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बोरे में सोना

बोरे में सोना

वैसे तो मैं और मेरा परिवार अब शहर में ही रहता हैं, पर कुछ न कुछ काम से अक्सर हम गाँव जाते रहते हैं। मुझे गाँव में जाना बहुत ही अच्छा लगता हैं। गाँव में जाकर बड़ा सुकून, बड़ी शांति मिलती हैं। ना व्यापार की चिंता, ना ग्राहकों के फोन। मुझे यदि दो विकल्प दिए जाए कि सात दिन के लिए तुम्हें विदेश घूमने जाना हैं या गाँव, तो मैं अपने गाँव को ही चुनुँगा। कुछ खास बात होती हैं अपनी मातृभूमि की, जहाँ आपने जन्म लिया, जहाँ आपका बचपन बीता, जहाँ आप स्कूल गए। घर वाले अक्सर पूछते हैं अब तो गाँव खाली होता जा रहा हैं फिर भी तुझे वहाँ जाना क्या अच्छा लगता हैं? बात भी सही हैं, आज करीबन हमारे गाँव की पचास  फ़ीसदी आबादी शहर में रह रही हैं। लेकिन फिर भी मुझे तो गाँव की सुनी गलियाँ भी अच्छी लगती हैं। मैं हर गली में दिन में एक बार तो अवश्य ही चक्कर लगाता हूँ। जो बहुत ज्यादा पुराने मकान हैं उनको विशेष रूप से निहारता हूँ। उन मकानों के बाहर उनके बनने का साल लिखा हुआ होता हैं तो मेरा मन अतीत में चला जाता हैं। ज्यादातर मकान तो मेरे जन्म से भी बहुत पुराने बने हुए हैं। हमारा मकान भी करीबन मेरे जन्म से दस साल पहले बना हुआ हैं। संक्षेप में कहूँ तो मुझे उस सुनेपन में भी यादों के जरिए एक भीड़ दिखाई देती हैं।                इस बार गाँव में मैं पाँच दिन रुका। पाँचवे दिन शाम को रेलवे स्टेशन आया जो पास ही के गाँव में हैं। थोड़ी देर बाद रेलगाड़ी आ गई। मैं अपनी सीट पर जा पहुँचा। वहाँ पर श्याम बाबू पहले से बैठे हुए थे। श्याम बाबू और मैं एक ही शहर में रहते हैं और उनका गाँव भी मेरे गाँव के पास ही हैं। बड़े सहृदय व्यक्ति हैं। मेरे बड़े भाई के अच्छे मित्र हैं। महीने में एक दो बार अवश्य मुलाकात हो जाती हैं। उम्र में मुझसे करीबन बारह साल बड़े होंगे। पारिवारिक रिश्ते अच्छे हैं,  मैं उन्हें बड़ा भाई मानता हूँ और वे मुझे छोटा भाई। वह बड़ों के साथ बड़े हो जाते हैं और छोटो के साथ छोटे। मुझे देखते ही बोले- श्याम बाबू :- तुम गाँव कब आए? मैं :- (उनके पैर छूते हुए बोला) मुझे तो पाँच दिन हो गए, आप कब आए? श्याम बाबू :- मैं दो दिन पहले आया था, पहले सामान सीट के नीचे रख दो फिर आराम से बात करते हैं। मैं :- जी।               मैंने अपना सामान सीट के नीचे रखा। सामान में एक अटैची, एक बैग और एक बोरा था। श्याम बाबू ने जब मेरा तीसरा सामान भरा हुआ बोरा देखा तो मन में विश्वास नहीं हुआ कि आजकल का युवा ऐसे बोरे में सामान लेकर जा सकता है? यदि मेरे स्थान पर किसी बुजुर्ग व्यक्ति का यह बोरा होता तो उनका मन कोई प्रश्न नहीं उठाता। मैंने उनकी तरफ ध्यान से देखा तो मैं समझ गया कि बोरे को देखकर श्याम बाबू कुतूहल से भीग रहे हैं। एक तरफ उन्होंने मुझे और मेरे पहियों वाले दो सामान को तो जोड़ी के रूप में स्वीकार किया, पर जैसे ही मेरे तीसरे सामान को देखा तो फिर उनके मस्तिष्क पर विस्मय की रेखाएं उभर आई कि आखिर क्यों मैंने उस बोरे में सामान भरना उचित समझा। आखिरकार उनसे रहा नहीं गया और मुझसे पूछा- श्याम बाबू :-  इस बोरे में क्या सामान भरा हैं? मैंने दूसरे लोगों की नजर बचाकर अपने मुँह पर उंगली रखकर इशारा किया और अपनी सीट से उठकर श्याम बाबू के पास जा बैठा और उनके कान के पास जाकर धीरे से कहा। मैं :- इस बोरे में हमारे पुरखों का सोना हैं। एक क्षण को श्याम बाबू स्तब्ध हो गए दूसरे क्षण उनकी मुखाकृति बड़ी विचित्र हो गई। फिर अपनी भौहें ऊपर से नीचे करते हुए हाँ के इशारे में सिर हिलाया। शब्द अभी भी उनके मुख से निकलने में असमर्थ थे। एक मिनट के पश्चात मेरे कान के पास आकर धीरे से बोले- श्याम बाबू :- इतना कीमती सामान इस तरह बोरे में! मैं :- इस तरह से ले जाना सुरक्षित हैं। पर वे नहीं माने उन्होंने कहा- श्याम बाबू :- ऐसा कीमती सामान लोग छोटी पेटी या संदूक में भरते हैं, फिर उस पर एक छोटा ताला लगाते हैं। फिर उसे अटैची में कपड़ों के बीचो-बीच रखते हैं, अटैची पर उससे थोड़ा बड़ा ताला लगाते हैं और सोने से पहले सीट के नीचे एक जंजीर द्वारा अटैची को एक बड़े ताले से बांध कर ले जाते हैं। मैं :- इतना तामझाम करने से ही तो ट्रेनों में से अक्सर कीमती वस्तुओं की चोरियां होती है। जब चोर अटैची पर ताला और उसको भी जंजीर से बांधा हुआ देखते हैं तो उन्हें पता चल जाता हैं कि इसमें कुछ ना कुछ कीमती सामान हैैं। (मैंने उन्हें उदाहरण देकर समझाया) यदि कल मैं अपनी अटैची या बैग गाड़ी में भूल कर घर चला जाऊँ और यदि आधे घंटे बाद वापस आकर देखुु तो मुझे अपना सामान वहाँ नहीं मिलेगा लेकिन अगर मैं यह बोरा भूल जाऊँ और एक घंटे बाद भी आकर देखु तो यह सामान यही मिलेगा। ऐसे साधारण से बोरे को भला कौन लेकर जाएगा? मेरे तर्क से श्याम बाबू सहमत हो गए कुछ देर बाद टीटी आया श्याम बाबू की नजरें अभी भी बोरे पर थी दो बार टीटी द्वारा मांगे जाने पर उन्होंने अपना टिकट दिखाया और आई कार्ड तीसरी बार में, दो बार तो उन्होंने बैंकों के एटीएम कार्ड ही थमा दिए थे। कुछ देर श्याम बाबू ने कहा- श्याम बाबू :- सुबह मेरा भाई मुझे स्टेशन लेने आएगा मेरे साथ ही चलना घर पर छोड़ दूंगा और तुम्हारे पुरखों का सोना भी देख लूँगा। मैं :- अच्छी बात है।             फिर कुछ देर बैठ कर सबने सोने का निर्णय लिया। आठ लोगों के कंपाउंड में कुल पाँच ही लोग थे। मुझे तो सोते ही नींद आ गई। सवेरे नींद खुली तो शहर आ चुका था। ट्रेन प्लेटफार्म पर खड़ी थी लगभग यात्री उतर चुके थे। मैंने उठकर देखा तो श्याम बाबू डिब्बे में नहीं थे। खिड़की से प्लेटफार्म पर नजर दौड़ाई तो वहाँ भी नहीं दिखे। सोचा नीचे उतर कर आराम से देखता हूँ। सीट के नीचे से अपनी अटैची और बैग निकाला फिर बोरा लेने के लिए हाथ घुमाया बोरा हाथ में नहीं आया। नीचे बैठकर देखा तो बोरा नदारद था। मैं आश्चर्यचकित हो गया इतना साधारण सा बोरा कौन चुरा ले गया। श्याम बाबू की एक छोटी सी थैली जरुर पड़ी थी। वे अपने पास मोबाइल नहीं रखते हैं। इसे अपनी शांति का वे परम शत्रु मानते हैं। अब उनसे संपर्क करने का कोई दूसरा रास्ता नहीं था। मैं उनकी थैली और अपना दूसरा सामान लेकर नीचे उतरा। स्टेशन से बाहर आया वहाँ भी श्याम बाबू को ढूंढा नहीं मिले। कल तो ट्रेन में बता रहे थे मुझे लेने मेरा भाई आएगा तुम मेरे साथ ही चलना तुम्हें घर छोड़ दूँगा, पर मेरी बचत जाती रही। रिक्शा किया घर पहुँचा। करीबन डेढ़ घंटे बाद घंटी बजी, दरवाज़ा खोला तो श्याम बाबू हाथ में बोरा लिए खड़े थे। मैं कुछ बोलू इससे पहले ही अंदर आते हुए वे बोल उठे- श्याम बाबू :- शहर से एक स्टेशन पहले जैसे ही गाड़ी रुकी एक चोर तुम्हारा बोरा उठाकर भागने लगा। शायद उसे हमारी बातों से पता चल गया था कि  इस बोरे में कुछ कीमती सामान है मेरी आँख खुली तो मैं चोर-चोर बोलते हुए पीछे भागा। तुम तो जैसे घोड़े बेच कर सो रहे थे। मैं :- तो आप वापस ट्रेन में नहीं चढ़े? श्याम बाबू :- चढ़ता कैसे, चोर के पीछे कौन भागता? वह प्लेटफार्म की तरफ ना उतरकर पटरी की तरफ उतरा और भागने लगा। मैं उससे काफी पीछे था पर रुका नहीं। वो कोई पेशेवर चोर नहीं था जो इतना भारी बोरा उठाकर बहुत ज्यादा भाग सके। वह शायद हमारे डिब्बे का ही कोई आदमी था और शायद उसे हमारी बातचीत से शक हुआ होगा कि इस बोरे में कुछ कीमती सामान हैं। आखिर रुक कर उसने थोड़ा सोना लेकर भागने की सोच कर बोरे को खोलकर उसमें टटोलने लगा। भोर का समय था मुझे नहीं पता कि उसने कुछ लिया या नहीं पर जब मैं करीब गया तो वहाँ से भाग खड़ा हुआ। मैंने बोरे के अंदर झांका तो मुझे मिट्टी दिखाई दी पर मैंने वहाँ छानबीन करना उचित नहीं समझा। उसे वापस रस्सी से बांधकर प्लेटफार्म पर ले आया। यह गाड़ी तो निकल चुकी थी आधे घंटे बाद की गाड़ी में बैठ कर सीधा रिक्शा पकड़ कर यहाँ आया हूँ। अब जल्दी से मुझे अपना सोना दिखाओ।  मैं :- सोना तो आपने देख लिया हैं। श्याम बाबू  :- मैं कुछ समझा नहीं सही से बताओ। मैं :- ये मिट्टी ही सोना हैं । (मैं बोरे को खोलते हुए बोला) उन्होंने व्यंग्य पूर्वक कहा- श्याम बाबू :- सोने की खान से लाया हैं क्या? मैं :- नहीं अपने गाँव के खेत से। श्याम बाबू :- इसका क्या करेगा? मैं :- घर में दो गमले लगाने हैं। श्याम बाबू :- पागल हो गए हो क्या मिट्टी तो यहाँ पर भी मिल जाती। मैं :- आपकी बात सच हैं पर मेरे लिए ये मिट्टी सोने से कम कीमती नहीं हैं। श्याम बाबू :- ऐसी क्या खास बात हैं इस मिट्टी में? मैं :- इस मिट्टी में मेरे गाँव की खुशबू हैं, इस मिट्टी में मेरे खेत और मेरे पिता की यादें हैं, जहाँ कभी वो खेती किया करते थे, इस मिट्टी पर बैठकर ही भोजन किया करते थे, रात को धान की रखवाली करने वही पर सो जाया करते थे, और यही वह मिट्टी हैं जिसकी उपज से उस वक्त हमारा घर चलता था। इतना कहते-कहते मेरा गला भर आया और श्याम बाबू की आँखे। उन्होंने खड़े होकर मुझे अपने गले से लगा लिया और कहा- श्याम बाबू :- अभी जब मैं यहाँ आया तो मैं समझ रहा था कि मैं तुम्हारा सोना लेकर आया हूँ, जब तुमने कहा कि इसमें मिट्टी हैं तो मुझे लगा कि मैं तो सिर्फ धूल ही लेकर आया हूँ पर अब मुझे लगता है कि वास्तव में तो मैं खजाना लेकर आया हूँ।                                                                                                                      विनोद जैन
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‛अपने अंदर के राम को जीवित करें’

‛अपने अंदर के राम को जीवित करें’

हर बार की तरह इस बार भी दशहरा पूरे देश में हर्षोल्लास के साथ मनाया जा रहा है। रावण के बड़े-बड़े पुतले बनाए जा रहे हैं। ऐसा प्रतीत हो रहा है कि मानों भारी-भरकम शरीर वाले रावण की मुखाकृति हम पर अट्ठाहास करती हुई कह रही हो, कि तुम सब मुझे अपने हृदय से नहीं निकाल पाओगे। मैं यूं ही हर वर्ष आऊंगा। हर वर्ष तुम मुझे जलाओगे। लेकिन मुझे मार नहीं पाओगे। अगली बार पुनः उसी सम्मान के साथ दोबारा खड़ा होकर हमारी नादानियों पर ठहाका लगाते हुए पूछेगा – मैं अधर्मी, अन्यायी, पथभ्रष्ट, राक्षस कुल का अवश्य हूं, पर मुझे मारने वाली लाखों-करोड़ों की भीड़ में क्या कोई राम है? या कोई ऐसा जिसमें राम जैसी शक्ति, सामर्थ्य और पुरुषत्व हो। हम निरुत्तर हो जाते हैं! इस आत्मग्लानि से बचने का एक रास्ता है! हमें अपनी भाषा में थोड़ा परिवर्तन करने की आवश्यकता है। यदि हम आम-जन से पूछे कि दशहरा का उद्देश्य क्या है, या हमें अपने अंदर क्या परिवर्तन करना चाहिए? इसका जवाब एक नई नपी-तुली सीधी और सपाट भाषा में देता हुआ यही कहेगा, कि सबसे पहले ‘अपने अंदर के रावण को मारो’ और अगर कोई बौद्धिक व्यक्ति है तो वह इसे अभिधात्मक रूप में कहेगा कि ‘रावण को मारने का अर्थ अपने अंदर की बुराई को मारो!’ हजारों वर्षों से हम रावण को जलाते आ रहे हैं और आने वाले हजारों वर्ष तक जलाते रहेंगे। हम भाषा में एक सामान्य सा परिवर्तन करके समाज को एक सकारात्मक दिशा दे सकते हैं। कैसे? आज से ‘अपने अंदर के रावण को मारो’ की बजाय ‘अपने अंदर के राम को जीवित करो’ कहने की परंपरा का विकास करना चाहिए। रावण बुराई का प्रतीक है और वह सभी के अंदर मौजूद है। ठीक उसी प्रकार राम अच्छाई के प्रतीक हैं वह भी सभी के अंतर्मन में स्थापित हैं, बस जरूरत है तो उनको हमें फलने-फूलने का मौका देने की। जिससे समाज के आत्मिक विकास को सकारात्मक दिशा मिलेगी। आपसे अनुरोध है कि इस बार आप भी ‘अपने अंदर के राम को जीवित करें!’ तभी दशहरा सफल होगा। दशहरा की अनंत शुभकामनाएं।
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देशभक्त नेता बनना चाहते हो??

देशभक्त नेता बनना चाहते हो??

नमस्कार, अगर आप राजनीति .में रुचि रखते है और एक देशभक्त नेता बनना चाहते है तो बिल्कुल सही जगह पर आए है , आज हम सीखेंगे कैसे आप अपना नाम एक देशभक्त नेता में बेशुमार कर सकते है तो चलिए बिना किसी देरी के शुरू करते है देशभक्त नेता बनने के लिए सबसे महत्वपूर्ण बात जिसके बिना आप देशभक्त नेता बनने की सोच भी नहीं सकते वो है आपका या आपके घर में किसी का बाहुबली होना, अगर आप अपने क्षेत्र के बाहुबलियों में से हैं तो आपने देशभक्त नेता बनने का पहला पड़ाव पार कर लिया है, और अगर आप या आपके घर में कोई बाहुबली नहीं है तो भी चिंता की कोई बात नही, पता लगाइए अपने रिश्तेदारों में,अगर कोई दूर के चच्चा विधायक निकल गए तो आपका पहला पड़ाव पार समझिए। यदि आप ऐसे छात्र है जिनके चच्चा भी विधायक नहीं है फिर भी हिम्मत मत हारिए , कॉलेज या यूनिवर्सिटी के कम से कम दस झगड़ों में आपका नाम होना चाहिए और आपका खौफ सिर्फ दूसरे छात्र -छात्राओं में ही नहीं बल्कि अध्यापकों में भी होना चाहिए। अगर ऐसा है तो आप भी स्वीकृत हैं एक साफ सुथरे देशभक्त नेता बनने के लिए। डिजाईनर कपड़े खरीदने की कोई जरूरत नहीं , खरीदना है तो बस चार – पांच कुर्ते, आचरण भ्रष्ट और काला चलेगा , लेकिन कुर्ता सफेद होना चाहिए । अगर आपके कुर्ते का रंग भगवा है तो भाई क्या कहने आपके जलवे के, आपको ज्यादा मेहनत नहीं करनी पड़ेगी , लोग आपसे खुद ही डरने लगेंगे और माथे पर तिलक और गले में गमछा आपके व्यक्तित्व पर चार चांद लगा देंगे । और अगर आप कुर्ते पहनना पसंद नहीं करते और ट्रेंडिंग फैशन की तरफ रुचि रखते है तो भाई पैसा थोड़ा ज्यादा खर्च करना पड़ेगा क्योंकि भैया नाईकी और एडिडास के नीचे तो बात नहीं बनेगी । कम से कम उस कपड़े की दुकान का पता तो लगाना ही पड़ेगा जो इन ब्रांड्स का डुप्लीकेट माल बेचते हो सस्ते दामों में। और आपके साथ हमेशा आपके दस – बारह अनुयायी अर्थात आपके चेले चपाटे होने चाहिए जो सोशल मीडिया पर आपकी झूठी लोकप्रियता को बढ़ावा देते रहे और आपसे सिर्फ सुबह शाम चाय और सिगरेट की उम्मीद रखे । कभी-कभी आपको इन्हे मुर्गा मटन भी खिलाना पड़ेगा। कोई अच्छा काम करने की जरूरत नहीं , लेकिन अच्छा काम आपने किया है इस बात का सबूत सोशल मीडिया पर फोटो डालकर अवश्य देते रहे , जैसे भंडारे में पूड़ियाँ बाँटना, वस्त्र दान करना और अगर आपने गाय को चारा खिलाते हुए और गौरक्षा पर कोई सुंदर सा उद्धरण लिखकर  कोई फोटो अपलोड कर दिया तो समझिए आपके अनुयायी अर्थात चेले -चपाटों की संख्या बढ़नी  शुरू हो जाएगी । इस बात का विशेष ध्यान दे की सब फोटो आई फ़ोन से अपलोड होनी चाहिए । और फिर क्या बस ,आपके अनुयायी अर्थात आपके चेले चपाटे कॉमेंट सेक्शन में आपके तारीफों की नदी बहाना शुरू कर देंगे । अब हर संडे मुर्गा मटन खा रहे है आपके लिए इतना तो कर ही सकते है ना जी। अब अंतिम और सबसे जरूरी बात , कोई भी गाड़ी नहीं, निम्नलिखित में से ही कोई एक गाड़ी होनी चाहिए वो भी लेटेस्ट मॉडल की सफारी, फार्च्यूनअर, स्कार्पियो  हमारे यहां इनको नेताओं की गाड़ी भी कहते है , इसलिए लोन चाहे लेना पड़े, खुद बिक जाओ,लेकिन गाड़ी इसमें से ही लेनी पड़ेगी और हां !! गाड़ी के आगे “जय श्री राम” जरूर लिखिए , वजन बढ़ता है । और इतने कष्ट भरे जीवन बाद आपका नाम एक महान देशभक्त नेताओं की सूची में जुड़ जाएगा आपका भौकाल हमेशा बना रहे , सदैव ऐसी कामना धन्यवाद ।
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खर्चापानी

खर्चापानी

चुनाव की अधिसूचना जारी होते ही जनता यकायक महत्वपूर्ण हो उठी । साधारण लोग जो मिनिस्टर, नेताओं, अफसरों के पीछे छोटे-बड़े काम के लिये चप्पल घिसा करते थे, इस समय पासा पलट जाता है, आज उनके पीछे बड़े-बड़े नेता और राजनैतिक पार्टियाँ घूम रहीं थीं । वे शक्ति पाने के लिये प्रजा के दरबार में चक्कर लगा रहे थे । प्रजातंत्र की यही सबसे बड़ी खूबी है, सत्ता के इच्छुक प्रत्येक व्यक्ति को जनता के आंगन में आना ही पड़ता है । इस समय चतुर राजनैतिक पार्टियाँ जनता को गाय के समान समझने लगतीं हैं, जिसे दूहने के लिये वे तरह–तरह का चारा फेंकती हैं । कोई पार्टी उन्हें भविष्य का सुनहरा सपना दिखाती है तो कोई उपहार बाँटती है, कोई इतिहास की याद दिलाकर रिस्तेदारी जोड़ती है तो कोई जाति-धर्म का खेल खेलती है, कोई गरीबी से मुक्ति की बात करती है तो कोई किसानों का कर्जा माँफ करने की योजना बनाती है । पार्टियाँ उन्हें अपने पक्ष में करने के लिये यथा संभव प्रत्येक चाल चलतीं हैं । यह जनता की बुध्दिमत्ता ही है कि वह इन सबों की बीच उसे चुनना चाहती है जो सबसे ज्यादा भरोसेमंद हो । जनता जिसे चाहेगी वही विजयी होगा । वोट का सब खेल है, जिस गाँव, मुहल्ले में अधिक वोट है, उस पर नजर सबकी है । नेता, उपनेता, पार्टी कार्यकर्ता सभी उस गाँव को ज्यादा महत्व देते हैं । वे वहाँ की समस्याओं को दूर करने का आश्वासन देते हैं, उनको पूज्य प्रतीकों को नमन करते हैं तथा उनके वोटों को अपने पक्ष में करना चाहते हैं। गाँव में एक घर था झुलावन का । वैसे तो पचहत्तर साल का वह एक वरिष्ठ नागरिक था, बेटों-पोतों पर खेती-बाड़ी की जिम्मेदारी डालकर कामकाज से फुर्सत पा चुका था तथा घर के एक कोने में पुराने बरतन की तरह ठनठनाता रहता था । वह दिन भर अकेले टांय-टांय करता, कोई सूनने वाला नहीं था, काम के बहाने सुबह ही सभी घर से बाहर चले जाते। घर में केवल बहुऐं ही थीं जो समय पर उसे रोटी और पानी दिया करतीं थीं, इसके आलावे ‘जेरी’ था उसका एक पालतू, जो भौंक कर उससे बातें करता, उसके इर्द-गिर्द मँडरा कर उसका अकेलापन दूर करता और जब वह उसे अपने हिस्से की रोटी का टुकड़ा देता तो वह कूँ-कूँ करते हुए उसका पैर सूँघकर स्वामि भक्ति जताता । ऐसी दयनीय स्थिति में भी जबकि हर काम के लिये उसे दूसरों पर आश्रित रहना पड़ता था, इन दिनों उसकी पूछ बढ जाती थी । राजनैतिक दलों के कार्यकर्ताओं में होड़ लगी रहती थी । वे दिन में कम से कम एक बार उसका हाल-चाल पूछने जरूर आते थे । दरअसल उसके और उसकी पत्नी के पास दो वोट, चार पुत्र और चार बहुयें के पास आठ वोट, पौत्र और उसकी पत्नियों के वोटों को मिलाकर कुल पच्चीस वोटों का मालिक था वह । यह एक ऐसा खजाना था उसके पास, जिसमें सेंध मारने के लिये सभी राजनैतिक पार्टिया मौका तलाशतीं थीं । अपने जीवन काल में उसने कई चुनाव देखें, चौदह-पंद्रह तो लोकसभा के… और लगभग इतने ही विधानसभा के भी…। राजनैतिक दलों की लुभावनी घोषणाओं को सुनते सुनते उसके कान में मोम का परत जमा हो गया था.., सुनकर भी अनसुना रह जाता…। ये घोषणायें उसे जरा भी आकृष्ट नहीं कर पाती, अधिकांश तो महज भाषण मात्र होती, कुछ तो ऐसी होती, जिसका वास्तविक तथ्यों से कोई लेना देना नहीं होता, जिसे पूरी भी नहीं की जा सकती, फिर भी इन घोषणाकर्ताओं की बेशर्मी की इंतहा नहीं होती, वे भले मतकर्ताओं को वास्तविक मुद्दे से भटकाकर वोट बैंक बनाने में जरा भी कसर नहीं छोड़ते । अत: यह उबाऊ के साथ-साथ उसे पीड़ादायक भी लगती, जिस कारण वह इससे दूर रहने की कोशिश करता या उसपर ध्यान ही नहीं देता था । यह उसे लुभाती तो बिल्कुल ही नहीं थी, यदि उसे कुछ लुभाता था वह एक पेय पदार्थ था जो इधर कई चुनावों से उसे मिलता रहा था, जिससे न तो उसकी गरीबी दूर हो सकती थी, न ही उसके भविष्य को सुनहरा बनाया जा सकता था, और न ही उसका गाँव खुशहाल बन सकता था, परंतु उससे भूत का गम अवश्य कम हो सकता था तथा वर्तमान मदमस्त बना सकता था, इसलिय वह ऐसे अवसरों को मुफ्त के हाथों गवाना नहीं चाहता । जब से उसे चुनाव की भनक लगी, वह इसे पुख्ता करने के लिये बेचैन हो उठा । यद्यपि वय अधिक होने के कारण उसका बाजर-हाट अक्सरे जाना नहीं हो पाता, फिर भी घर बैठे-बैठे ही वह गुजरते राहगीरों से टोह लेने का प्रयास करता । यदि कोई पहचान वाला मिल गया तो पाँच मिनट रोककर उससे हाल-चाल के बहाने चुनाव की खबर की पुष्टि करने की कोशिश करता । रात्रि में भी उसे चैन नहीं मिलती, बिस्तर पर लेटे लेटे अचानक वह उठ बैठता, मानों किसी ने पीठ में बिच्छू पौधे की पत्तियाँ रगड़ दी हो । ऐसे ही एक रात वह उठ कर बैठ गया और आँखें बन्द किये ‘चुनाव…, चुनाव’ बकने लगा । धनमंती, उसकी पत्नी, परेशान हो उठी,“ क्या बोल रहे हो… ? अभी आधी रात है…, सो जाओ, सुबह देख लेना.. ।“ उसे लगता कि कहीं चुनाव बीत न जाय और पार्टी से मिलने वाला ‘खर्चापानी’ न छूट जाय, इसलिये वह बोल कर खरियाने की कोशिश करता, दरसल अब उसे यादाश्त पर भरोषा रहा नहीं। उसने जब आँखें खोली तो चारों ओर अंधेरा था…। धनमंती उसका हाथ पकड़कर खींचने लगी और वह ‘हूँ… हूँ…’ कहते हुए पुन: बिस्तर में लेट गया । काफी देर तक उसने सोने की कोशिश की, कभी दायीं करवट तो कभी बायीं करवट बदली, परंतु नींद नहीं आयी, रह-रह कर खर्चापानी छूटने का डर सताने लगता था । हलाँकि आँखें तो उसने बंद कर रखीं थीं, फिर भी सामने पुरानी घटनायें चलचित्र की तरह घूमने लगीं थीं। बहुत पुरानी घटनायें थीं । जब पहली बार उसने मतदान किया था, उस समय की बातें थी । उस समय ‘खर्चेपानी’ का चलन नहीं था । लोगों के हृदय में सच्चाई वास करती थी । उनके जुबान का महत्व होता था, वे दिया गया वचन पूरी निष्ठा से निभाते थे, जिस कारण लोग एक-दूसरे पर भरोषा करते थे । वोट माँगने वाले का व्यक्तित्व और उसके अंदर की सच्चाई लोगों को पार्टी से जोड़ती थी, यदि उसने वचन ले लिया तो लोग उसी को वोट देते थे, अपनी जुबान से कोई मुकरता नहीं था । उसे याद आयी, जब उसने पहली बार मताधिकार का प्रयोग किया था, वह नासमझ था, उसे नहीं मालूम कि वोट किसे देना है ? परंतु उसके अंदर उमंग हिलोरे मार रही थी । उस दिन वह काम पर नहीं गया, नहा-धोकर तैयार हुआ और बैलों को खिला-पिलाकर गाड़ी में जोत दिया । जब सूरज सिर के उपर आया, वह बाबूजी, माँ और पड़ोस के कुछ लोगों के साथ निकल पड़ा । बूथ से थोड़ी दूरी पर उसकी बैलगाड़ी रुकी थी । पार्टी के लोगों ने मतदाता नामावली में क्रम संख्या वाली पर्ची सभी को दी। उसके बाद सभी ने बारी- बारी से बूथ के अन्दर जाकर मतपत्र पर मुहर लगायी थी । उसे याद नहीं कि उसने किस चिन्ह पर मुहर लगायी थी, परंतु उसने कांग्रेस पार्टी को ही वोट दिया था । बाबूजी के इशारे पर ही सभी ने वोट दिया, हलांकि बाबूजी भी आचार्यजी के कहने में थे । आचार्यजी स्वतंत्रता सेनानी तथा पक्का कांग्रेसी थे, वह नेहरुजी को गुरू मानते थे । उसे आज भी आचर्यजी का चेहरा याद है । सफेद दाढी-मूँछ एवं सफेद बाल के बीच दमकता चेहरा, जिस पर लाल तिलक शोभा बढाता था । जब वह बोलते थे तो वाणी में विद्वता झलकती थी । उनकी बात काटने की हिम्मत किसी में नहीं थी । लोग देवमुख से निकली वाणी समझ कर उनके आदेश का पालन करते थे, लेकिन अब न वैसे लोग हैं और न उनकी तरह की सच्चाई । बाबूजी भी एकबोलिया थे । उन्होंने आचार्यजी को जुबान दे दी तो दे दी । बलियार के उनके दोस्त की भी एक न चली, वह लाल सलाम वाले थे तथा भाकपा के लिये वोट माँग रहे थे । उसने बाबूजी को मनाने की बहुत कोशिश की, परंतु बाबूजी नहीं माने, वह अपने वचन पर कायम थे…, दोस्ती में दरार आ गयी, दोस्त से बात-चित बंद हो गयी, रिश्ते  खत्म हो गये, फिर भी उन्होंने आचार्य जी को नहीं छोड़ा…, उनकी कांग्रेस पार्टी को ही वोट दिया था । *** *** *** अब उसे किसी तरह का अमल ( नशे की आदत ) नहीं था, पान-पुड़िया भी छोड़ चुका था, फिर भी यदि कभी-कभार इच्छा जाग गयी तो वह अद्धा पीने पुलिया के नीचे आ जाता था । सात-दस दिन में एक बार तीस-चालीस रुपैए का एक अद्धा खरीदता था, इसके आलावा उसके पास अन्य खर्च के लिये कुछ रहता नहीं था। अब तो आमदनी भी नहीं रही, बेटों की दया पर कुछ रकम आ जाती थी । हाँ, यदि मोफत की दावत मिल गयी और उसमें भी अंग्रेजी की तो फिर क्या कहने, जी भरकर वह ऐसे पीता था जैसे बरसों से प्यासा हो । पीते-पीते जब तक पूरी तरह मदहोश नहीं हो जाता, वह रुकता नहीं था । उसकी यादाश्त में यह इस तरह फँसा हुआ था कि वह हमेशा उस मोफत वाले आइटम को ढूँढता रहता । वह सोचता, कोई कहीं से एक-दो बोतल लाकर दे दे तो मजा आ जाय । इसलिये ऐसे मौके पर जब विभिन्न दलों के लोग उससे वोट माँगने आते तो उसका जीभ लपलपाने लगता और वह चाकुर-चुकुर करने लगता था । पिछले चुनाव में पार्टी के लोगों ने उसे एक पेटी अंग्रेजी शराब की दी थी । उसने तो सोचा—बचा-बचा कर कई महीनें तक पीयेंगे, परंतु पहला दिन ही छोटा बेटा श्यामू ने तीन बोतलें निकाल लीं । बहुत गुस्सा आया, उसने उसे डांटा-फटकारा और शेष बची बोतलों को आलमारी में बंद कर ताला लगा दिया। अन्य बेटों को उसने हाथ तक नहीं लगाने दिया । उसने कोशिश की रोजाना दो पैग से अधिक नहीं पीने की, फिर भी दो महीनें तक ही वह चला पाया, मन को काबू में रखना बड़ा मुश्किल था । बाद में कभी-कभार बेटों के माँगने पर आधी बची बोतल उन्हें दे दिया करता था ।अंतिम दो बोतलों में से एक को उसने छह महीनें तक बचाकर रखा था, जब वह आधी हो गयी तो पड़ोस के एक मिस्त्री को देकर खत्म करने को कहा था । आज वह कई दिन बाद पुलिया के नीचे आया था । जब वह घर से निकला तो कूँ-कूँ करता ‘जेरी’ भी साथ लग गया । रास्ते में वह कभी आगे चलता तो कभी एक जगह रुक कर कुछ सूंघने लगता, जिस वजह से वह पीछे रह जाता, तब वह अचानक दौड़कर उससे आगे निकल जाता था । जेरी के साथ रहने से उसे बल मिलता, उसे लगता कोई तो है जो उसके साथ चल रहा है। जब वह पुलिया से थोड़ी दूरी पर था तो उसने देखा कि कठघरा खाली पड़ा था । आस-पड़ोस की दुकान में थोड़ी-बहुत चहल-पहल थी । उसने सोचा—दोपहर का वक्त है, शायद इसी वजह से कम लोग जमा हैं, फिर भी वह आगे बढता रहा । उसने लाठी से जेरी को इशारा किया और वह पुन: उससे आगे निकल गया । जब वह वहाँ पहुँचा तो देशी शराब की दुकान बंद थी । चुँकि इस बार वह बहुत दिन बाद यहाँ आया था…, उसे जोर की तलब लगी थी। वह वहीं बेंच पर बैठ कर दुकान खुलने का इंतजार करने लगा । जेरी भी पास बैठकर जीभ लपलपाने लगा था । कुछ देर तक वह चुपचाप बैठा रहा, कभी-कभी वह जेरी का गरदन सहला देता तो कभी सड़क की ओर नजर दौड़ा कर दुकानदार की राह ताकता । उसकी नजर गाड़ियों की आवाजाही पर भी थी, तभी उसने देखा कि एक प्रचार गाड़ी वहाँ आकर रुकी । एक पल के लिये उसे यकीन नहीं हुआ, परंतु उसे अंदर ही अंदर खुशनुमा स्पंदन महसूस हुआ । वह खड़ा होकर इधर–उधर देखने लगा । पास की दुकान पर खड़े आदमी से उसने पूछा, “ क्या यह चुनाव प्रचार की गाड़ी है ? “ हाँ… ।“ उस आदमी ने कहा । उसने भी ‘हाँ’ ही सुनी थी, परंतु शायद उम्र अधिक होने के कारण या किसी अन्य कारण से उसे इस ‘हाँ‘ पर विश्वास नहीं हुआ । उसने पुन: सिर डुलाकर पुष्टि करने की कोशिश की । “ हाँ…, चुनाव प्रचार की गाड़ी है ।“इस बार उस आदमी ने जोर देकर कहा था । उसके चेहरे पर प्रसन्नाता की रेखायें उभर आयीं । उसने पूछा, “ गाड़ी किसका प्रचार कर रही है ?“ “ कृष्णानंद का फोटो लगा है, “ उस आदमी ने कहा । “क्या? कृष्णानंद का…?“ वह उठकर प्रचार गाड़ी के पास गया तथा उसने उसपर लगी तस्वीर देखने की कोशिश की, परंतु बूढी आँखों ने पहचानने में असमर्थता दिखाई । लोगों ने उसी का फोटो लगे होने की बात कही थी । कृष्णानंद का नाम सुनते ही उसे अजीब महसूस हुआ । उसे ऐसा लगा जैसे कसैला स्वाद पूरे जीभ पर फैल गया हो । उसका मुँह विचित्र रुप से टेढा हो गया, आँखें सिकुड़ गयी । कुछ पल के लिये चुनाव की खबर से उसे जो खुशी मिली थी, वह काफूर हो गयी । झूठा, भ्रष्ट, कमीना, बेईमान और न जाने कौन-कौन से अपशब्द उसके दिमाग में बुलबुले की तरह उठने लगे । उसका मन घृणा भाव से भर उठा और वह उसे कोसने लगा था । वह अनाप-शनाप बड़बड़ाने लगा, लेकिन जब उसने देखा कि पास खड़े लोग उसे घूरने लगे थे तो वह जल्दी ही चुप हो गया । एक बार वह इसी तरह बड़बड़ा रहा था कि उसके बड़े बेटे का मंझला पुत्र गौरव जो कि कुछ दिन पहले एमए पास किया था, उसे टोक दिया । उसने कहा, “आप क्या बक रहे हैं ? आपको पता है ? जैसे-जैसे आप बूढे होते जा रहे हैं, आपकी जुबान बेलगाम होती जा रही है.., गंदी-गंदी गालियाँ बकना आपको अच्छा लगता है ? सामने औरतें और बच्चे भी रहते हैं, फिर भी आप अनाप-शनाप बोलते हैं ।“ हलाँकि उस समय उसने गौरव को बहुत डांटा और उसे पीटने के लिये हाथ भी उठा लिया था, परंतु बाद में उसे अपनी गलती का एहसास हुआ । उसके बाद से उसे जब भी गालियाँ देने का मन करता तो वह चुपचाप अकेले में बोलकर भड़ास निकाल लिया करता था । शाम में जब सभी जमा हुए तो बहस छिड़ गयी । बड़े बेटे ने असंतोष व्यक्त किया, “कृष्णानंद तो अभी बच्चा है । इस लौंडा-लफांड़ी से क्या होगा ? कृपाशंकर को टिकट मिलता तो सही रहता, वह उम्रदराज है, पहले भी एमपी रह चुका था । “ “ देखा जाय, तो सबसे योग्य कृपाशंकर है…, फिर भी उसका टिकट काट दिया ? समझना मुश्किल है कि क्यों काट दिया ? “ मंझले बेटे ने कहा । श्यामू ने गुप्त पिटारा खोला, “ आपको नहीं पता, कृष्णानंद की पहुँच उपर तक है और उसने रुपैया भी खर्च किया है, इसलिये तो उसे टिकट मिला है।“ “ कृपाशंकर के टिकट कटने से कार्यकर्ताओं में आक्रोश व्याप्त हो जायेगा ।“ बड़े बेटे ने संभावना जतायी। “ अरे, हम तो कहते हैं कि पार्टी के अंदर ही अंदर कृष्णानंद का विरोध हो जायेगा, कार्यकर्ताओं का पूरा सपोर्ट भी नहीं मिलेगा, “ तीसरे बेटे ने कहा था । श्यामू ने कहा, “नहीं, भैया, आपलोग गलत अनुमान लगा रहें हैं, कृष्णानंद ही जितेगा.., देखियागा । उसे सभी का सपोर्ट मिलेगा । कृपाशंकर में अब दम नहीं रहा । वह बहुत बूढे हो गये हैं ।“ तीसरे बेटे ने उसकी बात काटी, “ इस बार दूसरी पार्टी के बेलाट सिंह जीतेंगे । वह एक मजबूत कैंडिडेट है। उसे क्षत्रीय, ब्राह्मण, पटेल और लोधी का सॉलिड वोट मिलेगा । उसे कोई हरा नहीं सकता ।“ मंझले बेटे ने कहा, “जानते हो जयनंदन निषाद को क्यों खड़ा करवाया गया है ? बेलाट सिंह का वोट काटने के लिये…., निषादों का एक भी वोट उसे नहीं मिलने वाला ।“ “ परंतु मुस्लिम वोट पूरा का पूरा कृष्णानंद को मिलेगा ।“ “ नहीं, नहीं, मुस्लिम वोट के बारे में अनुमान लगाना बहुत मुश्किल है । रामनगर का एक भी मुस्लिम वोट कृष्णानंद को नहीं जा रहा है,“ बड़े बेटे ने कहा था । गौरव काफी देर से उनकी बातें सुन रहा था, उसके अंदर भी कुछ प्रतिक्रियायें कुलांचे मार रहीं थीं । उसने कहा, “ इस बार कृष्णानंद ही जीतेगा, चाहे लोग कुछ भी कर लें । वह युवा है, विकास को तरजीह दे रहा है, उसके जीतने से क्षेत्र का विकास होगा । हमलोग भी उसी को वोट देंगे।“ झुलावन एक कोने में बैठा बहस से दूर था, परंतु कृष्णानंद को वोट देने की बातें सुनते ही उसके अंदर सुलग उठा । उसने उँची आवाज में कहा, “ कौन ? कृष्णानंद ! उसके बारे में तुम्हें कुछ नहीं मालुम । वह अपने बाप से भी बीस है । उसके जैसा भ्रष्ट और लुटेरा यहाँ एक भी कैंडिडेट नहीं है । वह क्या विकास करेगा ?“ दादा की बात सुनकर गौरव सन्न रह गया । झुलावन ने बताना शुरु किया, “उसका बाप गुंडा था । इलाके में जिससे पूछो, सभी उसके करतूत से अवगत थे । बिना बूथ कैप्चर किये उसने एक भी चुनाव नहीं जीता । उस समय ईवीएम नहीं था । मतपत्र पर मोहर लगाकर वोट किया जाता था । एक बार तो उसने एक भी मतदाता को बूथ के अन्दर जाने नहीं दिया, पोलिंग पार्टी को डरा-धमका कर उससे सभी मतपत्र छीन लिया और अपनी पार्टी के चिन्ह पर मोहर लगाकर बक्से में डाल दिया था । उसी का बेटा है कृष्णानंद, इसे कम मत समझो । “ “ पहले की बात आलग थी और अबकी बात अलग है । अब जो विकास की बात करेगा, जो काम करेगा, उसी को वोट मिलेगा, अब पुराने ढर्रे पर चलने से काम नहीं चलने वाला,,” गौरव ने धीमी स्वर में कहा था । “ मैं भी जब तुम्हारी तरह था तो गरीबी दूर करने की बात सुनता था, पचास साल हो गये, क्या गरीबी दूर हो गयी ? मेरे दादा के पास अस्सी बीघे जमीन थी, लेकिन अब तुम्हारे पास क्या है ? दो बीघे जमीन भी तुम्हारे हिस्से में आ जाय तो बहुत है । क्या यही गरीबी दूर हुई है ? “ बड़े बेटे ने गौरव को समझाया, “ देखो बेटा, इन नेताओं की बातों पर विश्वास नहीं करते, अभी इन्हें वोट की जरुरत है, इसलिये वे लम्बी फेंकते हैं । वे जो भी बातें करते हों, चाहे विकास की हो, गरीबी दूर करने की हो या स्कूल, कॉलेज व अस्पताल खोलने की हो, सभी बातें केवल वोट पाने के लिये है । जब वे जीत कर चले जायेंगे तो वापस हमसे मिलने भी नहीं आयेंगे।“ गौरव ने चुपाचाप सुन लिया । “ सुनो, तुमलोग अपनी मनमानी मत करना, जिसे मैं कहूँ उसे ही वोट देना, “ झुलावन ने उन्हें कड़ी हिदायत दी । “….और जब भी किसी पार्टी का आदमी मिलने आये तो उसे मेरे पास भेज देना, तुमलोग मत बात करना । “ *** *** *** जैसे-जैसे चुनाव की तिथि नजदीक आती जा रही थी, झुलावन की बैठकी में उपस्थति दर्ज कराने वालों की संख्या बढती जा रही थी । आने वाले लोग पहले तो उसकी खबर पूछते, उसके बाद अपने नेता की खूबियाँ बखान करते, फिर बड़ी-बड़ी बातें करते –यह कर देंगे, वह कर देंगे, नदी पर पुल बनवा देंगे, स्कूल बनवा देंगे, सड़क अच्छी हो जायेगी, गरीबों को रुपैया बंटवायेंगे इत्यादि। परंतु उनके इन हवाई बातों से उसे क्या..? उसके सूखे गले तर करने की बात कोई नहीं करता । यही कोई सात दिन बाद वोट पड़ने थे, परंतु न तो किसी ने खर्चेपानी का जिक्र किया और न ही किसी ने किसी अन्य तरह की भेंट देने की बातें की । आँखों के सामने फैलता सूनापन तथा घटती उम्मीदें उसे निराश करने लगी थी । बाबादीन आया । “राम, राम, चाचा, “ कहते हुए वह उसके पास बैठ गया । वह भी इन दिनों उसकी बैठकी में हाजिरी लगाने वालों में से एक था । “चाचा, आशीर्वाद है न। “ उसने नजरें घुमायीं, “ आज फिर आ गये । “ “ चाचा, जब तक आशीर्वाद नहीं मिलेगा, आता रहुंगा ।“ “मैं कोई देवी-देवता थोड़े हूँ… जो आशीर्वाद दूँगा, “उसने कुछ सोचकर कहा था। “हमारे लिये तो आप देवी-देवता से भी बढकर हैं । “ “ अच्छा.., हम देवी-देवता से बढकर हो गये…? अजीब बात है….. ।“ “ बड़े-बुजुगों का आशीर्वाद कम नहीं होता । “ बाबादीन ने झेंपते हुए कहा था । “ देवी-देवता को तो चढावा चढाते हो.. और हमें….? अपने नेता बेलाट सिंह से मेरे लिये बात करो ।“ “ जरुर । अपना मुँह तो खोलिये । “ “ सुनो..,” उसने बाबादीन को पास बुलाया और उसके कान में कुछ फुसफुसाया । बाबादीन ने कहा, “आप चिंता न करें, नेताजी से कह कर व्यवस्था हो जायेगी । “ कृष्णानंद का आदमी भी उसके इर्द-गिर्द मंडराता रहता था, उसने एकांत पाकर धीरे से मुँह खोला, “दादा, हम आपके पोते के समान हैं, ख्याल रखियेगा। “ “ चुप रहो ? “उसने मुँह फेर लिया । परंतु लगातार पीछे पड़े रहने के कारण उसका दिल पसीजने लगा । कृष्णानंद के प्रति उसके मन में जो नफरत थी, वह कम होने लगी । बेईमान, चोर और भ्रष्ट तो सबके सब हैं, यह अलग बात है कि कोई कम है या कोई ज्यादा । यदि इन्हीं से हमें खर्चापानी मिल रहा है तो क्या बुरा..है ? वह उसे एक कोने में ले गया और उसके कान में कुछ फुसफुसाया । “ जी, हो जायेगा । परंतु आपके सभी वोट हमें मिलने चाहिये । “ “ हाँ…, हाँ, मिलेगा ।“ उस लोकसभा क्षेत्र के अधिकांश प्रत्याशियों के प्रतिनिधियों ने झुलावन से संम्पर्क किया तथा सभी ने कुछ न कुछ खर्चापानी देने का आशवासन दिया । परसों चुनाव होनेवाली है, आज का दिन खाली ही बीत गया । झुलावन कमरे में बैठा दिन भर इंतजार करता रहा, किंतु न कोई मिलने आया और न ही किसी ने खर्चापानी पहुँचाया । उसे ऐसा महसूस हुआ जैसे उसकी बैठकी का पुराना सूनापन फिर से लौट आया हो । देखते-देखते संध्या भी बीत गयी, फिर भी कोई नहीं आया । उसके चेहरे पर निराशा की रेखायें उभरने लगीं—क्या बिना खर्चे-पानी मिले ही यह चुनाव बीत जायेगा ? यदि ऐसा हुआ तो बहुत अफसोसजनक होगा । तभी उसे याद आया—आज चुनाव प्रचार का अंतिम दिन है, प्रत्याशी प्रचार में व्यस्त होंगे, हो सकता है उन्हें समय न मिला हो । कल का समय तो बांकी है, कल ही कोई आ जाय । रात में जब वह खाना खा कर आराम करने के लिये बिस्तर पर पहुँचा तो दरवाजे पर दस्तक हुई । घर के बाहर बाबादीन खड़ा था । “ चाचा, आपने जो कहा था, वह पूरा कर दिया, लीजिये । “ उसने शराब की बोतलों से भरी एक पेटी उसके सामने रख दी । उसका चेहरा खुशी से खिल उठा, उसने दोनों हाथ उठाकर कहा, “ आशीर्वाद है…। “ “हाँ, चाचा, आपका सारा वोट हमें चाहिये । “ “ अवश्य, मिलेगा…, “ उसने श्यामू को बुलाकर जल्दी से शराब की पेटी अंदर रखवायी । अगले दिन यानि कि चुनाव की तिथि से एक दिन पहले उसे दो अन्य पार्टियों से भी खर्चापानी मिला था । *** *** *** मतदान की पूर्व संध्या थी । झुलावन द्वार के बाहर चहलकदमी कर रहा था । आज वह अत्यंत ही उत्साहित अनुभव कर रहा था । उसके पैर स्वत: ही गतिमान हो उठे थे, दो कदम में ही वह पूरा बरामदा माप लेना चाहता था । मन में खुशनुमा बातें चल रही थी । उसने सोचा— इतना खर्चापानी तो पहले कभी नहीं मिला । इस बार इतनी मात्रा में मिली है कि कई महीनों तक चला सकता है…। अब बचा-बचा कर पीने की क्या जरुरत ? जब चाहे वह जी भर पी सकता है । चाहे तो वह बेटों को भी उचित मात्रा में कई बोतलें दे सकता है । दोस्तों एवं पड़ोसियों को भी एक-दो बार पिला सकता है । एक तरफ जहाँ उसे इस बात कि खुशी थी कि खर्चापानी भरपूर मिला है, दूसरी तरफ वह परेशानी में उलझा महसूस कर रहा था । वह तय नहीं कर पा रहा था कि वोट किसे देना है ? तीन पार्टियों से खर्चापानी मिला था । उसने घर के सभी सदस्यों को बुलाया तथा उन्हें वहाँ ले गया जहाँ खर्चापानी रखा हुआ था । सभी देखते ही खुश हो गये, कोई पेटी छू कर देख रहा था, तो कोई बोतल निकाल कर हाथ में लेना चाहता था । किसी ने गिलास मंगवाया तो किसी ने पानी । उसने सभी को रोका,“सुनो., परेशान होने की जरुरत नहीं, खर्चापानी भरपूर मात्रा में मिला है, सबको इच्छाभर मिलेगा…, परंतु एक दिक्कत है । पिछले चुनाव में हमें एक ही पार्टी से खर्चापानी मिला था, इसलिये हमने उसी पार्टी को वोट दिया । इस बार स्थिति बदल गयी है । इस बार हमें तीन पार्टी से कई गुणा अधिक खर्चा–पानी मिला है, शराब की बोतलों से भरी एक पेटी हमें कृष्णानंद ने दी है, एक पेटी और कुछ रुपैये बेलाट सिंह की ओर से मिला है तथा दो पेटी हमें जयनंदन निषाद से मिली है। इस स्थिति में हम क्या करे ? किसी वोट दे ? आओ, सभी मिलकर इस समस्या का हल निकालते हैं । ” बड़े बेटे ने कहा,” सबसे ज्यादा खर्चापानी यानि कि दो पेटी शराब जयनंदन निषाद से मिली है, इसलिये हमें जयनंदन निषाद को वोट देना चाहिये । “ “ नहीं, नहीं, बेलाट सिंह ने भी हमें कम नहीं दिया है, एक पेटी शराब और कुछ रुपैये दिया है, वो कम नहीं है । हमें बेलाट सिहं को वोट देना चाहिये, “ मंझले बेटा ने अपनी राय रखी । “सुनिये, बेलाट सिंह और जयनंदन निषाद जीतने वाले नहीं है । उन्हें वोट देकर हमें मत बर्बाद नहीं करना है । कृष्णानंद ही जीतेगा, उसी को हमें वोट देना चाहिये, “छोटे बेटे श्यामू ने कहा । मंझला बेटा नाराज हो उठा, “ तब उनसे खर्चापानी क्यों लिया ? जब सबसे कम देने वाले को ही वोट देना था तो बाँकी दोनो को मना कर देते, उनसे नहीं लेते ।“ “ यह तो सरासर बेईमानी है, खर्चापानी लेने का क्या मतलब रह गया ? यदि खर्चापानी लिया है, तो ईमानदारी से हमें उसे वोट देना चाहिये, जिसने सबसे अधिक दिया है । “बड़े बेटे ने उसका समर्थन किया । श्यामू ने कहा, “ मुझे अपना मत बर्बाद नहीं करना है, हमें जीतने वाले को ही वोट देंगे । “ “मेरी बात सुनो, हम ऐसा भी कर सकते है कि जिसने सबसे ज्यादा खर्चापानी दिया है उसे दस वोट, उससे कम देनेवाले को आठ वोट और जिसने सबसे कम दिया है उसे सात वोट देकर कर्तव्य निभा सकते हैं, “तीसरे बेटे ने सुझाव दिया । “ यह तो विल्कुल गलत है, तब तो आगे से हमें खर्चापानी भी नहीं मिलेगा, “ बड़े बेटे ने कहा । “आपलोगों ने बहुत बड़ी गलती की है खर्चापानी लेकर… । क्या आपलोगों को पता नहीं, वोट के बदले किसी तरह का उपहार या धन लेना गैरकानूनी है? यदि पुलिस को पता चल गया और उसने छापामारी की तो हम सभी पकड़े जायेंगे । हमें सजा भी हो सकती है और आर्थिक दंड भी मिल सकता है । आपलोगों ने खर्चापानी क्यों लिया ?” गौरव ने गुस्से में कहा था । “ चुप्प, एक दम चुप्प, तुम्हें कानून बघारने की जरुरत नहीं है, “ झुलावन ने उसे चुप कराने की कोशिश की । वाद-विवाद में सभी उलझ गये थे, सभी जोर-जोर से वार्ता कर रहे थे । सबकी अपनी-अपनी राय थी । किसी एक पर सहमति नहीं बन पायी थी । किसी वोट दें ? किसे न दें… ? समस्या जस की तस खड़ी थी । झुलावन ने पहले तो सभी को चुप कराया, उसके बाद शांतिपूर्वक विचार-विमर्श करने को कहा था । जब सभी चुप हुए और धीमी आवाज में विचार-विमर्श कर रहे थे, तभी उन्हें बाहर शोर-शराबा सुनाई दिया, ऐसा लगा जैसे कोई पुकार रहा हो । “चलकर देखते हैं, बाहर कौन है? “ सभी बाहर गये । झुलावन आगे था तथा उसके पीछे सभी लोग । बाहर बाबादीन, कृष्णानंद के आदमी और जयनंदन निषाद के आदमी अपने-अपने लठैत के साथ खड़े थे । वे बहुत नाराज थे और गुस्से में दिख रहे थे । उन्हें देखते ही झुलावन घबड़ा उठा। उसने गिरगिराते हुए पूछा, “ क्या बात हो गयी ? इतनी रात को आपलोग यहाँ आये ? “ “ यह बता…, तू ने हम तीनों से खर्चापानी लिया है तो वोट किसे देगा ?” एक लठैत ने आँखें दिखाते हुए पूछा । झुलावन कुछ बोलने ही जा रहा था कि दूसरे ने कहा, “ तूने मेरे साथ छल किया है, तूने मुझसे भी खर्चापानी लिया है और उनसे भी… । बोल, क्या तू मुझे वोट देगा…?” “अबे बूढ्ढे , यदि तुम्हारा सारा वोट मुझे नहीं मिला तो मैं मार-मार कर तुम्हारी हड्डी पसली एक कर दूंगा । बता, मुझे वोट देगा या नहीं ।“ बाबादीन के लठैत ने धमकाया । स्थिति बिगड़ती देख झुलावन ने हाथ जोड़ लिया, “ मुझसे बहुत बड़ी गलती हो गयी, मुझे छोड़ दीजिये, मुझ बूढे पर दया कीजिये ।“ “ तुझ जैसा बेईमान पर दया करूँ ? मैं तुम्हारा वो हाल करुंगा कि तू खर्चापानी भूल जायेगा । “ जयनंदन निषाद के लठैत ने लाठी पटकते हुए कहा था । “ नहीं, हुजूर, हम तो आप ही को वोट देंगे ।“ “ मैं कैसे मान लूँ… कि तू मुझे ही वोट देगा ?“ कृष्णानंद के लठैत ने पूछा । “ हजूर, मैं आपको ही वोट दूंगा, मैं कह रहा हूँ न…, फिर भी…, यदि यकीन न हो तो आप अपना खर्चापानी वापस ले सकते हैं । “ फिर उसने सभी से कहा, “जिन-जिन को यकीन न हो वह अपना खर्चापानी वापस ले सकता है । श्यामू…, जा बेटा, सबका सामान बाहर लाकर रख दे । “ श्यामू एवं अन्य अंदर जाने लगे । तभी सभी ने उन्हें रोका, “ ठहरो, खर्चापानी अपने पास रखो, हम देखते हैं कि तुम किसे वोट देते हो, चुनाव के बाद तुमसे निपट लेंगे । “ वे कुछ देर तक खुशुर-पुशुर करते रहे, उसके बाद चले गये थे । रात अंधेरी थी । सुनसान सड़क पर केवल जेरी ही था जो भौंकता हुआ कुछ दूर तक उनके पीछे गया था । जब वह चुप हुआ तो नीरवता पुन: पसर गयी । वह झुलावन के पास आकर बैठ गया और उसका पैर चूमने लगा था । झुलावन ने उसकी ओर देखा, परंतु अभी उसे उसका सिर सहलाने की इच्छा नहीं हुई । उसके अंदर तीव्र बेचैनी थी । ऐसा लग रहा था, मानों किसी ने सीने में खंजर उतार दिया हो । दर्द से वह छटपटा रहा था । उसे बहुत बेईज्जति महसूस हुई थी—एक-दो पेटी शराब ही तो ली थी, कोई सोना-चांदी जैसा मंहगा सामान तो लिया नहीं, उसकी वजह से इसतरह की डाँटफटकार, मारने- पीटने पर वे उतारू हो गये थे । यह तो सरासर ज्यादती थी । खर्चापानी देकर उन्होंने मुझे गुलाम बना लिया क्या ? मैं उन्हें वोट नहीं दूंगा तो वे मुझे पीटेंगे ? मेरी हड्डी-पसली तोड़ देंगे ? यह मेरी ही गलती थी, जो मैं लालच में आ गया, उनसे खर्चापानी माँग लिया । अब वे संविधान द्वारा प्रदत्त मेरे अधिकार का दुरुपयोग करना चाहते है । क्या मैं उनकी इच्छानुसार मतदान करुंगा ? उसका मन असंतुलित हो उठा था । वह सभी राजानैतिक दलों को अनाप-शनाप बकने लगा और गालियाँ देने लगा था । उसने बेटों पर भी गुस्सा उतारा, बेटों को भी अक्लविहीन व बेवकूफ कहा था । उसके बाद वह अपनी ही गलती समझकर स्वंय को दोष देने लगा । कुछ देर बाद जब उसका मन थोड़ा सहज हुआ तो वह घर के अंदर चला गया । उसके बाद सभी एक-एक कर अंदर चले गये थे । चुनाव के दिन सभी नहा-धोकर तैयार हुए और झुलावन के पास आकर बैठ गये। वोट देना है…, नहीं देना है…, या किसे देना है ? अभी तक इसका निर्णय नहीं हुआ था । वातावरण में शुष्क मायूसी पसरी थी, झुलावन शांत चित्त बैठा था । उसके चेहरे पर सख्ती थी, लेकिन अचानक ही मुस्कराहट फैल गयी । उसने सबसे छोटे पोते के गोद में लिया और उसे प्यार करने लगा था । उसने सभी से कहा, “ बच्चों, मताधिकार संविधान द्वारा प्रदत्त ऐसा अधिकार है जिसके माध्यम से प्रजातंत्र की नींव रखी जाती है । सरकार के सभी महत्वपूर्ण पदों पर चुनाव में विजयी व्यक्ति ही आसीन होता है । इसलिये हमें बहुत ही समझदारी से मतदान करना चाहिये । राजनैतिक दलों के नेतागण बहुत ही चतुराई से वोट पाने की कोशिश करते हैं । वे सभी तरह की चाल चलते हैं । इसलिये हमें उनसे सावधान रहने की आवश्यकता है । उनके झांसे में आकर मतदान करने की जरुरत नहीं है । मुझसे एक भूल हो गयी, जिसका नतीजा तुम सबके सामने था । तुम सभी ने देखा कि वोट के लिये वे किस हद तक जा सकते हैं । इसलिये हमें इन नेताओं को दोस्ती-दुश्मनी, भाईचारा, जाति-धर्म, लेन-देन इत्यादि के आधार पर वोट नहीं करना चाहिये । हमें उसकी योग्यता के आधार पर वोट करना चाहिये । हमें यह देखना चाहिये कि कौन प्रत्याशी जीतने के बाद क्षेत्र का ख्याल रख सकेगा, ईमानदारी के साथ विकास का काम करेगा, लोगों के साथ अच्छा व्यवहार करेगा, समस्या दूर करने का प्रयास कर सकेगा इत्यादि के आधार पर हमें उसकी योग्यता का आंकलन करना चाहिये । अब मैं तुम्हें किसी के पक्ष में वोट करने के लिये बाध्य नहीं करुंगा और न ही किसी तरह का दबाव डालुंगा । तुम्हें स्वंय निर्णय लेना चाहिये । प्रत्येक व्यक्ति स्वतंत्रतापूर्वक अपनी बुध्दि का उपयोग कर यह तय कर सकता है कि किसे वोट देना है ? प्रत्येक प्रत्याशी के बारे में पूरी जानकारी प्राप्त कर लेनी चाहिये, उसके बाद ही सबसे योग्य उम्मीदवार के पक्ष में मतदान करना चाहिये । अब तुम सभी जाओ और सोच-समझ कर सबसे योग्य उम्मीदवार के लिये मतदान करो ।“ घर के सभी मतदान के लिए निकल पड़े थे । झुलावन सबसे पीछे था । वह बाद में तैयार हुआ । वह जब निकला तो अकेला था । रास्ते में वह विचार करते हुए जा रहा था कि वोट किसे देना है ? तभी जेरी आया, उसके इर्द-गिर्द सूंघा और साथ-साथ चलने लगा ।
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ग़ज़ल

ग़ज़ल

उसे सूरज कहूँ या आफ़ताब रहने दूँ। उसे चंद्रमा कहूँ या माहताब रहने दूँ।। मज़हब देखकर आती नहीं तकलीफें किसी को। फिर उसे पीड़ा कहूँ या अजा़ब रहने दूँ।। मुफ़लिसी में जो हर कदम साथ चला मेरे। उसे मित्र कहूँ या अहबाब रहने दूँ।। कई मज़लूमों के खूं से वो सनी होगी। उसे धन कहूँ या असबाब रहने दूँ।। मुस्तक़बिल का डर तो हर माँ बाप को होता है। फिर उसे चिंता कहूँ या इज़्तिराब रहने दूँ।। गुलामी में हर दिल से जो आग निकलती है। उसे क्रांति कहूँ या इंकलाब रहने दूँ।। ये मज़हबी ज्ञान जहाँ से पाया उसने। उसे पुस्तक कहूँ या किताब रहने दूँ।। हिमांशु तेरे सवालों में जो कहा सबने। उसे उत्तर कहूँ या जबाब रहने दूँ।। ~हिमांशु अस्थाना
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प्रेमचंद जयंती समारोह – 2019

प्रेमचंद जयंती समारोह - 2019

प्रेमचंद की 149वीं जयंती के अवसर पर हंस पत्रिका ने अपना  34 वां वार्षिक आयोजन ऐवान- ए- ग़ालिब सभागार, नई दिल्ली में आयोजित  किया। समारोह का विषय ,’राष्ट्र की पहेली और पहचान का सवाल’ था। कार्यक्रम में अपनी बात रखते हुए हरतोष सिंह बल ने कहा कि अगर हम अपनी पहचान का विश्लेषण कर सकेंगे तो राष्ट्र के परिभाषा की पहेली अपने आप सुलझ जाएगी। हमें ये समझना होगा कि हम अपनी पहचान से राष्ट्र को नहीं जोड़ सकते लेकिन अपनी पहचान को राष्ट्र से जरूर जोड़ सकते हैं। मसलन जैसे मैं जाट हूं, मैं पंजाबी हूं या सिख हूँ तो इसका मतलब यह हुआ कि पंजाबी मेरी भाषा है और मैं  हिंदू धर्म के दायरे से बाहर खड़ा हुआ हूं। याद रखिये, भूगोल, भाषा और इतिहास को लेकर अगर राष्ट्र बनता है तो यहां उपस्थित सभी लोगों का अपना अलग- अलग राष्ट्र होता। क्योंकि यहां उपस्थित सभी लोगों की अपनी अलग भाषा है और अपना अलग इतिहास है। अगर राष्ट्रवाद गाय पर आधारित है, किसी के रंग रूप पर आधारित है, किसी के जाति पर आधारित है, यदि इन सब पर इसकी परिभाषा निर्भर करती है तो मैं कहना चाहूंगा कि मैं इस राष्ट्रवाद का अलगाववादी हूँ।  

प्रसिद्ध लेखिका अनन्या वाजपेई ने विषय पर अपनी बात रखते हुए कहा कि मैं सबसे ज्यादा मौजूदा समय में परेशान हूं, जो बात मुझे सोने नहीं देती, वो बात है कि जो आए दिन यह मॉब लिंचिंग की घटनाएं हो रही है उससे मैं सच में बहुत आहत हूं। यह कैसे हो रहा है कि बहुसंख्यक को अल्पसंख्यकों से भय हो रहा है। मतलब जिनकी संख्या ज्यादा है उन्हें कम संख्या वाले लोगों से भय उत्पन्न हो रहा है और वह परभक्षी बनने की ओर अग्रसर होते जा रहे हैं। यह जहर उनमें कैसे पैदा हुआ, किसने पैदा किया इस पर विचार करने की जरूरत है। लेकिन संख्या के आंकड़े में तो कम संख्या वालों को डरना चाहिए ज्यादा संख्या वालों से. पर यहां पर बहुसंख्यक अल्पसंख्यकों से डर रहे हैं। आज वह इस बात पर भीड़ को संतुष्ट कर पा रहे हैं कि जिनसे हमें नफरत है उनको कम करना ही एकमात्र उपाय है। यह सब कितना दुखद है, चिंतनीय है कि हम ऐसे राष्ट्र में रह रहे हैं जहां पर संविधान को धता बताते हुए कुछ लोग एक भीड़ बनाते हैं और वह किसी दूसरे जिनसे वह नफरत करते हैं उनको कहते हैं कि तुम्हें संविधान भी नहीं बचा सकता और तुम्हारी मौत निश्चित है।क्योंकि दो चीजें हैं यहां पर एक तो है हम और दूसरा है वे, हम कहते हैं कि वे, वे हैं इसलिए हम उनके साथ नहीं रह सकते लेकिन यह कितना अच्छा हो कि हम, हम रहे और वे, वे रहे भले ही वैचारिक मतभेद हो, संस्कृति में भेद हो लेकिन साथ रहने की कल्पना की जा सकती है। क्योंकि अब तक हम साथ रहते आए हैं आप सोचिए की जय श्री राम के नाम पर एक गीत बनता है और उसमें कहा जाता है कि जो जय श्री राम नहीं कहेगा उसे हम कब्रिस्तान भेजेंगे उसे हम दफ़नाएँगें। इसमें दो शब्द है कब्रिस्तान और दफनाना यह उनकी संकीर्ण सोच को परिलक्षित करता है और हम सबको इसका विरोध करना चाहिए ।क्योंकि इस बात का हम समर्थन करते हैं तो हम अपने साथ अन्याय करते हैं और आने वाले भविष्य के साथ भी अन्याय करते हैं।

नलसार यूनिवर्सिटी ऑफ लॉ के कुलपति डॉ फैजान मुस्तफ़ा ने अपने सम्बोधन में कहा कि मैं यह कहना चाहूंगा कि उस लीडर को मैं सलाम करता हूं जिसने बहुसंख्यकों के मन में अल्पसंख्यकों का भय डाल दिया। मेरे हिसाब से होना उल्टा चाहिए था कम लोगों को उन से डरना चाहिए था जो संख्या में ज्यादा लोग हैं। 1947 में बहुसंख्यकों के पास यह विकल्प नहीं था कि वह पाकिस्तान चले जाएं वह विकल्प सिर्फ अल्पसंख्यकों को था कि वह पाकिस्तान जाएं या भारत में रहे। पर उन्होंने सोचा समझा परखा और कहा कि हमें पाकिस्तान वाला राष्ट्र ज्यादा पसंद हैं, हमें हिंदुस्तान वाला राष्ट्र पसंद है, हमें भारत पसंद है, इसलिए हम यहीं रहेंगे। इस बात को हम सब को समझना होगा कि मुसलमान चांस से यहां नहीं है बल्कि अपने चॉइस की वजह से यहां है। मैं बता दूं कि संविधान में दो तरह की अल्पसंख्यकों के बारे में परिभाषित किया गया है धर्म के आधार पर जिसे रिलिजियस माइनॉरिटी कहा जाता है। दूसरा भाषा के आधार पर जिसे लिंग्विस्टिक माइनॉरिटी कहा जाता है। इस तरह से देखें तो जो लोग अपने आप को बहुसंख्यक कह रहे हैं वह भी कई राज्यों में अल्पसंख्यक हैं। यह कितना भयावह है कि मेजॉरिटी, माइनॉरिटी को बता रहा है कि तुम्हें संविधान भी नहीं बचा सकता है। 

साहित्यकार पुरुषोत्तम अग्रवाल ने प्रेमचंद को याद करते हुए उनकी रचना रंगभूमि के बारे में और उसके किरदार ताहिर अली के बारे में सबको अवगत कराया और बताया कि वह किसी दलित की कहानी नहीं, वह किसी मुसलमान की कहानी नहीं थी, वह कहानी थी आम आदमी की जो रोज आर्थिक और सामाजिक समस्याओं से जूझता है। मैं कहना चाहता हूं कि किसी भी समस्या को तुच्छ न बनाएं। क्योंकि हिंसा की स्वीकृति ही समाज को बीमार बनाती है। कुछ लोग कहते हैं कि प्रेमचंद ने पहले उर्दू में रचना की बाद में हिंदी में रचनाएं लिखी। पर मैं उन्हें बता देना चाहता हूं कि अपने अंतिम समय तक प्रेमचंद ने दोनों भाषाओं में रचनाएं लिखी। अगर बात रंगभूमि की करूं तो उसको उन्होंने पहले उर्दू में लिखा था, बाद में हिंदी में लिखा लेकिन प्रकाशित हिंदी में पहले हो गया। आज लोगों को भाषा के आधार पर बांटा जा रहा है, जाति के आधार पर बांटा जा रहा है। मैं उन्हें बता देना चाहता हूं कि पहले लोग पढ़े लिखे थे, अब पढ़ तो लेते हैं पर शिक्षित नहीं हो पाते हैं क्योंकि पहले तो ऐसा होता था कि निराला, महात्मा गांधी के सामने अपनी तार्किक विरोध करते हुए अपनी बात रख देते थे और बिल्कुल भी नहीं घबराते थे।

कार्यक्रम की अध्यक्षता, रचना यादव ने की। कार्यक्रम का संचालन पत्रकार प्रियदर्शन ने किया। इस मौके पर ग़ालिब सभागार में दिल्ली के प्रसिद्ध साहित्यकार, रचनाकार, कवि, पत्रकार, के साथ साथ शिक्षक-शिक्षिकाएं एवं छात्र- छात्राएं मौजूद रहे | शोभा अक्षर

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ज़िंदगी

ज़िंदगी

वक़्त रेल की पटरी सा होता है, जो ज़िंदगी को टेढ़े-मेढे रास्तों से ले जा कर मंजिल तक पहुंचा ही देता है। और जिंदगी होती है गाड़ी की तरह। धीमी गति से शुरू होती है फिर धीमे-धीमे स्पीड पकड़ती है, फिर कोई स्टेशन आ जाता है फिर रुक जाती है। फिर धीमी गति से चलना शुरू होती है फिर कोई स्टेशन आ जाता है और वह फिर रुक जाती है। और फिर से अगले स्टेशन की ओर गति बढ़ाती चल पड़ती है। मज़े की बात तो यह है कि हर स्टेशन की कोई कहानी होती है, हर स्टेशन पर गाड़ी का रुकना जरूरी होता है। ज़िंदगी अगर एक्सप्रेस गाड़ी की तरह बिना रुके एक ही गति से सीधा मंजिल पर आकर रुके तो बहुत सी कहानियां पीछे छूट जाती हैं और मंजिल तक पहुंच जाने पर भी कुछ होता नहीं, होता है तो सिर्फ खालीपन। और इस खालीपन को भरने के लिए फिर से कोई गाड़ी पकड़ते हैं और यह सिलसिला चलता रहता है आखिरी दम तक। और आखिरी वक़्त में भी सोचते हैं कि कोई और गाड़ी पकड़ लेते तो शायद सफर कुछ और ही होता! कहानियों की तरह ज़िंदगी भी इसी प्रकार रहस्यमय प्रतीत होती है।
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आज़ादी

आज़ादी

क्यूँ नहीं उड़ सकते हम अकेले जब भी जहाँ जाना चाहे क्या कभी आएगा वो दिन जब बिन सोचे हम उड़ पाये ! सोचते है हम आज़ाद हैं  सिर्फ मन का भ्रम है यह फिर क्यूँ अँधेरा होते ही भागते है अपने घोंसलो में ! क्यूँ उड़ना होता है एक झुंड को साथ लेकर संग कहाँ है आज़ादी हमको कोई यह तो बतलाये ! कुछ तो ऐसा करो सब मिल कर अकेले ही उड़ पाये क्यूँ नहीं ऐसी सजा मिले हर शिकारी रावण को कि कोई रावण ही ना बन पाये हमारे जंगल को स्वतंत्र कराओ और हम को आज़ादी दिलवाओ !
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बिहार हूँ मैं।

बिहार हूँ मैं।

चाणक्य की नीति हूँ , आर्यभट्ट का आविष्कार हूँ मैं । महावीर की तपस्या हूँ , बुद्ध का अवतार हूँ मैं। अजी हाँ! बिहार हूँ मैं।। सीता की भूमि हूँ , विद्यापति का संसार हूँ मैं। जनक की नगरी हूँ, माँ गंगा का शृंगार हूँ मैं। अजी हाँ! बिहार हूँ मैं।। चंद्रगुप्त का साहस हूँ , अशोक की तलवार हूँ मैं। बिम्बिसार का शासन हूँ , मगध का आकार हूँ मैं। अजी हाँ! बिहार हूँ मैं।। दिनकर की कविता हूँ, रेणु का सार हूँ मैं। नालंदा का ज्ञान हूँ, पर्वत मन्धार हूँ मैं। अजी हाँ! बिहार हूँ मैं। वाल्मिकी की रामायण हूँ, मिथिला का संस्कार हूँ मैं पाणिनी का व्याकरण हूँ , ज्ञान का भण्डार हूँ मैं। अजी हाँ! बिहार हूँ मैं। राजेन्द्र का सपना हूँ, गांधी की हुंकार हूँ मैं। गोविंद सिंह का तेज हूँ , कुंवर सिंह की ललकार हूँ मैं। अजी हाँ! बिहार हूँ मैं।।
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लखनऊ और आज़ादी का कैनवास

लखनऊ और आज़ादी का कैनवास

“आप लखनऊ से है क्या, आपके लहजे से लगता है?” मुंबई में हाल ही में शुरू हुए मेरे कोर्स के एक साथी ने जब ये सवाल पूछा तो मैं एक मिनट को रुक गयी। मैं जोधपुर, राजस्थान में पली-बढ़ी हूँ। लखनऊ से रिश्ता महज ५ साल पहले पढ़ाई के लिए शुरू हुआ। पर ये कहना कि “मैं लखनऊ से नहीं हूँ”, अपने और लखनऊ के बीच एक ऐसी दूरी खड़ी कर देना था जो मुझे मंजूर नहीं। मैं यही कह सकी कि, “हूँ तो जोधपुर राजस्थान से, पर लखनऊ में पढ़ी हूँ, और उस शहर से बहुत मोहब्बत करती हूँ।” (बेचारा, इतनी सारी एक्स्ट्रा इन्फॉर्मेशन सुनकर झेंप गया।) लखनऊ से मेरा क्या सम्बन्ध है? मेरी नज़र में, कुछ राधा-कृष्ण का सा सम्बन्ध है, जहाँ कनुप्रिया राधा यही पूछती रह गयी क़ि “तुम मेरे कौन हो, कनु?” मेरे लिए भी इस सवाल का कोई जवाब नहीं क़ि लखनऊ मेरे लिए क्या है?लखनऊ से मेरा सम्बन्ध क्या है? कभी लगता है क़ि लखनऊ शायद मेरे लिए मेरा नैहर है, जो अब मुझसे छूट गया है। पर कभी-कभी ये भी लगता है क़ि शायद लखनऊ मेरा बेनाम ‘लव अफेयर’ है। थोड़ा नाज़ायज़ भी लग सकता है क़ि आप जहाँ के है नहीं, जहाँ आप सिर्फ चंद दिन पढ़ने आये, वो आपकी इतनी गहरी मोहब्बत कैसे हो सकता है। ये लेख बस कोशिश है यह जानने की क़ि लखनऊ मेरा कौन है? एक चेतावनी अपनी बात की शुरुआत में ही ये चेतावनी देना चाहूंगी क़ि मेरा लखनऊ को देखने का नजरिया उन लोगों से अलग हो सकता है जो वहाँ के पुराने वासी हैं। मेरे लिए नया फैलता हुआ लखनऊ – शहीद पथ, गोमती नगर भी उतना ही लखनऊ हैं जितना हज़रतगंज या पुराना लखनऊ, क्योंकि मेरे जीवन में नया/पुराना लखनऊ सब एक साथ दाखिल हुआ हैं। मैंने भी यहाँ क्लासेज छोड़ कर सिनेमा देखा, पर साहू में नहीं, फीनिक्स मॉल में। पुराने लखनवी मेरे अनुभव को कुछ अजीब और कुछ हद तक अधूरा भी पा सकते हैं। पर मेरे लिए वो पूर्ण है क्योंकि वो मेरा अपना है। बाकि आप चाहे तो इसे एक बाहर वाले का दृष्टिकोण भी मान सकते है। लखनऊ, एक मध्यम मार्गी बुद्ध मैं ७ जुलाई २०१३ को, १७ साल की उम्र में यहाँ आयी और १३ मई २०१८ तक, यानि २२ की होने तक यहाँ रही। इस उम्र में लखनऊ आना मेरी खुशनसीबी थी। ये बात लखनऊ के प्रति अपनी मोहब्बत के कारण नहीं, बल्कि बड़े ‘ऑब्जेक्टिव बेसिस’ पर कह रही हूँ। ( सही बता रही हूँ, आज कल ऑब्जेक्टिव होना बड़ा दुर्लभ है) जिस उम्र में, मैं यहाँ आयी वो जवानी का शुरुआती दौर कहलाता है जहाँ आप परिपक्वता के पहले-पहले अनुभव पाते और सीखते हैं। कुछ-न-कुछ नया सीखने की कोशिश में लगातार लगे रहते हैं। पर इस सीखने-सिखाने के लिए मध्यम मार्ग जरुरी है, अन्यथा आप ‘अति’ के चक्रव्यूह में फंस सकते है, ऐसा मेरा मानना है । और लखनऊ इस नज़र से एक शहर के तौर पर बिलकुल सही है क्योंकि लखनऊ एक मध्यम मार्गी बुद्ध सा है । बड़े और छोटे दोनों तरह के शहरों के बोझों से इतर है। यहाँ न बड़े शहर की मारामारी है और ना ही छोटे शहर की कुण्ठाएँ. इसीलिए यहाँ शहर सम्बन्धी ‘बैगेज’ के बिना स्वाध्याय संभव है। मुझे लखनऊ ने इन पाँच सालों में इसी नशीली स्वाध्याय प्रक्रिया में लगाए रखा और यही मेरी खुशनसीबी थी। खोज? मगर किसकी? हम साधारण तौर पर किसी नए शहर में जाने पर भी नयेपन से भागते है और नए में भी अपना पुराना कुछ खोजते रहते हैं। मैं भी शुरुआत में इस शहर से भागती थी, अपना जोधपुर यहाँ ढूँढती थी। कहीं-कहीं जोधपुर मिला भी पर धीरे-धीरे लखनऊ ने मुझे अपने सामने रखा वैसे, जैसा किसी रिश्ते में होता है, जहाँ सामने वाला परत दर परत अपने आपको आपके सामने रखता है। लखनऊ को जानने- खोजने का सफ़र, यूनिवर्सिटी के पास बैग ठीक करवाने की दुकान ढूँढने से शुरू हुआ और फिर जैसा किसी भी नए शहर को खोजने जानने की प्रक्रिया में होता है, मेरा सफर भी सर्वप्रथम लखनऊ शहर की जानी- मानी जगहों बड़े इमामबाडे, छोटे इमामबाड़े पहुँचा। यहाँ पहुँचते- पहुँचते कई टूरिस्टों वाली हरकतें भी की, रिक्शा वालों से लूटे भी गए । ये लखनऊ को जानने की पहली परत थी । मुख्य-मुख्य जगहों पर जाने के बाद मुझे एक ऐसी तलब लगी जहाँ शहर को टुंडे कबाब और रेसीडेंसी से आगे जानना चाहा । एक ‘टूरिस्ट’ बन कर नहीं, बाहर से नहीं, बल्कि शहर का हिस्सा बनकर शहर की नब्ज को जानना चाहा । ये तलब लखनऊ के प्रति धीमे-धीमे चढ़ते हुए सुरूर और जोधपुर में अपने परिवार वालों के सामने शहर की ‘एक्सपर्ट’ साउंड करने की चाह दोनों के मिश्रण का नतीजा थी । पर इसके पीछे तीव्र इच्छा थी एक घर ढूंढने की । जोधपुरवासी अब रह नहीं गए थी, इसलिए लखनऊवासी होना चाह रही थी । एक शहर से बेदखल हो गयी थी इसलिए एक नए शहर में दखल चाह रही थी । मेरा सारा प्रयास यह था कि मैं लखनऊ के बारे में लखनऊ वालों की तरह बात कर सकूँ । खैर! तो फिर दौर शुरू हुआ ‘खोज’ का। खोज? वास्तव में मैंने इस शहर को ‘खोजा’ है। कभी काकोरी में पूछ- पूछ कर नवाब आसफुद्दौला के प्रधानमंत्री टिकैतराय द्वारा बनाए गए शिव मंदिर को तो कभी ठाकुरगंज की टेढ़ी-मेढ़ी गलिओं में बेगम अख्तर की मज़ार को । ऐन हजरतगंज में बसे सिब्ब्तैनाबाद इमामबाडे को भी खोजा है मैंने, किताबें पढ़-पढ़ कर, रास्ते पूछ- पूछ कर, गलियाँ ढूँढ-ढूँढ कर। मुख्यमंत्री आवास के आगे का रास्ता लोहिया पथ है- यह भी तो खोजा ही है। सफ़ेद बारादरी, लाल बारादरी, शाह नज़फ इमामबाड़ा, खुर्शीदजादी का मक़बरा- आप इन जगहों के महत्व को तभी समझ सकते है जब आप एक टूरिस्ट या एक बाहर वाले की दृष्टि का परायापन छोड़ कर इस शहर को अपना घर मानकर देखने लगे, शहर के अपने होने की कोशिश करने लगे । वास्तव में, आप इन जगहों के बारे में बिना कोशिश के जान भी नहीं पाएंगे जब तक क़ि आप पढ़ कर, पूछ कर इन्हें ‘खोजे’ ना। और इसीलिए मैं कहती हूँ क़ि मैंने इस शहर को खोजा है। आप इसे ऐसे समझ सकते है क़ि लखनऊ तो अपनी साऱी मंज़िलों, बागों, गंजों, मक़बरों के साथ हमेशा से था । मैंने बस अपने सम्बन्ध में उनके पते और अपने राब्ते से उनके नए अर्थ ढूंढे हैं। ये वास्तव में लखनऊ के करीब आने की, बाहर का ना होकर, उसका अपना होने की कोशिश भर थी। हालांकि एक गम रहेगा कि मीर अनीस की मज़ार नहीं जा सकी। वास्तव में आज पीछे देखने पर एहसास होता है क़ि मैं शहर को खोजते- खोजते खुद को, अपनी हिम्मतों, बहादुरियों और उनकी सीमाओं को खोज रही थी । और कब लखनऊ को खोजना और खुद को खोजना एक ही हो गया, पता ही नहीं चला । इस ‘खोज’ का नतीजा ये है क़ि पहला, मुझे एक स्तर तक आत्म जागृति और आत्म अनुभूति प्राप्त हुई और दूसरा क़ि लखनऊ की ना होकर भी लखनऊ कुछ-कुछ मेरा और मैं कुछ-कुछ लखनऊ की हो गयी। (इस खोज का एक तीसरा नतीजा ये निकला क़ि मैं लखनऊ आने वाले हर मित्र, हर रिश्तेदार के लिए ‘टूरिस्ट गाइड’ बन गयी और वो भी मुफ्त की!!) लखनऊ और राजनीति लोक सभा में ८० सीट वाले राज्य की राजधानी होने के नाते लखनऊ को जानने की एक परत राजनीति से होकर गुजरे, तो ये लाजमी ही है । इस शहर ने मेरी राजनैतिक समझ को बढ़ाया। स्टेशन से पहली बार उतरते ही यूनिवर्सिटी के रास्ते में पड़ने वाले बड़े-बड़े पार्क राजनैतिक समझ की ओर पहले कदम थे, पहले ही दिन। पिछले पाँच सालों में अम्बेडकर जयंती पर अम्बेडकर पार्क पर भरे मेले से लेकर गाँधी मूर्ति पर हर दम चलने वाले धरने- प्रदर्शन ने हर तरह के लोगो- सोशलिस्टों, अम्बेडकरवादियों, गाँधीवादियों, कम्युनिस्टों के प्रति मेरी समझ को बढ़ाया। (पर लखनऊ का खास शुक्रिया सोशलिस्टों और कम्युनिस्टों से मिलाने के लिए, वो आज कल विलुप्त होती प्रजाति है। ) बात मोहब्बत की जवानी और लखनऊ के ज़िक्र में मोहब्बत का ज़िक्र ना करना, लखनऊ और जवानी दोनों की बेइज़्ज़ती करना होगा। ये शहर मोहब्बत करने के बड़े मौके देता है । इस शहर ने मुझे मोहब्बत भी दी और मोहब्बत का हाथ थाम कर चलने के लिए रिवर फ्रंट और मरीन ड्राइव भी दिया। (हालाँकि एंटी- रोमियो स्क्वाड का भय बना रहता था।) सच मानिये आज कल मोहब्बत करने वालों के लिए शहरों में ज्यादा स्पेसेस हैं नहीं। मोहब्बत करना आज के युग में भी एक क्रांतिकारी गतिविधि है, खास कर लड़कियों के लिए. क्योंकि हमारे यहाँ लड़कियां मोहब्बत नहीं करती उनकी बस शादी कराई जाती है। मोहब्बत करने वाली लड़कियां ‘बुरी लड़कियां’ होती हैं। लखनऊ ने मुझे अपने इस ‘बुरी लड़की’ रूप से मिलवाया जो जाति और धर्म के बंधनों के आगे मोहब्बत करने की आज़ादी और हिम्मत रखता है । ये शायद घर से दूर आने पर मिली आज़ादी में किसी भी और बड़े शहर में हो सकता था । पर लखनऊ में कुछ ऐसा है कि, बात “मैं एक औरत हूँ और मुझे भी मोहब्बत करने का हक़ है”- यहाँ से शुरू होकर व्यक्तिगत आज़ादी के बड़े कैनवास पर पहुंच गयी । मोहब्बत की बहादुरियाँ सिखाते-सिखाते लखनऊ मेरे भीतर बहादुरी और आज़ादी की गंगोत्री बना गया. अब ये गंगा चाहे जहाँ बह ले, गंगोत्री लखनऊ ही होगा । मेरे लिए लखनऊ की सबसे महत्वपूर्ण बात क्या है? इतनी सारी बातों के बीच मेरे लिए भी एक सवाल है कि लखनऊ का सबसे बड़ा महत्व क्या है? मुझे लगता है कि लखनऊ ने मुझे एक ऐसा संस्कार दिया है जो मुझे ताउम्र एक बेहतर इंसान, एक बेहतर श्रोता और एक बेहतर मोहब्बत करने वाला बनाता रहेगा । यह संस्कार है- सामाजिक सौहार्द का संस्कार, बेगम आलिया के हनुमान जी के दर्शन का संस्कार, मनकामेश्वर मंदिर में इफ्तार आयोजित होने का संस्कार । हर तरह की संस्कृति और धर्म के प्रति आनंद का ये संस्कार अपने से अलग, अपने से इतर हर व्यक्ति, समाज, परिवेश की ओर भिन्नताओं से आगे बढ़ देखने की नज़र पैदा करता है । सच मानिये भारत के लोकतंत्र की जरुरत है ये । एक देश, एक भाषा, एक धर्म, एक रंग, ये सब अपने आप में बड़ा गैर- भारतीय विचार है । भारतीयता शायद वह है जो मुझे लखनऊ ने सिखाई । ये संस्कार निजी दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है क्योंकि ये रिश्तों में भी आवरण सम्बन्धी परेशानियों, भेदों से आगे और ऊपर प्रेम और सहजीवन को महत्व देता है । कुछ बेवकूफियां- ये कतई नहीं कि लखनऊ एकदम सयाना, समझदार शहर है । कभी-कभी तो अजीब पागल सा भी लगता है । जैसे – मरीन ड्राइव को लीजिये. ऐसा लगता है एक टीनएजर की तरह जिद्द पाल कर बनाई गयी हो! बिना समुद्र के मरीन ड्राइव । विशाल, विपिन, विनीत!!- सारे गोमती नगर में सारे खंड, ‘व’ से शुरू होते हैं, जैसे वास्तु- ज्योतिष पूछ कर रखे हो । ऐसा मह्सूस होता है कि गोमती नगर में शायद वही लोग रहते होंगे जो चाहते ही नहीं कि लोग उनका पता ढूंढ सके और उनके घर पहुँच सके । इसी तरह अमीनाबाद में बाजार का नाम गड़बड़झाला क्यों है? अपने घर वालों को ये समझाने में इतना वक़्त बीत गया कि गड़बड़झाला एक जगह है, संज्ञा है । मेरे द्वारा किसी बाज़ार के गुणों को समझाने के लिए इस्तेमाल किया गया कोई विशेषण नहीं । कुछ वास्तविक परेशानियां बताती हूँ जो लखनऊ को समझने-समझाने में हुई- जैसे मैं आज तक अपने बाबा को नहीं समझा सकी हूँ कि दही के साथ जलेबी कैसे खाते है? (जोधपुर में दूध जलेबी खाने का रिवाज़ है) । दूसरा कि समोसों में हल्दी क्यों नहीं डाली जाती? (ये बात तो शायद उत्तर प्रदेश के बहुत हिस्सों पर लागू होती है ।) चंद मश्वरे- लखनऊ के सम्बन्ध में ज्यादा मश्वरे देने की जरुरत नहीं होती, ये शहर खुद-ब-खुद धीरे-धीरे आपको मश्वरे देता रहता है अगर आप ध्यान से देखो, सुनो और परखो । पर फिर भी चंद मश्वरे जरूर दूंगी- पहला, जब भी अकेले रहना चाहो, तब शहीद पथ जरूर जाना, बस गाड़ी ध्यान से चलाइये। दूसरा, मेट्रो नयी-नयी बनी है। बेवजह मेट्रो में सफर जरूर करना । वजह से सफर करने लायक तो अभी वो है भी नहीं । अधिकांशत: खाली-खाली सी रहती है । अपनी मोहब्बत का हाथ थामे कृष्णा नगर से चारबाग़ जाना और लौट आना । इससे ज्यादा आप हिन्दुस्थान में अपनी मोहब्बत का हाथ थामे सार्वजानिक स्थानों पर नहीं चल सकते । तीसरा और सबसे महत्वपूर्ण सुझाव- प्रधानमंत्री टिकैतराय के शिव मंदिर और बेहटा पुल को देखा तो बहुत दुःख हुआ । लखनऊ के सामाजिक और धार्मिक सौहार्द का प्रतीक ये मंदिर ज़र्र-ज़र्र भी है और गुमनाम भी । ASI का बोर्ड लगा है पर न तो आस-पास की जनता को कुछ ज्ञात है और न ही उसके रखरखाव का कोई प्रबंध । कोई हमें यह तक नहीं बता सका कि मंदिर आखिर है कहाँ? कोई कहता ५ किलोमीटर, तो कोई कहता १ किलोमीटर । लखनऊ शहर और उसकी इमारतें, भारतीयता के कई महत्वपूर्ण गुणों की अगवाई करती है। इन इमारतों को खोने दे । इन्हें संरक्षण और प्रचार दोनों की जरूरत है । और अंत में, जब लखनऊ के बारे में लिखने बैठी तो लगता रहा कि (जैसा वाजिद अली शाह ‘अख्तर’ ने लिखा है) कि चमन छूटा तो छूटा था,मज़ाक़-ए-रंग-ओ-बू छूटा. छूटी आदम से जन्नत, और हमसे लखनऊ छूटा. पर वास्तव में, हमसे लखनऊ नहीं छूट सकता । अलबत्ता लखनऊ हम ‘में’ छूट गया है । जहाँ जायेंगे लखनऊ हममें बना रहेगा, अपने आपको सामने लाता रहेगा, चुपके- चुपके मुस्कुराता रहेगा। मैं चाहूंगी कि मुझे जीवन वापस लखनऊ लाये और मैं जब भी यहाँ आऊं लखनऊ मुझे ऐसा ही मिले- हल्का जागता, हल्का सुरूर में, थोड़ा सा भागता पर ढेर साड़ी फुर्सत में, धक्का ना मारे पर ‘अमा यार आगे बढिये” कहता हुआ । और जब तक ये नहीं होता तब तक मैं जहाँ जाउंगी लखनऊ को याद कर अपना मटियाबुर्ज बनाती रहूंगी । -सुरभि करवा, डॉ. राम मनोहर लोहिया राष्ट्रीय विधि विश्विद्यालय {जिसे लखनऊ वाले ‘आशिआना लॉ कॉलेज’ के नाम से जानते हैं } में ५ वर्षों तक कानून की पढाई कर रही थी। आजकल दिल्ली में कार्यरत है।