमाग में रह-रहकर धर्म भ्रष्ट होने वाली बात घुमड़ने लगती थी । एक दिन जब वह कार्यालय से मार्केट की ओर जा रहा था, लगभग आधे किलोमीटर जाने के बाद उसे एक मकान दिखाई दिया, जिसके उपर के तल का हिस्सा खाली दिख रहा था । आते-जाते हुए इस मकान पर पहले भी उसकी नजर पड़ चुकी थी । वह उस मकान के पास गया और दरवाजा खटखटाया । उसने मकान मालिक से सर्वप्रथम अपना सरनेम बताया, उसके बाद आगे की बात कहने ही जा रहा था कि मकान मालिक मुस्करा उठा । दरअसल मकान मालिक भी उसी की जाति ( निम्न जाति ) का था, जिसके यहाँ खाने-पीने पर किसी प्रकार की पाबन्दी नहीं थी और न ही किसी प्रकार का धार्मिक भेद-भाव था । मकान मालिक ने कहा—अभी उपर का तल तैयार नहीं है, प्लास्टर कराना बांकी है, इसलिये किराये पर नहीं दे सकता। उसने कहा—कोई बात नहीं, मैं आपको एक साल का किराया एडवांस दे रहा हूं, आप जल्दी से प्लास्टर का काम पूरा करवा लीजिये । मैं आपके मकान में किराये पर रहना चाहता हूँ । उसने अगले ही दिन एडवांस का रुपैया उसे दे दिया । मकान मालिक पहले तो आश्चर्य चकित हुआ, लेकिन एडवांस पाकर खुश हो गया । उसने शीघ्रता से उपर के तल का कार्य करवाया । सुयश कुमार ने सोचा—चलो अच्छा हुआ, दकियानूसी विचार वालों के मकान में रहने से अच्छा है खुले विचार वालों के मकान में रहना, मैं अब स्वतंत्रता पूर्वक रहुंगा और इच्छानुसार मांस-मच्छी भी खाउंगा । MANOJ MANZUL Email: manoj.m9k@gmail.com
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काफिर बच्ची

काफिर बच्ची

काफ़िर लड़की पौ फटने वाली थी, पर अँधेरे ने रात का दामन अभी भी नहीं छोड़ा था। उन दोनों  के बार्डर पार करने का यही सबसे मुफीद वक्त था, जब फौजी दरयाफ्त कम से कम होती थी। हाड़ कंपाती ठंड मे एक ने दूसरे से पूछा – “अमजद, तूने सच मे गोली मारी थी उस लड़की को ?” दूसरे ने ठंडे स्वर मे कहा -“हाँ शुबेह, तुम्हें शक क्यों  है ? ये मेरी अहद थी, सो मैंने किया। ” शुबेह को उस पर यकीन न हुआ उसने पूछा,-“पर तू तो कह रहा था कि उस लड़की ने तुझे फौजियों से उस रात छुपाया था, फिर कत्ल कैसे किया तूने उसका ? हाथ न काँपा तेरा ?” अमजद झल्लाते हुए बोला-  “जिबह नहीं किया था उसको, हलाली नहीं करनी थी। दूर से गोली चलानी थी, सो चला दी। हम ऐसे मुजाहिद  हैं जो गोली चलाते वक्त ये नहीं सोचते कि यह गुनाह है या सवाब । फिर  क्या हिचक ?” शुबेह अमजद का लीडर था। उसी की गवाही पर अमजद को पगार मिलनी थी। शुबेह ने मोबाइल निकालकर अपने आका को इत्तला देनी चाही कि मुजाहिद ने कत्ल करके सवाब का काम किया है, सो उसकी पगार दे दी जाए। अमजद भी यही सोच रहा था कि शुबेह आकाओं को खबर कर दे तो उसके घर पैसे पहुँच  जाए और उसकी बीमार बेटी का इलाज जारी रह सके। शुबेह ने मोबाइल आन किया, मगर उसका दिल खटका। उसने फिर पूछा-  “सच-सच बता अमजद, खा अल्लाह की कसम कि तूने उस लड़की को गोली मारी थी।  अल्लाह की झूठी कसम का नतीजा जानता है ना”। अमजद की आँखों से आँसू  बहने लगे। वो बिलखता हुआ बोला “मेरी बेटी बीमार है, इसीलिए अल्लाह कसम मैने उस काफिर बच्ची को गोली मार दी थी, अल्लाह बेहतर जानता है” ये कहते हुए उसका गला रूंध गया। शुबेह ने मोबाइल पर इत्तला दे दी कि मुजाहिदीन अमजद की पगार उसके घर पहुँचा दी जाए क्योंकि उसने सवाब का काम कर दिया है। ये खबर शाया करने के बाद शुबेह की आँख भी नम थी।  वो दोनों  जानते थे कि काफिर बच्ची मरी नहीं होगी। समाप्त दिलीप कुमार
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ग़ज़ल

ग़ज़ल

क़ुरबतों की रुत सुहानी लिख रहा है बात वो सदियों पुरानी लिख रहा है साहिलों की रेत पर मौजों से आख़िर कौन हर लम्हा कहानी लिख रहा है पत्थरों के शह्र से आया है क्या वो मौत को जो ज़िंदगानी लिख रहा है शोर साँसों का मचाकर हर बशर क्यूँ अपने होने की निशानी लिख रहा है उम्र भर था जो रहा भरता ख़ज़ाने ज़िन्दगी को आज फ़ानी लिख रहा है अस्ल में बेरंग करता है धरा को लिखने को बेशक़ वो धानी लिख रहा है है यही तासीर चाहत की ‘सिफ़र’ क्या आग को भी दिल ये पानी लिख रहा है
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Ghazal

Ghazal

बलजीत सिंह बेनाम ग़ज़ल जब मोहब्बत से भरे ख़त देखना भूल कर भी मत अदावत देखना साँस लेते लेते दम घुटने लगे इस क़दर भी क्या अज़ीयत देखना मसअला दुनिया का छेड़ो बाद में पहले अपने घर की इज्ज़त देखना ज़हन से जो हों अपाहिज़ आदमी वो मोहब्बत में सियासत देखना झूठ को सच में बदलते किस तरह ये कभी आकर अदालत देखना
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अंततः मिटटी में विलीन होना है मुझे भी

अंततः मिटटी में विलीन होना है मुझे भी

पाषाण काल से अब तक, तुम ही हो जो मेरे साथ रहे हो। तुम ही हो जिसने, सिंधु नदी की गोद में, मुझे और मेरे पूर्वजो को आश्रय दिया। बाढ़ और सूखे से रक्षा करके, तुम बन गए मेरे स्वामी, तेरे पसीने ने , नमकीन बनाया मुझे, और तेरे बैलो ने, मेरे पाताल को मेरा आकाश बना दिया, तुमने मेरे जीवन को हरियाली दी, लोग भले तुम्हे किसान कहे, पर खेतो ने तुम्हे स्वामी ही माना है। अरे नही नही! मैं समझ नही पाता, मैंने तुम्हारी रक्षा की या तुमने मेरी। मैं भटकता फिरता था जब, भोजन की तलाश में, तुमने मुझे अन्न दिया, और स्थायित्व दिया मेरे जीवन को। तुमने मृदा दी मेरे बैलो को, श्रम करने के लिए। और हाँ! मेरी लाड़ली बिटिया है ना, जो मुझे मट्ठा और गुड़ देने आती थी धूप में, उसके हाथ भी तो तुमने ही पीले किये। तो मैं स्वामी नही, साझेदार है हम दोनों एक दूसरे के, और अंततः मुझे भी मिल जाना है, तुम में ही मिटटी होकर,!!
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अधूरा ख्वाब

अधूरा ख्वाब

एक आहट-सी सुनी थी मैंने पीछे मुड़ के देखा भी था … वहां उस वक्त तो कोई नहीं था पर उस आहट में कुछ तो दिखा था, शायद सिर्फ़ एक परछाई या महज़ एक कल्पना मात्र या शायद किसी का वो अधूरा ख्वाब जो उस अंधेरी रात में भी कहीं कोने में बैठा जुगनू की तरह चमक रहा था ।।
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बोरे में सोना

बोरे में सोना

वैसे तो मैं और मेरा परिवार अब शहर में ही रहता हैं, पर कुछ न कुछ काम से अक्सर हम गाँव जाते रहते हैं। मुझे गाँव में जाना बहुत ही अच्छा लगता हैं। गाँव में जाकर बड़ा सुकून, बड़ी शांति मिलती हैं। ना व्यापार की चिंता, ना ग्राहकों के फोन। मुझे यदि दो विकल्प दिए जाए कि सात दिन के लिए तुम्हें विदेश घूमने जाना हैं या गाँव, तो मैं अपने गाँव को ही चुनुँगा। कुछ खास बात होती हैं अपनी मातृभूमि की, जहाँ आपने जन्म लिया, जहाँ आपका बचपन बीता, जहाँ आप स्कूल गए। घर वाले अक्सर पूछते हैं अब तो गाँव खाली होता जा रहा हैं फिर भी तुझे वहाँ जाना क्या अच्छा लगता हैं? बात भी सही हैं, आज करीबन हमारे गाँव की पचास  फ़ीसदी आबादी शहर में रह रही हैं। लेकिन फिर भी मुझे तो गाँव की सुनी गलियाँ भी अच्छी लगती हैं। मैं हर गली में दिन में एक बार तो अवश्य ही चक्कर लगाता हूँ। जो बहुत ज्यादा पुराने मकान हैं उनको विशेष रूप से निहारता हूँ। उन मकानों के बाहर उनके बनने का साल लिखा हुआ होता हैं तो मेरा मन अतीत में चला जाता हैं। ज्यादातर मकान तो मेरे जन्म से भी बहुत पुराने बने हुए हैं। हमारा मकान भी करीबन मेरे जन्म से दस साल पहले बना हुआ हैं। संक्षेप में कहूँ तो मुझे उस सुनेपन में भी यादों के जरिए एक भीड़ दिखाई देती हैं।                इस बार गाँव में मैं पाँच दिन रुका। पाँचवे दिन शाम को रेलवे स्टेशन आया जो पास ही के गाँव में हैं। थोड़ी देर बाद रेलगाड़ी आ गई। मैं अपनी सीट पर जा पहुँचा। वहाँ पर श्याम बाबू पहले से बैठे हुए थे। श्याम बाबू और मैं एक ही शहर में रहते हैं और उनका गाँव भी मेरे गाँव के पास ही हैं। बड़े सहृदय व्यक्ति हैं। मेरे बड़े भाई के अच्छे मित्र हैं। महीने में एक दो बार अवश्य मुलाकात हो जाती हैं। उम्र में मुझसे करीबन बारह साल बड़े होंगे। पारिवारिक रिश्ते अच्छे हैं,  मैं उन्हें बड़ा भाई मानता हूँ और वे मुझे छोटा भाई। वह बड़ों के साथ बड़े हो जाते हैं और छोटो के साथ छोटे। मुझे देखते ही बोले- श्याम बाबू :- तुम गाँव कब आए? मैं :- (उनके पैर छूते हुए बोला) मुझे तो पाँच दिन हो गए, आप कब आए? श्याम बाबू :- मैं दो दिन पहले आया था, पहले सामान सीट के नीचे रख दो फिर आराम से बात करते हैं। मैं :- जी।               मैंने अपना सामान सीट के नीचे रखा। सामान में एक अटैची, एक बैग और एक बोरा था। श्याम बाबू ने जब मेरा तीसरा सामान भरा हुआ बोरा देखा तो मन में विश्वास नहीं हुआ कि आजकल का युवा ऐसे बोरे में सामान लेकर जा सकता है? यदि मेरे स्थान पर किसी बुजुर्ग व्यक्ति का यह बोरा होता तो उनका मन कोई प्रश्न नहीं उठाता। मैंने उनकी तरफ ध्यान से देखा तो मैं समझ गया कि बोरे को देखकर श्याम बाबू कुतूहल से भीग रहे हैं। एक तरफ उन्होंने मुझे और मेरे पहियों वाले दो सामान को तो जोड़ी के रूप में स्वीकार किया, पर जैसे ही मेरे तीसरे सामान को देखा तो फिर उनके मस्तिष्क पर विस्मय की रेखाएं उभर आई कि आखिर क्यों मैंने उस बोरे में सामान भरना उचित समझा। आखिरकार उनसे रहा नहीं गया और मुझसे पूछा- श्याम बाबू :-  इस बोरे में क्या सामान भरा हैं? मैंने दूसरे लोगों की नजर बचाकर अपने मुँह पर उंगली रखकर इशारा किया और अपनी सीट से उठकर श्याम बाबू के पास जा बैठा और उनके कान के पास जाकर धीरे से कहा। मैं :- इस बोरे में हमारे पुरखों का सोना हैं। एक क्षण को श्याम बाबू स्तब्ध हो गए दूसरे क्षण उनकी मुखाकृति बड़ी विचित्र हो गई। फिर अपनी भौहें ऊपर से नीचे करते हुए हाँ के इशारे में सिर हिलाया। शब्द अभी भी उनके मुख से निकलने में असमर्थ थे। एक मिनट के पश्चात मेरे कान के पास आकर धीरे से बोले- श्याम बाबू :- इतना कीमती सामान इस तरह बोरे में! मैं :- इस तरह से ले जाना सुरक्षित हैं। पर वे नहीं माने उन्होंने कहा- श्याम बाबू :- ऐसा कीमती सामान लोग छोटी पेटी या संदूक में भरते हैं, फिर उस पर एक छोटा ताला लगाते हैं। फिर उसे अटैची में कपड़ों के बीचो-बीच रखते हैं, अटैची पर उससे थोड़ा बड़ा ताला लगाते हैं और सोने से पहले सीट के नीचे एक जंजीर द्वारा अटैची को एक बड़े ताले से बांध कर ले जाते हैं। मैं :- इतना तामझाम करने से ही तो ट्रेनों में से अक्सर कीमती वस्तुओं की चोरियां होती है। जब चोर अटैची पर ताला और उसको भी जंजीर से बांधा हुआ देखते हैं तो उन्हें पता चल जाता हैं कि इसमें कुछ ना कुछ कीमती सामान हैैं। (मैंने उन्हें उदाहरण देकर समझाया) यदि कल मैं अपनी अटैची या बैग गाड़ी में भूल कर घर चला जाऊँ और यदि आधे घंटे बाद वापस आकर देखुु तो मुझे अपना सामान वहाँ नहीं मिलेगा लेकिन अगर मैं यह बोरा भूल जाऊँ और एक घंटे बाद भी आकर देखु तो यह सामान यही मिलेगा। ऐसे साधारण से बोरे को भला कौन लेकर जाएगा? मेरे तर्क से श्याम बाबू सहमत हो गए कुछ देर बाद टीटी आया श्याम बाबू की नजरें अभी भी बोरे पर थी दो बार टीटी द्वारा मांगे जाने पर उन्होंने अपना टिकट दिखाया और आई कार्ड तीसरी बार में, दो बार तो उन्होंने बैंकों के एटीएम कार्ड ही थमा दिए थे। कुछ देर श्याम बाबू ने कहा- श्याम बाबू :- सुबह मेरा भाई मुझे स्टेशन लेने आएगा मेरे साथ ही चलना घर पर छोड़ दूंगा और तुम्हारे पुरखों का सोना भी देख लूँगा। मैं :- अच्छी बात है।             फिर कुछ देर बैठ कर सबने सोने का निर्णय लिया। आठ लोगों के कंपाउंड में कुल पाँच ही लोग थे। मुझे तो सोते ही नींद आ गई। सवेरे नींद खुली तो शहर आ चुका था। ट्रेन प्लेटफार्म पर खड़ी थी लगभग यात्री उतर चुके थे। मैंने उठकर देखा तो श्याम बाबू डिब्बे में नहीं थे। खिड़की से प्लेटफार्म पर नजर दौड़ाई तो वहाँ भी नहीं दिखे। सोचा नीचे उतर कर आराम से देखता हूँ। सीट के नीचे से अपनी अटैची और बैग निकाला फिर बोरा लेने के लिए हाथ घुमाया बोरा हाथ में नहीं आया। नीचे बैठकर देखा तो बोरा नदारद था। मैं आश्चर्यचकित हो गया इतना साधारण सा बोरा कौन चुरा ले गया। श्याम बाबू की एक छोटी सी थैली जरुर पड़ी थी। वे अपने पास मोबाइल नहीं रखते हैं। इसे अपनी शांति का वे परम शत्रु मानते हैं। अब उनसे संपर्क करने का कोई दूसरा रास्ता नहीं था। मैं उनकी थैली और अपना दूसरा सामान लेकर नीचे उतरा। स्टेशन से बाहर आया वहाँ भी श्याम बाबू को ढूंढा नहीं मिले। कल तो ट्रेन में बता रहे थे मुझे लेने मेरा भाई आएगा तुम मेरे साथ ही चलना तुम्हें घर छोड़ दूँगा, पर मेरी बचत जाती रही। रिक्शा किया घर पहुँचा। करीबन डेढ़ घंटे बाद घंटी बजी, दरवाज़ा खोला तो श्याम बाबू हाथ में बोरा लिए खड़े थे। मैं कुछ बोलू इससे पहले ही अंदर आते हुए वे बोल उठे- श्याम बाबू :- शहर से एक स्टेशन पहले जैसे ही गाड़ी रुकी एक चोर तुम्हारा बोरा उठाकर भागने लगा। शायद उसे हमारी बातों से पता चल गया था कि  इस बोरे में कुछ कीमती सामान है मेरी आँख खुली तो मैं चोर-चोर बोलते हुए पीछे भागा। तुम तो जैसे घोड़े बेच कर सो रहे थे। मैं :- तो आप वापस ट्रेन में नहीं चढ़े? श्याम बाबू :- चढ़ता कैसे, चोर के पीछे कौन भागता? वह प्लेटफार्म की तरफ ना उतरकर पटरी की तरफ उतरा और भागने लगा। मैं उससे काफी पीछे था पर रुका नहीं। वो कोई पेशेवर चोर नहीं था जो इतना भारी बोरा उठाकर बहुत ज्यादा भाग सके। वह शायद हमारे डिब्बे का ही कोई आदमी था और शायद उसे हमारी बातचीत से शक हुआ होगा कि इस बोरे में कुछ कीमती सामान हैं। आखिर रुक कर उसने थोड़ा सोना लेकर भागने की सोच कर बोरे को खोलकर उसमें टटोलने लगा। भोर का समय था मुझे नहीं पता कि उसने कुछ लिया या नहीं पर जब मैं करीब गया तो वहाँ से भाग खड़ा हुआ। मैंने बोरे के अंदर झांका तो मुझे मिट्टी दिखाई दी पर मैंने वहाँ छानबीन करना उचित नहीं समझा। उसे वापस रस्सी से बांधकर प्लेटफार्म पर ले आया। यह गाड़ी तो निकल चुकी थी आधे घंटे बाद की गाड़ी में बैठ कर सीधा रिक्शा पकड़ कर यहाँ आया हूँ। अब जल्दी से मुझे अपना सोना दिखाओ।  मैं :- सोना तो आपने देख लिया हैं। श्याम बाबू  :- मैं कुछ समझा नहीं सही से बताओ। मैं :- ये मिट्टी ही सोना हैं । (मैं बोरे को खोलते हुए बोला) उन्होंने व्यंग्य पूर्वक कहा- श्याम बाबू :- सोने की खान से लाया हैं क्या? मैं :- नहीं अपने गाँव के खेत से। श्याम बाबू :- इसका क्या करेगा? मैं :- घर में दो गमले लगाने हैं। श्याम बाबू :- पागल हो गए हो क्या मिट्टी तो यहाँ पर भी मिल जाती। मैं :- आपकी बात सच हैं पर मेरे लिए ये मिट्टी सोने से कम कीमती नहीं हैं। श्याम बाबू :- ऐसी क्या खास बात हैं इस मिट्टी में? मैं :- इस मिट्टी में मेरे गाँव की खुशबू हैं, इस मिट्टी में मेरे खेत और मेरे पिता की यादें हैं, जहाँ कभी वो खेती किया करते थे, इस मिट्टी पर बैठकर ही भोजन किया करते थे, रात को धान की रखवाली करने वही पर सो जाया करते थे, और यही वह मिट्टी हैं जिसकी उपज से उस वक्त हमारा घर चलता था। इतना कहते-कहते मेरा गला भर आया और श्याम बाबू की आँखे। उन्होंने खड़े होकर मुझे अपने गले से लगा लिया और कहा- श्याम बाबू :- अभी जब मैं यहाँ आया तो मैं समझ रहा था कि मैं तुम्हारा सोना लेकर आया हूँ, जब तुमने कहा कि इसमें मिट्टी हैं तो मुझे लगा कि मैं तो सिर्फ धूल ही लेकर आया हूँ पर अब मुझे लगता है कि वास्तव में तो मैं खजाना लेकर आया हूँ।                                                                                                                      विनोद जैन
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‛अपने अंदर के राम को जीवित करें’

‛अपने अंदर के राम को जीवित करें’

हर बार की तरह इस बार भी दशहरा पूरे देश में हर्षोल्लास के साथ मनाया जा रहा है। रावण के बड़े-बड़े पुतले बनाए जा रहे हैं। ऐसा प्रतीत हो रहा है कि मानों भारी-भरकम शरीर वाले रावण की मुखाकृति हम पर अट्ठाहास करती हुई कह रही हो, कि तुम सब मुझे अपने हृदय से नहीं निकाल पाओगे। मैं यूं ही हर वर्ष आऊंगा। हर वर्ष तुम मुझे जलाओगे। लेकिन मुझे मार नहीं पाओगे। अगली बार पुनः उसी सम्मान के साथ दोबारा खड़ा होकर हमारी नादानियों पर ठहाका लगाते हुए पूछेगा – मैं अधर्मी, अन्यायी, पथभ्रष्ट, राक्षस कुल का अवश्य हूं, पर मुझे मारने वाली लाखों-करोड़ों की भीड़ में क्या कोई राम है? या कोई ऐसा जिसमें राम जैसी शक्ति, सामर्थ्य और पुरुषत्व हो। हम निरुत्तर हो जाते हैं! इस आत्मग्लानि से बचने का एक रास्ता है! हमें अपनी भाषा में थोड़ा परिवर्तन करने की आवश्यकता है। यदि हम आम-जन से पूछे कि दशहरा का उद्देश्य क्या है, या हमें अपने अंदर क्या परिवर्तन करना चाहिए? इसका जवाब एक नई नपी-तुली सीधी और सपाट भाषा में देता हुआ यही कहेगा, कि सबसे पहले ‘अपने अंदर के रावण को मारो’ और अगर कोई बौद्धिक व्यक्ति है तो वह इसे अभिधात्मक रूप में कहेगा कि ‘रावण को मारने का अर्थ अपने अंदर की बुराई को मारो!’ हजारों वर्षों से हम रावण को जलाते आ रहे हैं और आने वाले हजारों वर्ष तक जलाते रहेंगे। हम भाषा में एक सामान्य सा परिवर्तन करके समाज को एक सकारात्मक दिशा दे सकते हैं। कैसे? आज से ‘अपने अंदर के रावण को मारो’ की बजाय ‘अपने अंदर के राम को जीवित करो’ कहने की परंपरा का विकास करना चाहिए। रावण बुराई का प्रतीक है और वह सभी के अंदर मौजूद है। ठीक उसी प्रकार राम अच्छाई के प्रतीक हैं वह भी सभी के अंतर्मन में स्थापित हैं, बस जरूरत है तो उनको हमें फलने-फूलने का मौका देने की। जिससे समाज के आत्मिक विकास को सकारात्मक दिशा मिलेगी। आपसे अनुरोध है कि इस बार आप भी ‘अपने अंदर के राम को जीवित करें!’ तभी दशहरा सफल होगा। दशहरा की अनंत शुभकामनाएं।
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देशभक्त नेता बनना चाहते हो??

देशभक्त नेता बनना चाहते हो??

नमस्कार, अगर आप राजनीति .में रुचि रखते है और एक देशभक्त नेता बनना चाहते है तो बिल्कुल सही जगह पर आए है , आज हम सीखेंगे कैसे आप अपना नाम एक देशभक्त नेता में बेशुमार कर सकते है तो चलिए बिना किसी देरी के शुरू करते है देशभक्त नेता बनने के लिए सबसे महत्वपूर्ण बात जिसके बिना आप देशभक्त नेता बनने की सोच भी नहीं सकते वो है आपका या आपके घर में किसी का बाहुबली होना, अगर आप अपने क्षेत्र के बाहुबलियों में से हैं तो आपने देशभक्त नेता बनने का पहला पड़ाव पार कर लिया है, और अगर आप या आपके घर में कोई बाहुबली नहीं है तो भी चिंता की कोई बात नही, पता लगाइए अपने रिश्तेदारों में,अगर कोई दूर के चच्चा विधायक निकल गए तो आपका पहला पड़ाव पार समझिए। यदि आप ऐसे छात्र है जिनके चच्चा भी विधायक नहीं है फिर भी हिम्मत मत हारिए , कॉलेज या यूनिवर्सिटी के कम से कम दस झगड़ों में आपका नाम होना चाहिए और आपका खौफ सिर्फ दूसरे छात्र -छात्राओं में ही नहीं बल्कि अध्यापकों में भी होना चाहिए। अगर ऐसा है तो आप भी स्वीकृत हैं एक साफ सुथरे देशभक्त नेता बनने के लिए। डिजाईनर कपड़े खरीदने की कोई जरूरत नहीं , खरीदना है तो बस चार – पांच कुर्ते, आचरण भ्रष्ट और काला चलेगा , लेकिन कुर्ता सफेद होना चाहिए । अगर आपके कुर्ते का रंग भगवा है तो भाई क्या कहने आपके जलवे के, आपको ज्यादा मेहनत नहीं करनी पड़ेगी , लोग आपसे खुद ही डरने लगेंगे और माथे पर तिलक और गले में गमछा आपके व्यक्तित्व पर चार चांद लगा देंगे । और अगर आप कुर्ते पहनना पसंद नहीं करते और ट्रेंडिंग फैशन की तरफ रुचि रखते है तो भाई पैसा थोड़ा ज्यादा खर्च करना पड़ेगा क्योंकि भैया नाईकी और एडिडास के नीचे तो बात नहीं बनेगी । कम से कम उस कपड़े की दुकान का पता तो लगाना ही पड़ेगा जो इन ब्रांड्स का डुप्लीकेट माल बेचते हो सस्ते दामों में। और आपके साथ हमेशा आपके दस – बारह अनुयायी अर्थात आपके चेले चपाटे होने चाहिए जो सोशल मीडिया पर आपकी झूठी लोकप्रियता को बढ़ावा देते रहे और आपसे सिर्फ सुबह शाम चाय और सिगरेट की उम्मीद रखे । कभी-कभी आपको इन्हे मुर्गा मटन भी खिलाना पड़ेगा। कोई अच्छा काम करने की जरूरत नहीं , लेकिन अच्छा काम आपने किया है इस बात का सबूत सोशल मीडिया पर फोटो डालकर अवश्य देते रहे , जैसे भंडारे में पूड़ियाँ बाँटना, वस्त्र दान करना और अगर आपने गाय को चारा खिलाते हुए और गौरक्षा पर कोई सुंदर सा उद्धरण लिखकर  कोई फोटो अपलोड कर दिया तो समझिए आपके अनुयायी अर्थात चेले -चपाटों की संख्या बढ़नी  शुरू हो जाएगी । इस बात का विशेष ध्यान दे की सब फोटो आई फ़ोन से अपलोड होनी चाहिए । और फिर क्या बस ,आपके अनुयायी अर्थात आपके चेले चपाटे कॉमेंट सेक्शन में आपके तारीफों की नदी बहाना शुरू कर देंगे । अब हर संडे मुर्गा मटन खा रहे है आपके लिए इतना तो कर ही सकते है ना जी। अब अंतिम और सबसे जरूरी बात , कोई भी गाड़ी नहीं, निम्नलिखित में से ही कोई एक गाड़ी होनी चाहिए वो भी लेटेस्ट मॉडल की सफारी, फार्च्यूनअर, स्कार्पियो  हमारे यहां इनको नेताओं की गाड़ी भी कहते है , इसलिए लोन चाहे लेना पड़े, खुद बिक जाओ,लेकिन गाड़ी इसमें से ही लेनी पड़ेगी और हां !! गाड़ी के आगे “जय श्री राम” जरूर लिखिए , वजन बढ़ता है । और इतने कष्ट भरे जीवन बाद आपका नाम एक महान देशभक्त नेताओं की सूची में जुड़ जाएगा आपका भौकाल हमेशा बना रहे , सदैव ऐसी कामना धन्यवाद ।