सशक्तिकरण का बीजारोपण
सशक्तिकरण का बीजारोपण
———————————-
महिला दिवस से तात्पर्य ‘एक दिन महिलाओं का’ से कदापि नहीं है बल्कि ये महिलाओं में सशक्तिकरण का बीजारोपण, उनकी जाग्रति की कहानी का पहला स्तम्भ है। पराधीनता की मानसिकता से बाहर आकर स्वधिकार की चेतना का संचार करने वाला यही वह महत्वपूर्ण दिन है, जहाँ से महिला ने अपने पूर्वाग्रहों को पटखनी देकर उनसे छुटकारा पाने का अभूतपूर्व साहस किया था।
बात सन 1908 न्यूयार्क शहर की है तब वहाँ महिलाओं पर अप्रत्यक्ष रुप से दबाव डाल कर उनकी शारीरिक क्षमताओं से ज्यादा कार्य करवाया जाता था और वेतन भी पुरुषों की तुलना में कम होता था। इसी बात से क्षुब्ध होकर महिलाओं ने विद्रोह की ठानी और उसे क्रियान्वित किया उस वक्त करीब पन्द्रह हजार महिलाओं ने उसमें हिस्सा लिया था, जिसमें उन्होनें एकजुट होकर अपने वेतन को बढ़ाने, कार्य के समय अवधि कम करने और मतदान के अधिकार की बात उठाई थी। हम यहाँ पर कह सकते हैं कि शुरुआती तौर पर ये अपनी माँगों को मनवाने वाला सिर्फ मजदूरी आन्दोलन ही था। लेकिन धीरे- धीरे इसकी आवाज़ सोशलिस्ट पार्टी ऑफ अमेरिका तक जा पहुँची।
सन 1910 में क्लॉरा जैटकिन ने विश्व के लगभग सत्रह देशों से आई सौ से ज्यादा महिलाओं का प्रतिनिधित्व करते हुये ‘महिला दिवस’ के प्रस्ताव को रखा, जिसे प्रेस कांफ्रेंस कर औपचारिक घोषणा से इसे पारित किया गया।
9011 में सबसे पहले ये दिवस आस्ट्रिया, डेनमार्क, जर्मनी और स्वीजरलैंड में एक साथ पूरे जोर- शोर से मनाया गया। उसके करीब चौसठ साल बाद सन 1975 में इसको अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर मान्यता तब मिली जब रुस में महिलाओं ने आन्दोलन कर निकोलस को पद छोड़ने के लिये विवश किया था। शुरुआती दौर में इसे 28 फरवरी को मनाया गया था उसके बाद सर्वसहमति से 8 मार्च की तारीख तय की गयी।
महिलाओं की कार्य शैली,समय बद्धिता और कार्य के चुनाव सहित छोटे-मोटे हर अधिकार उनके हाथ में थे ही नही, जिसको एक दूसरा तथ्य -कथित समर्थ वर्ग संचालित कर रहा था, यह एक दुखद विचारणीय बात है।
ईश्वर ने भिन्न आकार-प्रकार की भिन्न रचनाओं को किसी उद्देश्य के तहत ही दो वर्गों में बाँटा है। दोनों की अपनी महत्वता, अपना कारण और अपना संचालन है जहाँ तुलनात्मक होना, भेद रखना या कमतर आँकना न्यायप्रद नही है सृष्टि के संयोजन, निर्माण और विस्तार के लिये ये आवश्यक है, एक भी पक्ष के बगैर ये सम्भव नही है और यही सोच प्रकृति की भी रही होगी। बावजूद इसके एक वर्ग कमजोर और दूसरा सत्तात्मक होता गया। इसके कारणों को हम इस तरह देख सकते हैं।
सभ्यता के आरम्भ में मनुष्य के पास खेती ही मुख्य व्यवसाय था जहाँ से अनाज उगा कर उसने भोजन के रुप में अपनाया था उसके बाद से ही मनुष्य माँसाहार से शाकाहार पर परिवर्तित हो पाया था। तब महिला सभी कृषि कार्यों को संभाला करती थी। कहते तो ये भी हैं कि उस वक्त आग से लेकर खेती तक सारे अविष्कार महिला के द्वारा ही किये गये। उस समय पुरुष की रुचि व्यवसाय में नही भोजन पकाने में ज्यादा थी। उसे जानवर मार कर खाने के मुकाबले में अनाज उगाना कठिन कार्य लगा और वह इससे बचने लगा।
धीरे-धीरे महिलाओं का सशक्तिकरण बढ़ने लगा। बाहरी सत्ता उसके हाथ में थी। पुरूष आर्थिक तौर पर महिला पर निर्भर था। वह बच्चा पैदा करती और पुरुष उसे पालता, महिला खेती, व्यापार करती पुरुष उसे संभालता। वहाँ एक समस्या शिशुओं के स्तनपान की खड़ी हुई शिशु को गोद में लेकर शारीरिक कार्य में अवरोध आने लगा दूसरे महिला के मासिक चक्र के दौरान उससे आने वाली शारीरिक दुर्बलता, पीड़ा और रक्त के रिसाव से असहजता भी एक कारण बनी। ज्ञात हो उस वक्त पर्याप्त साधनों का आभाव था।
महिलाओं का वर्चस्व बढ़ने से पुरुष को हीनता का अनुभव होने लगा था तब उसने सत्ता हथियाने का फैसला किया और फिर उसने महिला को उसके देह सौन्दर्य बोध में बाँधना शुरू किया, इसमें कोई संशय नही कि महिला की शारीरिक बनावट में प्राकृतिक तौर पर आकर्षण तब भी था और इसका बोध पुरुष वर्ग को होने लगा था। और माहिला के मासिक चक्र में होने वाली असुविधा का आइना भी दिखाया जो बाहर के कामों में ज्यादा अवरोधक था बजाय घर और बच्चा संभालने के। बात दोनों ने समझी और अपनी-अपनी जगह बदल ली। बस यहीँ से शुरु हुआ महिला का समुचित शोषण।
महिला खुद के सम्मोहन और बाहरी सौन्दर्य में बँधती चली गयी। उसने खुद को सजाने- सवाँरने में समय बिताना शुरु कर दिया। श्रृंगार के साधनों में उसकी रुचि बढ़ने लगी और वह इससे ज्यादा सन्तुष्ट और खुश रहने लगी।
इतिहास खंगालने पर आपको पता लग जायेगा कि उस समय भी महिला फूलों, पत्तों, प्राकृतिक रंगो और शरीर गुदवाने, उस पर चित्रकारी से लेकर घास-फूस के गहनों से खुद को सजाती- संवारती थी यानि कि उसका रूझान किसी हद तक उस ओर परिवर्तित हो चुका था।
फिर वही व्यवसायी करण जिसकी जननी महिला थी सब पुरुष के हाथ में आ गया, उसका सारा-का-सारा श्रेय सरक कर दूसरी ओर चला गया। दूसरे, स्वभाविक रुप से महिला के दिल की बनावट पुरूषों की तुलना में ज्यादा भावुक, संवेदनशील और दयालु होती है जिसके फलस्वरूप वह आसानी से सामंजस्य बिठा लेती है और स्तिथी से ताल-मेल बिठाने में उतना प्रयास नही करना पड़ता। लेकिन यही स्वभाव उसके पतन का कारण बनेगा किसी को नही पता था।
जब बाहरी कामों को श्रेष्ठ आँका जाने लगा और घरेलू कामों को भेदभाव पूर्ण, तब से महिलाओं का अस्तित्व उनकी पहचान खतरे में पड़ने लगी। उसकी पराधीनता, खुद के कमजोर होने का बोध, जिसने उसे मानसिक, शारीरिक और आर्थिक तौर पर पुरूषों पर निर्भर कर दिया। धीरे-धीरे वह चाहरदीवारियों के भीतर कैद होती गयी। तमाम क्षमताओं के खजाने से भरपूर होने के बावजूद चाहे वो बिलक्षण बौद्धिक स्तर का हों या शारीरिक, महिला को निरीह करता गया। वह अपने गुणों की सार्थकता को भूलने लगी। वह गर्व करने लगी अपने श्रंगार पर, अपने परिधानों पर, अपनी शारीरिक बनावट पर। फिर चाहे वो स्तनों के उभार हों या मृगनयनी, कमलनयन, रुपवती, गौर वर्ण जैसे चुम्बकिये शब्द, सबने अपना आकर्षक इतना मजबूती से फैलाया कि उससे बाहर आना नामुमकिन हो गया।
सिलसिला मजबूत हुआ और इतना गहराया कि आज तक उससे पूरे तौर पर बाहर आना संभव नही हुआ है। यही बजह महिलाओं की समाजिक निम्न स्तिथी की है। इसके अलावा अगर इतिहास को पलटा जाये या आँकड़ों की माने तो तमाम और भी बजह रही हैं जो महिला की स्वतंत्रता और पतन का कारण बनीं।
यह तो हम सभी जानते हैं कि भारत में पुर्तगाली, डच, मुगल और फिर अंग्रेजों ने लम्बें समय तक राज्य किया। पाश्चात्त्य सभ्यता और भारतिये संस्कृति में जमीन-आसमान का फर्क था। भारतिये संस्कृति, संस्कार, मान्यतायें और रिवाजों ने अंग्रेजों को काफी हद तक अपनी ओर आकर्षित किया। उसी प्रभाव के फलस्वरूप उनका ध्यान भारतिये महिलाओं के सौन्दर्य पर गया। अब वो सौन्दर्य देह की खूबसूरती का हो या समर्पित मन का या फिर प्रतिभा, ईमानदारी का, अपनी तानाशाही, ताकत और कूटनीति से वो महिलाओं पर बुरी नजर डालने लगे और फिर सुरक्षा की दृष्टी से वहाँ से औरतों की परदा प्रथा को बढ़ावा मिला, जिसने उन्हें संकीर्णता की खाई में धकेलना शुरू कर दिया और वह एक बार फिर से कैद हुई।
फिर औरत के सूली पर चढ़ने का सिलसिला अनवरत चलता रहा, यहाँ भी पुरूष स्वतंत्र रहा। ये बात अलग है कि तब तक पुरुष ने अपनी शारीरिक बल की पुख्ता पहचान बना ली थी और औरत घरेलु सुविधाओं का शिकार होकर खुद को पुरूषों की तुलना में कमतर आँकने लगी थी। अब पूरी तरह पुरुष प्रधान या पितृसत्तात्मक सत्ता आ चुकी थी।
नम्र स्वभाव, समर्पण, सामंजस्य और विशुद्ध प्रेम ने औरत को अपने ही भार से कुचलना शुरु कर दिया। एक-के-बाद- एक परम्परायें मुँह उठाने लगीं , तमाम रीति-रिवाज कुरीति में बदलने लगे। अनेकों कठोर नियम-कानून पितृसत्तात्मक सत्ता में खूब फले -फूले। चाहे वो सती प्रथा हो, बाल विवाह हो या विधवा के संग होने वाली अमानवीयता हो या बालिकाओं के संग होने वाला भेदभाव पूर्ण बर्ताव हो या दहेज प्रथा। धीरे-धीरे इस कूटनीति का रुप इतना भयाभय हो गया कि बालिकाओं को भार समझा जाने लगा और फिर वहाँ से शुरु हुआ पैदा होते ही कन्या का वध।
हरियाणा, राजस्थान में तो यह किसी महामारी की तरह फैलने लगा। जहाँ अबोध को मारने के नये-नये तरीकों का अविष्कार हुआ। कहीँ उसे गला दबा कर मारा जाता तो कहीँ दूध के बड़े बर्तन में डुबो कर तो कहीँ तकिये से दबा कर, कहीँ चुपके से दान दे दिया जाता तो कहीँ किसी धार्मिक स्थल पर छोड़ दिया जाता, कहीँ क्रूरता इतनी नग्न हो गयी कि उसे पृथ्वी पर पटक कर मारा जाने लगा। स्तिथी इतनी विकराल हो मुँह फाड़ने लगी कि महिलाओं ने खुद ही अपनी बच्चियों को कुयें में फेंकना शुरु कर दिया।
यह शर्मसार करने वाला कृत्य और भी भीभत्स हो जाता है जब पूरा-का-पूरा समाज मौन सहमति देने लगता है। फिर समय बदला और लोगों की सोच भी। अब एक लिंग के विनाश का तरीका भर बदला था। पाप से बचने का दूसरा तरीका निकाला गया जहाँ जीवित आत्मा को मारने की बजाय उसे कोख में ही खत्म करने की साजिश शुरु हुई और इसकी जड़े फैलती गयीं। परिणाम स्वरूप महिलाओं का अनुपात घटने लगा , खास कर भारत के कुछ राज्यों में इसकी दर 100/ 90, 80 तक पहुँच गयी। कालिख इतनी फैल गयी कि वो प्रशासन की नाक में घुसने लगी तब इस पर पुरजोर प्रतिबन्धित किया गया। ये सब बहुत बाद में हुआ तब तक कटु परम्परायें अपनी जड़े गहरे जमा चुकी थीं।
आँखों पर पट्टी बाँध लेने से सच नही बदलता, उसका उग्र रुप समाजिक व्यवस्था को निगलने लगता है तब कुछ असन्तुष्ट, हिम्मती आत्माओं को भी विद्रोह का बिगुल बजाना पड़ा जिसके सार्थक फलस्वरूप कुरीतियों का आकार घटा और ये कुरीतियों के विद्रोह का कारवाँ बड़ा होता गया।
घोर अत्याचार, प्रताडना और दुर्व्यवहार के बावजूद औरतों का बौद्धिक स्तर कभी नही घटा वह हमेशा से सार्वभौमिक रही और विषम परिस्थितियों में भी अपनी योग्यता को प्रमाणित किया। आज विश्व के हर क्षेत्र में अपना परचम लहराने वाली महिला किसी से कदापि कमतर नही है। रानी लक्ष्मीबाई, से लेकर सरोजनी नायडू, मदर टैरेसा, कल्पना चावला, सुनीता विलियम, बचेन्द्री पाल, अरुणिमा सिँह, मैरीकॉम, पी.टी. ऊषा, तसलीमा नसरीन, मलाला यूसुफजई, इन्द्रिरा गाँधी, किरन बेदी जैसी तमाम महत्वाकाक्षीँ, सफल महिलायें हुई हैं जिन्होनें अपनी बिलक्षण प्रतिभा और साहस से शिखर को छुआ और खुद को प्रमाणित किया।
योग्यता लिंगभेद की पक्षधर नही है। वह तो लगन, निष्ठा, साहस और एकाग्रता चाहती है। यह कोरा मिथ्य है कि महिलाओं की शारीरिक बनावट पुरुषों की तुलना में कमजोर होती है और वह जैविक रुप से भारी, कठोर काम करने की क्षमता नही रखतीं। महिलाओं की शारीरिक बनावट पुरूषों से अलग जरुर है पर कमजोर नही। वह भी शक्तिशाली है बशर्ते उसे मानसिक तौर पर कमजोर न किया जाये। आज कोई भी ऐसा अछूता क्षेत्र नही जहाँ महिला ने अपनी उपस्थिति दर्ज न कराई हो।
रिक्शा चलाने से लेकर सेना सुरक्षा का लड़ाकू विमान उड़ाने तक सभी कामों में अभूतपूर्व निपुणता देखने को मिलती है। सीमा सुरक्षा पर भी तमाम महिला सैनिक बहादुरी से तैनात हैं, ये गौरान्वित करने वाली बात है और चिन्ताजनक ये कि फिर भी आज महिलायें अपनी ताकत को पहचानने में भूल कर जाती हैं और ताउम्र घुटती रहती हैं।
महिलाओं को अपने गुणों की सार्थकता को बनाये रखना होगा। हर दूसरी महिला का सम्मान और सहयोग करना होगा। अपने महिला होने पर गर्व और तुलनात्मक नजरिये को छोड़ना होगा।
अपनी योग्यताओं, प्रतिभाओं और क्षमताओं को फलने-फूलने दें। अधिकार की माँग करके स्वंय को तुच्छ न आँकें। प्रमाणित करने का साहस पैदा करें और सबसे महत्वपूर्ण पुरुष बनने की चेष्टा छोड़ें। आप स्वंय में पथ प्रदर्शिका हैं, समर्थ हैं, रोल मॉडल हैं। आप वो कर सकती हैं जो पुरूष नही कर सकते। आप ही पुरुष की जननी हैं, एक जननी होने पर गर्व करें। सृष्टि के निर्मात्री होने पर मुग्ध हों। ममता, स्नेह, वातसल्य और प्रेम के बगैर सृष्टि अधूरी है जो आप में कूट-कूट के भरा है। आप सृजन से भरपूर हैं।
महिला दिवस आपकी शक्ति से आपकी पहचान कराने का साधन मात्र है जो आपको आपसे मिलवाता रहेगा हमेशा और याद दिलाता रहेगा आप ईश्वर की सर्वश्रेष्ट रचना हैं।
छाया अग्रवाल
मो. 8899793319