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सशक्तिकरण का बीजारोपण

सशक्तिकरण का बीजारोपण

सशक्तिकरण का बीजारोपण ———————————- महिला दिवस से तात्पर्य ‘एक दिन महिलाओं का’ से कदापि नहीं है बल्कि ये महिलाओं में सशक्तिकरण का बीजारोपण, उनकी जाग्रति की कहानी का पहला स्तम्भ है। पराधीनता की मानसिकता से बाहर आकर स्वधिकार की चेतना का संचार करने वाला यही वह महत्वपूर्ण दिन है, जहाँ से महिला ने अपने पूर्वाग्रहों को पटखनी देकर उनसे छुटकारा पाने का अभूतपूर्व साहस किया था। बात सन 1908 न्यूयार्क शहर की है तब वहाँ महिलाओं पर अप्रत्यक्ष रुप से दबाव डाल कर उनकी शारीरिक क्षमताओं से ज्यादा कार्य करवाया जाता था और वेतन भी पुरुषों की तुलना में कम होता था। इसी बात से क्षुब्ध होकर महिलाओं ने विद्रोह की ठानी और उसे क्रियान्वित किया उस वक्त करीब पन्द्रह हजार महिलाओं ने उसमें हिस्सा लिया था, जिसमें उन्होनें एकजुट होकर अपने वेतन को बढ़ाने, कार्य के समय अवधि कम करने और मतदान के अधिकार की बात उठाई थी। हम यहाँ पर कह सकते हैं कि शुरुआती तौर पर ये अपनी माँगों को मनवाने वाला सिर्फ मजदूरी आन्दोलन ही था। लेकिन धीरे- धीरे इसकी आवाज़ सोशलिस्ट पार्टी ऑफ अमेरिका तक जा पहुँची। सन 1910 में क्लॉरा जैटकिन ने विश्व के लगभग सत्रह देशों से आई सौ से ज्यादा महिलाओं का प्रतिनिधित्व करते हुये ‘महिला दिवस’ के प्रस्ताव को रखा, जिसे प्रेस कांफ्रेंस कर औपचारिक घोषणा से इसे पारित किया गया। 9011 में सबसे पहले ये दिवस आस्ट्रिया, डेनमार्क, जर्मनी और स्वीजरलैंड में एक साथ पूरे जोर- शोर से मनाया गया। उसके करीब चौसठ साल बाद सन 1975 में इसको अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर मान्यता तब मिली जब रुस में महिलाओं ने आन्दोलन कर निकोलस को पद छोड़ने के लिये विवश किया था। शुरुआती दौर में इसे 28 फरवरी को मनाया गया था उसके बाद सर्वसहमति से 8 मार्च की तारीख तय की गयी। महिलाओं की कार्य शैली,समय बद्धिता और कार्य के चुनाव सहित छोटे-मोटे हर अधिकार उनके हाथ में थे ही नही, जिसको एक दूसरा तथ्य -कथित समर्थ वर्ग संचालित कर रहा था, यह एक दुखद विचारणीय बात है। ईश्वर ने भिन्न आकार-प्रकार की भिन्न रचनाओं को किसी उद्देश्य के तहत ही दो वर्गों में बाँटा है। दोनों की अपनी महत्वता, अपना कारण और अपना संचालन है जहाँ तुलनात्मक होना, भेद रखना या कमतर आँकना न्यायप्रद नही है सृष्टि के संयोजन, निर्माण और विस्तार के लिये ये आवश्यक है, एक भी पक्ष के बगैर ये सम्भव नही है और यही सोच प्रकृति की भी रही होगी। बावजूद इसके एक वर्ग कमजोर और दूसरा सत्तात्मक होता गया। इसके कारणों को हम इस तरह देख सकते हैं। सभ्यता के आरम्भ में मनुष्य के पास खेती ही मुख्य व्यवसाय था जहाँ से अनाज उगा कर उसने भोजन के रुप में अपनाया था उसके बाद से ही मनुष्य माँसाहार से शाकाहार पर परिवर्तित हो पाया था। तब महिला सभी कृषि कार्यों को संभाला करती थी। कहते तो ये भी हैं कि उस वक्त आग से लेकर खेती तक सारे अविष्कार महिला के द्वारा ही किये गये। उस समय पुरुष की रुचि व्यवसाय में नही भोजन पकाने में ज्यादा थी। उसे जानवर मार कर खाने के मुकाबले में अनाज उगाना कठिन कार्य लगा और वह इससे बचने लगा। धीरे-धीरे महिलाओं का सशक्तिकरण बढ़ने लगा। बाहरी सत्ता उसके हाथ में थी। पुरूष आर्थिक तौर पर महिला पर निर्भर था। वह बच्चा पैदा करती और पुरुष उसे पालता, महिला खेती, व्यापार करती पुरुष उसे संभालता। वहाँ एक समस्या शिशुओं के स्तनपान की खड़ी हुई शिशु को गोद में लेकर शारीरिक कार्य में अवरोध आने लगा दूसरे महिला के मासिक चक्र के दौरान उससे आने वाली शारीरिक दुर्बलता, पीड़ा और रक्त के रिसाव से असहजता भी एक कारण बनी। ज्ञात हो उस वक्त पर्याप्त साधनों का आभाव था। महिलाओं का वर्चस्व बढ़ने से पुरुष को हीनता का अनुभव होने लगा था तब उसने सत्ता हथियाने का फैसला किया और फिर उसने महिला को उसके देह सौन्दर्य बोध में बाँधना शुरू किया, इसमें कोई संशय नही कि महिला की शारीरिक बनावट में प्राकृतिक तौर पर आकर्षण तब भी था और इसका बोध पुरुष वर्ग को होने लगा था। और माहिला के मासिक चक्र में होने वाली असुविधा का आइना भी दिखाया जो बाहर के कामों में ज्यादा अवरोधक था बजाय घर और बच्चा संभालने के। बात दोनों ने समझी और अपनी-अपनी जगह बदल ली। बस यहीँ से शुरु हुआ महिला का समुचित शोषण। महिला खुद के सम्मोहन और बाहरी सौन्दर्य में बँधती चली गयी। उसने खुद को सजाने- सवाँरने में समय बिताना शुरु कर दिया। श्रृंगार के साधनों में उसकी रुचि बढ़ने लगी और वह इससे ज्यादा सन्तुष्ट और खुश रहने लगी। इतिहास खंगालने पर आपको पता लग जायेगा कि उस समय भी महिला फूलों, पत्तों, प्राकृतिक रंगो और शरीर गुदवाने, उस पर चित्रकारी से लेकर घास-फूस के गहनों से खुद को सजाती- संवारती थी यानि कि उसका रूझान किसी हद तक उस ओर परिवर्तित हो चुका था। फिर वही व्यवसायी करण जिसकी जननी महिला थी सब पुरुष के हाथ में आ गया, उसका सारा-का-सारा श्रेय सरक कर दूसरी ओर चला गया। दूसरे, स्वभाविक रुप से महिला के दिल की बनावट पुरूषों की तुलना में ज्यादा भावुक, संवेदनशील और दयालु होती है जिसके फलस्वरूप वह आसानी से सामंजस्य बिठा लेती है और स्तिथी से ताल-मेल बिठाने में उतना प्रयास नही करना पड़ता। लेकिन यही स्वभाव उसके पतन का कारण बनेगा किसी को नही पता था। जब बाहरी कामों को श्रेष्ठ आँका जाने लगा और घरेलू कामों को भेदभाव पूर्ण, तब से महिलाओं का अस्तित्व उनकी पहचान खतरे में पड़ने लगी। उसकी पराधीनता, खुद के कमजोर होने का बोध, जिसने उसे मानसिक, शारीरिक और आर्थिक तौर पर पुरूषों पर निर्भर कर दिया। धीरे-धीरे वह चाहरदीवारियों के भीतर कैद होती गयी। तमाम क्षमताओं के खजाने से भरपूर होने के बावजूद चाहे वो बिलक्षण बौद्धिक स्तर का हों या शारीरिक, महिला को निरीह करता गया। वह अपने गुणों की सार्थकता को भूलने लगी। वह गर्व करने लगी अपने श्रंगार पर, अपने परिधानों पर, अपनी शारीरिक बनावट पर। फिर चाहे वो स्तनों के उभार हों या मृगनयनी, कमलनयन, रुपवती, गौर वर्ण जैसे चुम्बकिये शब्द, सबने अपना आकर्षक इतना मजबूती से फैलाया कि उससे बाहर आना नामुमकिन हो गया। सिलसिला मजबूत हुआ और इतना गहराया कि आज तक उससे पूरे तौर पर बाहर आना संभव नही हुआ है। यही बजह महिलाओं की समाजिक निम्न स्तिथी की है। इसके अलावा अगर इतिहास को पलटा जाये या आँकड़ों की माने तो तमाम और भी बजह रही हैं जो महिला की स्वतंत्रता और पतन का कारण बनीं। यह तो हम सभी जानते हैं कि भारत में पुर्तगाली, डच, मुगल और फिर अंग्रेजों ने लम्बें समय तक राज्य किया। पाश्चात्त्य सभ्यता और भारतिये संस्कृति में जमीन-आसमान का फर्क था। भारतिये संस्कृति, संस्कार, मान्यतायें और रिवाजों ने अंग्रेजों को काफी हद तक अपनी ओर आकर्षित किया। उसी प्रभाव के फलस्वरूप उनका ध्यान भारतिये महिलाओं के सौन्दर्य पर गया। अब वो सौन्दर्य देह की खूबसूरती का हो या समर्पित मन का या फिर प्रतिभा, ईमानदारी का, अपनी तानाशाही, ताकत और कूटनीति से वो महिलाओं पर बुरी नजर डालने लगे और फिर सुरक्षा की दृष्टी से वहाँ से औरतों की परदा प्रथा को बढ़ावा मिला, जिसने उन्हें संकीर्णता की खाई में धकेलना शुरू कर दिया और वह एक बार फिर से कैद हुई। फिर औरत के सूली पर चढ़ने का सिलसिला अनवरत चलता रहा, यहाँ भी पुरूष स्वतंत्र रहा। ये बात अलग है कि तब तक पुरुष ने अपनी शारीरिक बल की पुख्ता पहचान बना ली थी और औरत घरेलु सुविधाओं का शिकार होकर खुद को पुरूषों की तुलना में कमतर आँकने लगी थी। अब पूरी तरह पुरुष प्रधान या पितृसत्तात्मक सत्ता आ चुकी थी। नम्र स्वभाव, समर्पण, सामंजस्य और विशुद्ध प्रेम ने औरत को अपने ही भार से कुचलना शुरु कर दिया। एक-के-बाद- एक परम्परायें मुँह उठाने लगीं , तमाम रीति-रिवाज कुरीति में बदलने लगे। अनेकों कठोर नियम-कानून पितृसत्तात्मक सत्ता में खूब फले -फूले। चाहे वो सती प्रथा हो, बाल विवाह हो या विधवा के संग होने वाली अमानवीयता हो या बालिकाओं के संग होने वाला भेदभाव पूर्ण बर्ताव हो या दहेज प्रथा। धीरे-धीरे इस कूटनीति का रुप इतना भयाभय हो गया कि बालिकाओं को भार समझा जाने लगा और फिर वहाँ से शुरु हुआ पैदा होते ही कन्या का वध। हरियाणा, राजस्थान में तो यह किसी महामारी की तरह फैलने लगा। जहाँ अबोध को मारने के नये-नये तरीकों का अविष्कार हुआ। कहीँ उसे गला दबा कर मारा जाता तो कहीँ दूध के बड़े बर्तन में डुबो कर तो कहीँ तकिये से दबा कर, कहीँ चुपके से दान दे दिया जाता तो कहीँ किसी धार्मिक स्थल पर छोड़ दिया जाता, कहीँ क्रूरता इतनी नग्न हो गयी कि उसे पृथ्वी पर पटक कर मारा जाने लगा। स्तिथी इतनी विकराल हो मुँह फाड़ने लगी कि महिलाओं ने खुद ही अपनी बच्चियों को कुयें में फेंकना शुरु कर दिया। यह शर्मसार करने वाला कृत्य और भी भीभत्स हो जाता है जब पूरा-का-पूरा समाज मौन सहमति देने लगता है। फिर समय बदला और लोगों की सोच भी। अब एक लिंग के विनाश का तरीका भर बदला था। पाप से बचने का दूसरा तरीका निकाला गया जहाँ जीवित आत्मा को मारने की बजाय उसे कोख में ही खत्म करने की साजिश शुरु हुई और इसकी जड़े फैलती गयीं। परिणाम स्वरूप महिलाओं का अनुपात घटने लगा , खास कर भारत के कुछ राज्यों में इसकी दर 100/ 90, 80 तक पहुँच गयी। कालिख इतनी फैल गयी कि वो प्रशासन की नाक में घुसने लगी तब इस पर पुरजोर प्रतिबन्धित किया गया। ये सब बहुत बाद में हुआ तब तक कटु परम्परायें अपनी जड़े गहरे जमा चुकी थीं। आँखों पर पट्टी बाँध लेने से सच नही बदलता, उसका उग्र रुप समाजिक व्यवस्था को निगलने लगता है तब कुछ असन्तुष्ट, हिम्मती आत्माओं को भी विद्रोह का बिगुल बजाना पड़ा जिसके सार्थक फलस्वरूप कुरीतियों का आकार घटा और ये कुरीतियों के विद्रोह का कारवाँ बड़ा होता गया। घोर अत्याचार, प्रताडना और दुर्व्यवहार के बावजूद औरतों का बौद्धिक स्तर कभी नही घटा वह हमेशा से सार्वभौमिक रही और विषम परिस्थितियों में भी अपनी योग्यता को प्रमाणित किया। आज विश्व के हर क्षेत्र में अपना परचम लहराने वाली महिला किसी से कदापि कमतर नही है। रानी लक्ष्मीबाई, से लेकर सरोजनी नायडू, मदर टैरेसा, कल्पना चावला, सुनीता विलियम, बचेन्द्री पाल, अरुणिमा सिँह, मैरीकॉम, पी.टी. ऊषा, तसलीमा नसरीन, मलाला यूसुफजई, इन्द्रिरा गाँधी, किरन बेदी जैसी तमाम महत्वाकाक्षीँ, सफल महिलायें हुई हैं जिन्होनें अपनी बिलक्षण प्रतिभा और साहस से शिखर को छुआ और खुद को प्रमाणित किया। योग्यता लिंगभेद की पक्षधर नही है। वह तो लगन, निष्ठा, साहस और एकाग्रता चाहती है। यह कोरा मिथ्य है कि महिलाओं की शारीरिक बनावट पुरुषों की तुलना में कमजोर होती है और वह जैविक रुप से भारी, कठोर काम करने की क्षमता नही रखतीं। महिलाओं की शारीरिक बनावट पुरूषों से अलग जरुर है पर कमजोर नही। वह भी शक्तिशाली है बशर्ते उसे मानसिक तौर पर कमजोर न किया जाये। आज कोई भी ऐसा अछूता क्षेत्र नही जहाँ महिला ने अपनी उपस्थिति दर्ज न कराई हो। रिक्शा चलाने से लेकर सेना सुरक्षा का लड़ाकू विमान उड़ाने तक सभी कामों में अभूतपूर्व निपुणता देखने को मिलती है। सीमा सुरक्षा पर भी तमाम महिला सैनिक बहादुरी से तैनात हैं, ये गौरान्वित करने वाली बात है और चिन्ताजनक ये कि फिर भी आज महिलायें अपनी ताकत को पहचानने में भूल कर जाती हैं और ताउम्र घुटती रहती हैं। महिलाओं को अपने गुणों की सार्थकता को बनाये रखना होगा। हर दूसरी महिला का सम्मान और सहयोग करना होगा। अपने महिला होने पर गर्व और तुलनात्मक नजरिये को छोड़ना होगा। अपनी योग्यताओं, प्रतिभाओं और क्षमताओं को फलने-फूलने दें। अधिकार की माँग करके स्वंय को तुच्छ न आँकें। प्रमाणित करने का साहस पैदा करें और सबसे महत्वपूर्ण पुरुष बनने की चेष्टा छोड़ें। आप स्वंय में पथ प्रदर्शिका हैं, समर्थ हैं, रोल मॉडल हैं। आप वो कर सकती हैं जो पुरूष नही कर सकते। आप ही पुरुष की जननी हैं, एक जननी होने पर गर्व करें। सृष्टि के निर्मात्री होने पर मुग्ध हों। ममता, स्नेह, वातसल्य और प्रेम के बगैर सृष्टि अधूरी है जो आप में कूट-कूट के भरा है। आप सृजन से भरपूर हैं। महिला दिवस आपकी शक्ति से आपकी पहचान कराने का साधन मात्र है जो आपको आपसे मिलवाता रहेगा हमेशा और याद दिलाता रहेगा आप ईश्वर की सर्वश्रेष्ट रचना हैं। छाया अग्रवाल मो. 8899793319
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स्मरण- राजेन्द्र यादव

स्मरण- राजेन्द्र यादव

स्मरण: राजेंद्र यादव  आप जीवित रहेंगे युगो- युगो तक किसी भी साहित्य प्रेमी के जीवन में एक ऐसा समय जरूर आता है जब वह किसी ना किसी साहित्यकार के सम्मोहन में पड़ा उसकी रचनाएं एक के बाद एक पढ़ता चला जाता है। व्यक्तिगत रूचि का यह आलम अमूमन किसी भी साहित्य प्रेमी के जीवन में यूं ही नहीं आ जाता और ना ही वह अपने प्रिय रचनाकारों की लिस्ट में किसी भी चलते हुए लेखक को शामिल करता है , ऐसा गजब का सम्मोहन तभी पैदा होता है जब कोई रचनाकार किसी साहित्य प्रेमी के दिलों दिमाग पर कुछ ज्यादा ही छाया हुआ हो , कुछ यूँ  की एक के बाद एक पन्ने पलटते हुए कहानियों की कहानियों से लेकर उपन्यासों तक को पढ़ जाने की ललक पाठक मे जागे व साथ ही साथ ललक कुछ लेखक के व्यक्तिगत जीवन या आलोचनाओं को पढ़कर उससे जुड़े हर एक पक्ष को कुरेदने का मन भी बार-बार हो आए। ऐसी विचित्र मनोदशा एक ना एक साहित्य प्रेमी के साथ जरूर होती है ,मेरे साथ भी हुई और मेरा यह  सम्मोहन तब अपने पीक पर पहुंच गया जब मेरे मन में सहसा ही यह भाव जाग पड़ा कि क्यों इतने प्रिय रचनाकार के मुझे अपने जीवन में कभी दर्शन नहीं होने पाए। मेरे लिए यह भाव सम्मोहन था प्रेम था या श्रद्धा मुझे कुछ समझ नहीं आया पर जो भी था वाजिब ही था क्योंकि मेरे अभी तक के जीवन में शायद ही उन्हें (यानि की मेरे प्रिय रचनाकार रहे राजेंद्र यादव ) को छोड़कर मैंने किसी और लेखक को इतने चाव से पढ़ा हो। उन्हें याद करते हुए साहित्य को समझने पढ़ने की समझ कुछ इन शब्दों में मुझे मिली , ” साहित्य सपना नहीं देता, जब जब सपना देता है तब तब या तो वह राजनीति द्वारा इस्तेमाल किया जा रहा होता है या फिर हमें वर्तमान को नकारना सिखा रहा होता है।” – उपन्यास के भावी संकट इतनी साफ ,बेबाक और सटीक टिप्पणी शायद ही कहीं और पढ़ने को मिले । राजेंद्र यादव को यूं तो हंस पत्रिका से जोड़कर ज्यादा देखा जाता रहा है और वर्ष 2013 में उनके जाने के बाद भी हंस पत्रिका हमारे बीच अपनी लोकप्रियता और अहमियत बनाए रखे हैं यह वाकई में एक अच्छी बात है । लेकिन फिर भी देखा जाए तो हंस पत्रिका के संपादन को अगर अलग रखें तो भी राजेंद्र यादव का लेखन कार्य अनगिनत लेखों ,आलोचनाओं, कहानियों और उपन्यासों में इतनी भारी तादाद में मौजूद है कि दर्जन भर के वॉल्यूम की उनकी एक समग्र रचनावली आसानी से प्रकाशित हो सके और इस बात की गंभीरता को देखते हुए आज के वर्तमान समय में बड़ा ही आभार बलवंत कौर और अर्चना वर्मा जी को जिन्होंने राजेंद्र यादव की एक समग्र रचनावली का संपादन कर राजेंद्र यादव के समकालीन रचनाकारों के संग हुए अनेकों साक्षातकारों ,संश्लेषण , डायरी, आलोचनात्मक लेख ,कहानियां , उपन्यास इत्यादि का करीबन दस से ज्यादा वॉल्यूम की किताबों में प्रकाशन करवाया है। क्योंकि यह प्रकाशन अभी हाल फिलहाल के समय का ही है इससे साफ तौर पर यह समझा जा सकता है कि आधुनिक हिंदी साहित्य में राजेंद्र यादव की महत्ता और उनके स्थान को लेकर साहित्य जगत के तमाम लोग अरसे से कलम की चुप्पी साध कर बैठे रहे हैं। राजेंद्र यादव के पूरे के पूरे साहित्य को हम कई कई विमर्शा से जोड़कर देखते हैं लेकिन आज भी उनके जाने के बाद उनकी हर रचना को कहीं ना कहीं नए सिरे से पढ़ने, समझने और उससे जुड़े विविध आयामों को तलाशने की एक जरूरत  महसूस होती है।   यह एक तरह की साहित्यिक जरूरत है जिसे सिर्फ और सिर्फ साहित्यिक शोध एवं नई आलोचनाओं के जरिए ही मुमकिन बनाया जा सकता है।  आज हम जब भी हिंदी साहित्य के क्षेत्र हुए तमाम शोधों की परंपरा को देखते हैं तो हमारे सामने हिंदी के तमाम लेखक कौध जाते हैं । विश्वविद्यालयों में जैसे अरसे से बनी बनाई परिपाटी पर गिने चुने लेखकों पर शोध कार्य संपन्न होते आ रहे हैं । ऐसे में हम राजेंद्र यादव के नाम को तलाशने चलते हैं तो सिवाय निराशा ही हाथ लगती है या गिने  चुने शोध कार्यों में उनकी निजी जिंदगी या फिर मनु भंडारी से उनके संबंधों को जोड़ कर देख लिया जाता है। लेकिन एक लेखक की उसकी अपनी निजी जिंदगी में जरूरत से ज्यादा झांकना या किन्ही सुने सुनाए सवालों के घेरे में उसे कैद करके देखते रहना कहां तक तर्क संगत है?  एक रचनाकार खुद भले ही अपने जीवन या अपनी रचनाओं को लेकर कोई बयानबाजी करें या ना करें लेकिन उसकी रचनाओं से उसकी मन की गूंज  बराबर सुनी जा सकती है। राजेंद्र यादव एक ऐसे रचनाकार रहे हैं जिनकी साहित्य गूंज आज तक है ,अपने लेखन के शुरुआती दौर से वह नई कहानी आंदोलन से जुड़े रहे। “जहाँ  लक्ष्मी कैद है” और “एक कमजोर लड़की की कहानी” ऐसी कहानियाँ  है जो की राजेन्द्र जी ने केवल एक सिटिंग देकर लिख डाली थी, ये वाकई हैरत मे डालने वाली बात है की अपने लेखन के शुरूआती दौर मे ही स्त्री पक्ष उकेरती ऐसी गज़ब की कहानियाँ  उन्होने मुश्किल से एक बार के लिखने मे पूरी कर डाली होगी। लेकिन उनके विषय मे ये नही कहा जा सकता की लिखना उनके लिये हमेशा ही आसान और सुखकर कार्य रहा, मन्नू भंडारी पर लिखे गये  “सहज और पारदर्शी” नामक     संश्लेषण मे वो बार बार आपनी लेखकीय तकलीफ़ की ओर इशारा करके बताते है की लिखना उनके लिये कई बार कितना कष्ठकर कार्य सिद्ध होता है, खाली बैठ कुछ लिखने का मन होकर भी कुछ ना लिख पाना एक लेखक के लिये कितना तकलीफ़देह है ये राजेन्द्र यादव के शब्दो मे भली प्रकार समझा जा सकता है । यूँ  तो राजेन्द्र यादव ने  नियमित रुप से डायरी कम ही लिखी इसलिये उनके द्वारा लिखे गये आज जो कुछ डायरी के अंश पाठको को सुलभ है उन सभी मे समय, स्थान आदि का एक बड़ा अंतर साफ तौर पर मेहसूस होता है लेकिन उन सभी डायरियो मे कही ना कही एक कलात्मक बेचैनी साफ झलकती है, यूँ कहा जाए की राजेन्द्र यादव बार बार “निरंतर कुलबुलाते हुए यथार्थ” को दर्शाने की गहन साधना को लेकर अति सजग रहे, इस शब्द साधना मे उनके एक लेखक के तौर पर मानसिक संघर्ष को चित्रित करता उनका एक कथन, – “कलाकार का व्यक्तित्व, उसका परिचय, उसका विश्वास और उसकी प्रतिबद्धता- सभी कुछ उसकी कला होती है।”  एक कलाकार को बाहरी और आंतरिक ऊहापटक के साथ साथ समाजिक, पारीवारिक, आर्थिक  कठिनाईयो का सामना करना ही पड़ता है, मानसिक संघर्ष मे उलझे राजेन्द्र यादव एक लेखक की  निष्ठा पर विचार करते हुए लिखते है की, – “कोई ज़रूरी नही है की मंच पर  जो कहें वही करें भी, कलाकार और व्यक्ति आपस मे विरोधी भी हो सकते है। इलियट ने कहा ही है की लेखन अपने व्यक्तित्व से पलायन का दूसरा नाम है- शायद विरोधी का भी।”   उनके कथनों मे हल्के व्यंग्य का पुट और एक चलती हुई भाषा हमें  उनकी साफ़ ज़ुबान और बेबाक विचारों के प्रकटीकरण की तरफ आकर्षित करती है। यही स्पष्टवादिता और खुले विचारों का आदान प्रदान ही राजेन्द्र यादव के समग्र रचना संसार को साधारण  से विशिष्ट की कोटि मे ला खड़ा करता है।  हिन्दी साहित्य मे विमर्शो की जड़ो को पुख्ता करने मे जितना योगदान खुद राजेन्द्र जी का है उतना शायद ही किसी और साहित्यकार का रहा हो, अपनी दूरगामी सोच, उत्कृष्ट लेखन, वा साथी रचनाकारो या उभरते लेखकों के प्रति आत्मीयता समेत कितने ही ऐसे गुण  है जो की राजेन्द्र यादव को साहित्य प्रेमियो के बीच सदा के लिये अमर रखेगे। अपनी साहित्यिक गूँज की बदौलत ही राजेन्द्र यादव हिन्दी साहित्य के पाठको के बीच युगों -युगों तक जीवित रहेंगे।
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कबीर की ‘गुरुदेव कौ अंग’ के आधार पर शिक्षण प्रक्रिया की विवेचना

कबीर की ‘गुरुदेव कौ अंग’ के आधार पर शिक्षण प्रक्रिया की विवेचना

आलेख

रंजीत कुमार यादव
शोधार्थी –
दिल्ली विश्वविद्यालय
Mobile number -9910829645
Email- jeetyaduvanshi@gmail.com

कबीर की ‘गुरुदेव कौ अंग’ के आधार पर शिक्षण प्रक्रिया की विवेचना
मध्यकालीन दौर के होते हुए भी कबीर अपने आधुनिक विचारों के कारण आज भी स्मरणीय हैं । अपनी साखियों एवं पदों में अपनी क्रांतिधर्मिता के कारण कबीर उस समय भी उतने ही प्रासंगिक थे जितने कि आज हैं या यह कहना ज्यादा उचित होगा कि कबीर आज के बाजारवाद और उपभोक्तावादी संस्कृति के दौर में जहाँ हर चीज अर्थ केंद्रित हो गयी है वहां उनकी प्रासंगिकता और बढ़ जाती है, आज स्थितियां और भी गंभीर हो गयी हैं । भक्तिकाल के उस समाज में सामाजिक कुरीतियाँ, पाखण्ड, धार्मिक अन्धविश्वास और जातिगत भेदभाव फैला हुआ था । कबीर ने इन सब का विरोध किया और बिना किसी डर के अपनी बात कही । जो आधुनिकता हम उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में देखते हैं वह कबीर के यहाँ हमें बहुत पहले दिखाई पड़ती है । ‘गुरुदेव कौ अंग’ में भी कबीर जिन विचारों को लेकर सामने आते हैं वह एक आदर्श स्थिति है ।
कबीर का मत सतगुरु की तलाश में रहा है, वे इस जगत में गुरु को राह दिखाने वाला मानते हैं । उनके लिए गुरु सत्य की ज्योति है जो अंधकार से प्रकाश की ओर लाने में और पुरातन को नवीन बनाने में एकनिष्ठता रखता है । कबीर एक जगह कहते हैं कि
“तोरा मोरा मनवा कैसे एक होय रे ।
तूँ कहता कागद की लेखी मैं कहता आँखन की देखी ।।”
अर्थात प्रत्यक्ष ज्ञान की जो महत्ता है वह शास्त्र पढ़ लेने से नहीं हो सकती है इसी को कबीर ने ‘आँखन देखी” कहा है, वर्तमान समाज में यही पक्ष गुरु-शिष्य परम्परा में होना चाहिए केवल किताबी ज्ञान की अपेक्षा हमें समाज के लौकिक ज्ञान की ओर देखना चाहिए जो व्यावहारिक हो ।
कबीर निरक्षर थे लेकिन उनके सांसारिक ज्ञान में विराटता थी । वे गुरु-महिमा और उसके प्रति अगाध श्रद्धा का भाव दिखाते हुए ही यह भी कहते हैं कि
“सतगुरु की महिमा अनंत, अनंत किया उपगार ।
लोचन अनंत उघाड़िया, अनंत दिखावणहार ।।”
जबकि आज की शिक्षा-व्यवस्था में कहीं न कहीं शिष्य के लिए गुरु-महिमा का वही अर्थ नहीं रह गया है । लोग लोभ लालच के भाव से ही आज अपने सम्बन्धों को निभा रहे हैं । कहना न होगा कि कबीर जिस गुरु की बात करते हैं वह ‘आध्यात्मिक गुरु’ हैं साथ ही, इन सब के मध्य वे ऐसे सूत्र देते हैं जिसमें शिक्षण प्रक्रिया के तत्व को ढूंढ लेना मुश्किल नहीं है ।
“गुरु कुम्हार शीष कुंभ है, गढ़ गढ़ काढै खोट ।
भीतर हाथ सहारि दे , बाहर बाहै चोट ।।”
यानी तात्पर्य यह है कि सच्चा गुरु शिष्य को एक घड़े की तरह तराशता है । जिस प्रकार एक कुम्हार घड़े बनाते समय कच्ची मिट्टी को बड़ी ही चतुराई से तराशता है वैसे ही एक गुरु शिष्य के मन मस्तिष्क को तराशता है । उसे अपने विचारों से मनुष्यता का पाठ पढाता है ताकि वह सच्चे अर्थ में मनुष्य बन सके । शिष्य उस कच्ची मिट्टी की भांति ही होता है जिसे गुरु तराशता है ।
कबीर शास्त्र जनित ज्ञान का विरोध करते हैं । आज के समय में देखा जाय तो जिस शास्त्र जनित ज्ञान की बात की जा रही है, कबीर किसी भी दृष्टि से उस विचारधारा के पैरोकार नजर नहीं आते । कबीर शास्त्र से ज्यादा जीवनानुभव से सीखने पर बल देते हैं । आज शिक्षा व्यवस्था का बाजारीकरण हो गया है । गुरु की जगह शिक्षक ने और शिष्य की जगह छात्र ने ले लिया है । बदलते परिवेश में जिस तरह से लोग सिमटते जा रहें है उसी तरह गुरु, शिष्य जैसे शब्दों का भी अर्थ संकोच हो गया है । शिक्षा के व्यवसायीकरण ने शिक्षा को अप्राप्य बना दिया है ऐसे में एक बहुत बड़ा तबका शिक्षा से वंचित रह जाता है जिसके उन्मूलन के लिये सरकार को शिक्षा को मौलिक अधिकार की श्रेणी में रखना पड़ता है फिर भी स्थिति चिंतनीय है । आज की व्यवस्था में संबंधों का जो बदलाव आया है उसने गुरु–शिष्य के संबंधों को भी बदल कर रख दिया है । कबीर जिस गुरु की बात करते हैं वैसा गुरु इस दौर में मिलना मुश्किल है साथ ही जिस तरह का समर्पण भाव हम शिष्य में खोजते या चाहते हैं वह भी आज के दौर में मिलना मुश्किल है ।
कबीर का यह दोहा आज के दौर में कितना सटीक जान पड़ता है –
“जाका गुरु भी अंधला, चेला खड़ा निरंध ।
अंधा अंधा ठेलिया, दुन्यूं कूप पडंत ।।”
गुरु का काम है स्वयं आगे चलकर शिष्य का मार्गदर्शन करना । कबीर यहाँ व्यंग्य करते हुए कहते हैं कि जिसका गुरु स्वयं अज्ञानी है उसका शिष्य तो घोर अज्ञानी होगा ही जब एक अंधा दूसरे अंधे को मार्ग दिखाता हुआ चलता है तो दोनों कुँए में गिर पड़ते हैं, अर्थात भवसागर में पड़े रहकर नष्ट हो जाते हैं । आज के सन्दर्भ में इस दोहे पर दृष्टिपात करें तो देख सकते हैं कि शिक्षकों और छात्रों की एक लम्बी फेहरिश्त हमें दिख जाती है जहाँ दोनों चाटुकारिता के शिकार हैं । इस चाटुकारिता के कारण शिक्षक और छात्र दोनों एक-दुसरे को छलते हुए नजर आते हैं । छद्म आस्था लिए छात्र की अवसरवादिता इस दौर में बढती ही जा रही है । ऐसे में कबीर जिस गुरु की बात करते हैं और एक शिष्य में जिस समर्पण भाव की वकालत करते हुए नजर आते है वह आज के परिवेश में विरले ही मिलते हैं ।
“कबीर गुर गरबा मिल्या, रलि गया आटै लूँण ।
जाति पाँति कुल सब मिटै, नांव धरोगे कौण ।”
यानी यहाँ पर कबीर कहते हैं कि एक बार गुरु के गले लगाने से शिष्य की जाति-पाति कुल सब मिट जाता है । एक गुरु के लिए वह जाति–पाति, कुल ,गोत्र से ऊपर महज एक शिष्य रह जाता है । एक गुरु के लिए उसके सभी शिष्य एक समान हैं । किन्तु आज के परिप्रेक्ष्य में ऐसे गुरु का मिल पाना बहुत मुश्किल है । आज अधिकांश शिक्षक राजनीतिक संबंधों को साधने के चक्कर में दोहरे मापदंड अपनाते हैं जिसका खामियाजा अक्सर छात्रों को चुकाना पड़ता है । आज जाति का प्रश्न इतना हावी हो गया है कि छात्र और शिक्षक के संबंधों का निर्णय जाति-साम्य पर ज्यादा निर्भर करने लगा है ।
कबीर की दृष्टि में गुरु ‘गोविन्द’ से भी बढ़कर है क्योंकि –
‘हरि रुंठे गुरु ठौर है , गुरु रूंठे नहिं ठौर ।’
कबीर गुरु को ही सर्वप्रथम आदर-सम्मान देते हैं और गुरु रूपी प्रकाश से ही मानव जीवन का अंधकार दूर हो सकता है ऐसा मानते हैं । जब वे कहते हैं कि
“सुखिया सब संसार है खाए और सोए ।
दुखिया दास कबीर है गाए और रोए ।।”
तो इससे उनके विचारों में आधुनिक सभ्यता की मनोवृति का बोध होता है जो संसार को समरसता में देखना चाहता है । कबीर का ज्ञान-मार्ग आधुनिक शिक्षा-व्यवस्था पर गहरी चोट करता है, हमें आधुनिक शिक्षा-व्यवस्था को गुरु-शिष्य परम्परा के नि:स्वार्थ बंधन से देखना चाहिए ताकि समाज में भेदभाव की संस्कृति को दूर किया जा सके । जैसा कि कबीर कहते भी हैं –
“नाँ गुर मिल्या न सिष भया, लालच खेल्या डाव ।
दुन्यूं बूड़े धार मैं, चढि पाथर की नाव ।।”
कबीर कहते हैं एक सच्चे गुरु और एक सच्चे शिष्य का होना जरूरी है, उनमें निःस्वार्थ भावना होनी चाहिए क्योंकि स्वार्थ रहित गुरु शिष्य का सम्बन्ध ही समाज के लिए बेहतर हो सकता है । आज के समय में हम देखते हैं कि छात्र अपने स्वार्थ हित देख कर एक ऐसे गुरु की तलाश करता है जो उसे ज्यादा लाभ पहुंचा सकता है, ठीक उसी प्रकार गुरु भी अपने शिष्यों की संख्या बढ़ाना चाहता है जिससे स्वार्थ हित सध सके और व्यावसायिक कारोबार चल सके । इस तरह शिक्षा एक व्यापार का माध्यम बनता जा रहा है और अंत में जो हमें देखने को मिलता है वह यह कि छात्र एक बनावटी चकाचौंध की दुनिया में भटकता रहता है । साथ ही, कबीर शिष्य के स्वभाव पर बात करते हुए कहते हैं कि
“सतगुर मिल्या त का भयाँ, जे मनि पाड़ी भोल ।
पासि बिनंठा कप्पड़ा, क्या करै बिचारी चोल ।।”
कबीर दोहे के माध्यम से यह दिखाना चाहते हैं कि एक सच्चा सतगुरु मिल भी जाए जो आज के समय में हमें राह दिखा सकता है तो भी शिष्य का मन मलिन होतो वह गुरु-ज्ञान का महत्त्व नहीं आँक पाएगा । यदि धूल में पड़कर कपड़ा ही मैला हो गया हो तो उसे रंगने वाली मजीठ लता भी बेचारी क्या कर सकती है ? कबीर अन्यत्र भी ज्ञान-साधना की सफलता के लिए योग्य शिष्य की आवश्यकता पर बल देते हुए कहते हैं –
“सतगुरु बहुरा क्या करै, जे सिषही मांहे चूक ।”
कबीर की प्रासंगिकता इस बात से स्पष्ट हो जाती है कि उन्हें हम वर्तमान दौर में भी शिक्षा जैसे विषयों से जोड़कर देख रहे हैं क्योंकि आज का पूरा शिक्षातंत्र बाजारीकरण जैसे मूल्यों और रोजगार आदि से जुड़ गया है जिस कारण उसमें भक्तिकालीन परम्परा का बोध और गुरु-शिष्य की आदर्श भावना नहीं रह गई है । इन सब बातों के आधार से ही आधुनिक समय में भक्तिकालीन संत कवि कबीरदास का भावबोध झलकता है जिसमें हमें आधुनिक शिक्षा-व्यवस्था को गुरु-शिष्य परम्परा के निःस्वार्थ बंधन से देखना चाहिए ताकि समाज में भेदभाव की संस्कृति को दूर किया जा सके । आज की आधुनिक शिक्षा-व्यवस्था में जो स्वार्थ भावना और गुरु के प्रति आस्था का प्रश्न व्यावसायिक तौर तरीकों में दीखता है वह सब नहीं होना चाहिए । यहीं से गुरु-शिष्य की परम्परा और शिक्षा-व्यवस्था की नवीन पहल की शुरुआत होती है । हमें इस दौर में कबीर के ‘गुरुदेव कौ अंग’ से आधुनिक दृष्टि में शिक्षा-व्यवस्था को समझने का मौका मिलता है, वर्तमान में इसी से गुरु-शिष्य परम्परा के आदर्श को आगे बढ़ाने में मदद मिलेगी जैसा कि हम उनके दोहों में देखते हैं । कबीर इस रूप में ही गुरु-शिष्य परम्परा की भारतीय जमीन पर खड़े नजर आते हैं ।

संदर्भ ग्रंथ :
कबीर ग्रंथावली, सम्पादक – श्यामसुन्दर दास, वाणी प्रकाशन, संस्करण – 2014
कबीर – हजारी प्रसाद द्विवेदी , वाणी प्रकाशन ,2015
हिंदी साहित्य का इतिहास -आचार्य रामचंद्र शुक्ल , वाणी प्रकाशन,2007

आलेख

रंजीत कुमार यादव
शोधार्थी –
दिल्ली विश्वविद्यालय
Mobile number -9910829645
Email- jeetyaduvanshi@gmail.com

कबीर की ‘गुरुदेव कौ अंग’ के आधार पर शिक्षण प्रक्रिया की विवेचना
मध्यकालीन दौर के होते हुए भी कबीर अपने आधुनिक विचारों के कारण आज भी स्मरणीय हैं । अपनी साखियों एवं पदों में अपनी क्रांतिधर्मिता के कारण कबीर उस समय भी उतने ही प्रासंगिक थे जितने कि आज हैं या यह कहना ज्यादा उचित होगा कि कबीर आज के बाजारवाद और उपभोक्तावादी संस्कृति के दौर में जहाँ हर चीज अर्थ केंद्रित हो गयी है वहां उनकी प्रासंगिकता और बढ़ जाती है, आज स्थितियां और भी गंभीर हो गयी हैं । भक्तिकाल के उस समाज में सामाजिक कुरीतियाँ, पाखण्ड, धार्मिक अन्धविश्वास और जातिगत भेदभाव फैला हुआ था । कबीर ने इन सब का विरोध किया और बिना किसी डर के अपनी बात कही । जो आधुनिकता हम उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में देखते हैं वह कबीर के यहाँ हमें बहुत पहले दिखाई पड़ती है । ‘गुरुदेव कौ अंग’ में भी कबीर जिन विचारों को लेकर सामने आते हैं वह एक आदर्श स्थिति है ।
कबीर का मत सतगुरु की तलाश में रहा है, वे इस जगत में गुरु को राह दिखाने वाला मानते हैं । उनके लिए गुरु सत्य की ज्योति है जो अंधकार से प्रकाश की ओर लाने में और पुरातन को नवीन बनाने में एकनिष्ठता रखता है । कबीर एक जगह कहते हैं कि
“तोरा मोरा मनवा कैसे एक होय रे ।
तूँ कहता कागद की लेखी मैं कहता आँखन की देखी ।।”
अर्थात प्रत्यक्ष ज्ञान की जो महत्ता है वह शास्त्र पढ़ लेने से नहीं हो सकती है इसी को कबीर ने ‘आँखन देखी” कहा है, वर्तमान समाज में यही पक्ष गुरु-शिष्य परम्परा में होना चाहिए केवल किताबी ज्ञान की अपेक्षा हमें समाज के लौकिक ज्ञान की ओर देखना चाहिए जो व्यावहारिक हो ।
कबीर निरक्षर थे लेकिन उनके सांसारिक ज्ञान में विराटता थी । वे गुरु-महिमा और उसके प्रति अगाध श्रद्धा का भाव दिखाते हुए ही यह भी कहते हैं कि
“सतगुरु की महिमा अनंत, अनंत किया उपगार ।
लोचन अनंत उघाड़िया, अनंत दिखावणहार ।।”
जबकि आज की शिक्षा-व्यवस्था में कहीं न कहीं शिष्य के लिए गुरु-महिमा का वही अर्थ नहीं रह गया है । लोग लोभ लालच के भाव से ही आज अपने सम्बन्धों को निभा रहे हैं । कहना न होगा कि कबीर जिस गुरु की बात करते हैं वह ‘आध्यात्मिक गुरु’ हैं साथ ही, इन सब के मध्य वे ऐसे सूत्र देते हैं जिसमें शिक्षण प्रक्रिया के तत्व को ढूंढ लेना मुश्किल नहीं है ।
“गुरु कुम्हार शीष कुंभ है, गढ़ गढ़ काढै खोट ।
भीतर हाथ सहारि दे , बाहर बाहै चोट ।।”
यानी तात्पर्य यह है कि सच्चा गुरु शिष्य को एक घड़े की तरह तराशता है । जिस प्रकार एक कुम्हार घड़े बनाते समय कच्ची मिट्टी को बड़ी ही चतुराई से तराशता है वैसे ही एक गुरु शिष्य के मन मस्तिष्क को तराशता है । उसे अपने विचारों से मनुष्यता का पाठ पढाता है ताकि वह सच्चे अर्थ में मनुष्य बन सके । शिष्य उस कच्ची मिट्टी की भांति ही होता है जिसे गुरु तराशता है ।
कबीर शास्त्र जनित ज्ञान का विरोध करते हैं । आज के समय में देखा जाय तो जिस शास्त्र जनित ज्ञान की बात की जा रही है, कबीर किसी भी दृष्टि से उस विचारधारा के पैरोकार नजर नहीं आते । कबीर शास्त्र से ज्यादा जीवनानुभव से सीखने पर बल देते हैं । आज शिक्षा व्यवस्था का बाजारीकरण हो गया है । गुरु की जगह शिक्षक ने और शिष्य की जगह छात्र ने ले लिया है । बदलते परिवेश में जिस तरह से लोग सिमटते जा रहें है उसी तरह गुरु, शिष्य जैसे शब्दों का भी अर्थ संकोच हो गया है । शिक्षा के व्यवसायीकरण ने शिक्षा को अप्राप्य बना दिया है ऐसे में एक बहुत बड़ा तबका शिक्षा से वंचित रह जाता है जिसके उन्मूलन के लिये सरकार को शिक्षा को मौलिक अधिकार की श्रेणी में रखना पड़ता है फिर भी स्थिति चिंतनीय है । आज की व्यवस्था में संबंधों का जो बदलाव आया है उसने गुरु–शिष्य के संबंधों को भी बदल कर रख दिया है । कबीर जिस गुरु की बात करते हैं वैसा गुरु इस दौर में मिलना मुश्किल है साथ ही जिस तरह का समर्पण भाव हम शिष्य में खोजते या चाहते हैं वह भी आज के दौर में मिलना मुश्किल है ।
कबीर का यह दोहा आज के दौर में कितना सटीक जान पड़ता है –
“जाका गुरु भी अंधला, चेला खड़ा निरंध ।
अंधा अंधा ठेलिया, दुन्यूं कूप पडंत ।।”
गुरु का काम है स्वयं आगे चलकर शिष्य का मार्गदर्शन करना । कबीर यहाँ व्यंग्य करते हुए कहते हैं कि जिसका गुरु स्वयं अज्ञानी है उसका शिष्य तो घोर अज्ञानी होगा ही जब एक अंधा दूसरे अंधे को मार्ग दिखाता हुआ चलता है तो दोनों कुँए में गिर पड़ते हैं, अर्थात भवसागर में पड़े रहकर नष्ट हो जाते हैं । आज के सन्दर्भ में इस दोहे पर दृष्टिपात करें तो देख सकते हैं कि शिक्षकों और छात्रों की एक लम्बी फेहरिश्त हमें दिख जाती है जहाँ दोनों चाटुकारिता के शिकार हैं । इस चाटुकारिता के कारण शिक्षक और छात्र दोनों एक-दुसरे को छलते हुए नजर आते हैं । छद्म आस्था लिए छात्र की अवसरवादिता इस दौर में बढती ही जा रही है । ऐसे में कबीर जिस गुरु की बात करते हैं और एक शिष्य में जिस समर्पण भाव की वकालत करते हुए नजर आते है वह आज के परिवेश में विरले ही मिलते हैं ।
“कबीर गुर गरबा मिल्या, रलि गया आटै लूँण ।
जाति पाँति कुल सब मिटै, नांव धरोगे कौण ।”
यानी यहाँ पर कबीर कहते हैं कि एक बार गुरु के गले लगाने से शिष्य की जाति-पाति कुल सब मिट जाता है । एक गुरु के लिए वह जाति–पाति, कुल ,गोत्र से ऊपर महज एक शिष्य रह जाता है । एक गुरु के लिए उसके सभी शिष्य एक समान हैं । किन्तु आज के परिप्रेक्ष्य में ऐसे गुरु का मिल पाना बहुत मुश्किल है । आज अधिकांश शिक्षक राजनीतिक संबंधों को साधने के चक्कर में दोहरे मापदंड अपनाते हैं जिसका खामियाजा अक्सर छात्रों को चुकाना पड़ता है । आज जाति का प्रश्न इतना हावी हो गया है कि छात्र और शिक्षक के संबंधों का निर्णय जाति-साम्य पर ज्यादा निर्भर करने लगा है ।
कबीर की दृष्टि में गुरु ‘गोविन्द’ से भी बढ़कर है क्योंकि –
‘हरि रुंठे गुरु ठौर है , गुरु रूंठे नहिं ठौर ।’
कबीर गुरु को ही सर्वप्रथम आदर-सम्मान देते हैं और गुरु रूपी प्रकाश से ही मानव जीवन का अंधकार दूर हो सकता है ऐसा मानते हैं । जब वे कहते हैं कि
“सुखिया सब संसार है खाए और सोए ।
दुखिया दास कबीर है गाए और रोए ।।”
तो इससे उनके विचारों में आधुनिक सभ्यता की मनोवृति का बोध होता है जो संसार को समरसता में देखना चाहता है । कबीर का ज्ञान-मार्ग आधुनिक शिक्षा-व्यवस्था पर गहरी चोट करता है, हमें आधुनिक शिक्षा-व्यवस्था को गुरु-शिष्य परम्परा के नि:स्वार्थ बंधन से देखना चाहिए ताकि समाज में भेदभाव की संस्कृति को दूर किया जा सके । जैसा कि कबीर कहते भी हैं –
“नाँ गुर मिल्या न सिष भया, लालच खेल्या डाव ।
दुन्यूं बूड़े धार मैं, चढि पाथर की नाव ।।”
कबीर कहते हैं एक सच्चे गुरु और एक सच्चे शिष्य का होना जरूरी है, उनमें निःस्वार्थ भावना होनी चाहिए क्योंकि स्वार्थ रहित गुरु शिष्य का सम्बन्ध ही समाज के लिए बेहतर हो सकता है । आज के समय में हम देखते हैं कि छात्र अपने स्वार्थ हित देख कर एक ऐसे गुरु की तलाश करता है जो उसे ज्यादा लाभ पहुंचा सकता है, ठीक उसी प्रकार गुरु भी अपने शिष्यों की संख्या बढ़ाना चाहता है जिससे स्वार्थ हित सध सके और व्यावसायिक कारोबार चल सके । इस तरह शिक्षा एक व्यापार का माध्यम बनता जा रहा है और अंत में जो हमें देखने को मिलता है वह यह कि छात्र एक बनावटी चकाचौंध की दुनिया में भटकता रहता है । साथ ही, कबीर शिष्य के स्वभाव पर बात करते हुए कहते हैं कि
“सतगुर मिल्या त का भयाँ, जे मनि पाड़ी भोल ।
पासि बिनंठा कप्पड़ा, क्या करै बिचारी चोल ।।”
कबीर दोहे के माध्यम से यह दिखाना चाहते हैं कि एक सच्चा सतगुरु मिल भी जाए जो आज के समय में हमें राह दिखा सकता है तो भी शिष्य का मन मलिन होतो वह गुरु-ज्ञान का महत्त्व नहीं आँक पाएगा । यदि धूल में पड़कर कपड़ा ही मैला हो गया हो तो उसे रंगने वाली मजीठ लता भी बेचारी क्या कर सकती है ? कबीर अन्यत्र भी ज्ञान-साधना की सफलता के लिए योग्य शिष्य की आवश्यकता पर बल देते हुए कहते हैं –
“सतगुरु बहुरा क्या करै, जे सिषही मांहे चूक ।”
कबीर की प्रासंगिकता इस बात से स्पष्ट हो जाती है कि उन्हें हम वर्तमान दौर में भी शिक्षा जैसे विषयों से जोड़कर देख रहे हैं क्योंकि आज का पूरा शिक्षातंत्र बाजारीकरण जैसे मूल्यों और रोजगार आदि से जुड़ गया है जिस कारण उसमें भक्तिकालीन परम्परा का बोध और गुरु-शिष्य की आदर्श भावना नहीं रह गई है । इन सब बातों के आधार से ही आधुनिक समय में भक्तिकालीन संत कवि कबीरदास का भावबोध झलकता है जिसमें हमें आधुनिक शिक्षा-व्यवस्था को गुरु-शिष्य परम्परा के निःस्वार्थ बंधन से देखना चाहिए ताकि समाज में भेदभाव की संस्कृति को दूर किया जा सके । आज की आधुनिक शिक्षा-व्यवस्था में जो स्वार्थ भावना और गुरु के प्रति आस्था का प्रश्न व्यावसायिक तौर तरीकों में दीखता है वह सब नहीं होना चाहिए । यहीं से गुरु-शिष्य की परम्परा और शिक्षा-व्यवस्था की नवीन पहल की शुरुआत होती है । हमें इस दौर में कबीर के ‘गुरुदेव कौ अंग’ से आधुनिक दृष्टि में शिक्षा-व्यवस्था को समझने का मौका मिलता है, वर्तमान में इसी से गुरु-शिष्य परम्परा के आदर्श को आगे बढ़ाने में मदद मिलेगी जैसा कि हम उनके दोहों में देखते हैं । कबीर इस रूप में ही गुरु-शिष्य परम्परा की भारतीय जमीन पर खड़े नजर आते हैं ।

संदर्भ ग्रंथ :
कबीर ग्रंथावली, सम्पादक – श्यामसुन्दर दास, वाणी प्रकाशन, संस्करण – 2014
कबीर – हजारी प्रसाद द्विवेदी , वाणी प्रकाशन ,2015
हिंदी साहित्य का इतिहास -आचार्य रामचंद्र शुक्ल , वाणी प्रकाशन,2007

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ऱफ्तार जिदंगी की

ऱफ्तार जिदंगी की

रफ्तार जिंदगी की बेशक माहौल बोझिल, आंखों में खौफ का मंजर, फिजा में मौत का दहशत और दिलों में उदासी है। हर शख्स एक दूसरे से फासले बनाकर रहने को मजबूर है। परंतु आप यकीन करें आज दूर- दूर होते हुए भी हम इतने निकट कभी नहीं रहे… आप खुद किसी के भी दिल में झांक कर देख लीजिये वहां आपको अपने लिए भी सलामती की दुआओं में झुके हुए सिरों का, बुदबुदाते होठों का, जुड़े हुए हाथों का अक्स नजर आएगा। हमने यह जान लिया है कि मंदिरों की घंटियों की सुमधुर आवाज से हम वंचित रह सकते हैं, गुरद्वारे केअरदास के लिए तरस सकते हैं, मस्जिदों की अजान से महरुम हो सकते है, चर्चों के सूने गलियारे की उदासी को सह सकते हैं परंतु जबतक इंसान के जज्बे बरकरार हैं, इंसानियत जिंदा है; जिंदगी की रफ्तार धीमी हो सकती है, रुक नहीं सकती। जरुरत इस बात की है कि हम इस उदासी को अपने स्नेहभरी मखमली लिहाफों के तले गर्माहट दें… उनींदी आंखों को सकून और चैन दें… मजबूर, लाचार और निरीह को आशा की किरणों का सौगात दें… इंसानी संबंधों की नाजुक रेशमी डोर को मजबूती और लचीलापन का एक अनोखा संगम दें। जीवन की तल्खी का प्रकृति ने अनोखे ढंग से उपचार किया है। आसमान की नीलिमा में निखार आ गया है, चांद खिला – खिला नजर आने लगा है, नदियों की धाराएं संगीतमय हो गई हैं, सैलानी पक्षियों के कलरव में जीवन का उल्लास नजर आने लगा है… और मौसम का यह मिजाज हमें आनेवाले सुहाने समय के प्रति आश्वस्त करता है। हर किसी के लिए एक नई, सुवासित, ताजी, सुखद और स्वस्थ्य सुबह का यह इंतजार कोरी रस्म अदायगी भर नहीं है: यह विश्वास की वह लौ है जो भयंकर तूफानों में भी जगमगाती है, अंधेरी गुफाओं में भी हमें राह दिखाती है और मंजिल पर पहुंचाकर ही चैन की सांस लेती है। यह मायूसी जल्द दूर होगी और जिंदगी एक बार फिर मुस्करा उठेगी। आनेवाले उस सकून भरे वक्त में हम अपने इस मुश्किल वक्त को अपनी नम आंखों और मंद मुस्कानों के साथ याद कर रोमांचित हो जाया करेंगे। देवेन्द्र कुमार मिश्र अंधेरी (पश्चिम), मुम्बई – 400058
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अजेय परमाणु शक्ति पर जीत

अजेय परमाणु शक्ति पर जीत

वर्ष 1945 में अमेरिका दुनिया को भयभीत कर सुपर पावर बनने की राह पर निकला था, और शायद दुनिया को अपनी परमाणु शक्ति का भय दिखाने के लिए ही उसने 6 अगस्त 1945 और 9 अगस्त 1945 को हिरोशिमा और नागासाकी में लगभग 4400 किलोग्राम वज़नी 13 किलोटन टीएनटी से भरपूर परमाणु बम फैंके। जिनके कारण अधिकारिक आंकड़ों के अनुसार जापान में 1,29,000 से अधिक की मृत्यु और अनगिनत घायल हुए। इन आंकड़ों को एकत्रित करने वालों से मैं क्षमा चाहता हूँ क्योंकि मेरे अनुसार ये आंकड़े अभी अधूरे हैं। मेरी समझ से इन मृतकों और घायलों के अतिरिक्त और भी तीन बहुमूल्य चीज़ें मरी हैं, घायल अथवा आहत हुई हैं, जिनके आंकड़े एकत्रित नहीं किये गये। सबसे पहला आंकड़ा है निर्भयता की मृत्यु का – क्या इसका आकलन किया जा सकता है? आप कहेंगे नहीं, मैं भी आपसे सहमत हूँ। लेकिन फिर भी एक बात बताता हूँ। कई बार पढ़ा-सुना है कि द्वितीय विश्वयुद्ध में परमाणु हथियारों के प्रयोग के कारण हिरोशिमा और नागासाकी में आज भी कई बच्चे विकलांग पैदा होते हैं। हालाँकि मेरा मानना है कि सिर्फ वहीँ नहीं बल्कि पूरी दुनिया में बच्चे आज भी परमाणु बमों के खौफ के साथ पैदा होते हैं और अगले न जाने कितने वर्षों तक यह भय नवजात शिशुओं में कायम रहेगा। दूसरा आंकड़ा जिसे एकत्रित नहीं किया गया वह है प्रकृति दोहन का। ऊर्जा का एक उपयोग है राकेट-कृत्रिम उपग्रह आदि का प्रक्षेपण। तीव्र वेग के कारण राकेट आदि पृथ्वी के वायुमंडल को भेदते हुए अन्तरिक्ष में जाने को समर्थ हैं और वही ऊर्जा यदि पृथ्वी पर विस्फोट करे तो वायुमंडल का कितना भेदन होगा? यह क्या सोचने योग्य नहीं है? तीसरा आंकड़ा है मानवीयता पर लगे घावों का। मन और मस्तिष्क दो अलग-अलग अस्तित्व हैं। मस्तिष्क भौतिक है और मन अभौतिक या कहें अतिसूक्ष्म। मानवीयता का सम्बन्ध मन से है। मन बड़ा होना चाहिये लेकिन कठोर नहीं। कठोर मन में नकारात्मकता बड़े आराम से स्थान बना सकती है। बहुत अधिक मृत्यु आधारित हाहाकार देख-सुनकर मन की कठोरता बढ़ेगी ही बढ़ेगी, जिसके दुष्परिणाम मानवता का हनन करेंगे या नहीं, यह आप स्वयं अंदाजा लगा सकते हैं। निर्भयता की मृत्यु, प्रकृति के घाव और मानवीयता के आहत होने से पहले परमाणु शक्ति ने किस तरह अपने पैर पसारे होंगे, यह कोई अधिक शोध का विषय नहीं है। परमाणु बमों के इतिहास को खंगालें तो आधुनिक युग में अमेरिका ने परमाणु बम का सबसे पहला परीक्षण 16 जुलाई 1945 को न्यू मेक्सिको में सवेरे 5:30 बजे किया था। फिर 1949 में सोवियत संघ ने, 1952 में ब्रिटेन ने, 1960 में फ्रांस, 1964 में चीन, 1974 में भारत और 1998 में पाकिस्तान ने अपना पहला परमाणु परीक्षण किया। लेकिन यदि हम भारत में परमाणु बमों के इतिहास के बारे में विचार करें तो यह तथ्य निःसंदेह विचारणीय है कि महाभारत, रामायण और अन्य शास्त्रों में वर्णित ब्रह्मास्त्र ही शायद आधुनिक परमाणु बम है। इसके कई प्रमाण भी विद्यमान हैं, जिनके बारे में हम आगे चर्चा करेंगे लेकिन यह माना जा सकता है कि भारत में परमाणु बम सदियों पहले भी अस्तित्व रहे होंगे। परन्तु भारतवर्ष के मूल में एक विचार यह भी है कि हम शक्ति संपन्न तो होते हैं लेकिन शक्ति का दुरुपयोग कर विनाश नहीं करते। पुरातन परमाणु बम अर्थात ब्रह्मास्त्र का प्रयोग करने से हमारे ही महापुरुषों और अवतारों ने मना किया था। हम आज भी याद रखते हैं श्रीकृष्ण का दिया वह ज्ञान, जब महाभारत में अर्जुन और अश्वत्थामा ने ब्रह्मास्त्र चलाया था तो उन्होंने रोक दिया था और अश्वत्थामा द्वारा ब्रहमास्त्र को पुनः लेने में असमर्थता जाहिर करने पर उसे भयंकर रोगों के साथ हजारों वर्षों तक भटकते रहने का श्राप दे दिया था। इसी प्रकार रामायण में भी राम-रावण युद्ध के दौरान मेघनाद को मारने के लिए लक्ष्मण ने ब्रह्मास्त्र के प्रयोग की श्रीराम से अनुमति मांगी थी और राम ने मना कर दिया था। उस समय राम ने कहा था कि ब्रह्मास्त्र के प्रयोग से लंका के न केवल कई निर्दोष व्यक्ति-पशु मारे जायेंगे बल्कि प्रकृति को भी बहुत क्षति होगी। उपरोक्त दोनों उदाहरणों से यह लगभग स्पष्ट ही है कि हजारों वर्ष पूर्व हमारा देश परमाणु शक्ति सम्पन्न था और इतने शक्तिवान होने के बावजूद भी हमारे पूर्वज इस तरह के अस्त्रों का प्रयोग उचित नहीं समझते थे। शक्ति होना आवश्यक है लेकिन उसका प्रयोग मानवता के विनाश के लिए नहीं वरन मानव और मानवता की रक्षा के लिए होना चाहिए। पुरातन कालों में यह विश्वास स्थापित होने के कारण आम व्यक्तियों में ना तो भय का माहौल था, ना ही प्रकृति के दोहन की स्थिति बनी और ना ही मानवता हताहत हुई। इसके विपरीत उन कालों में हम निर्भीक थे, प्रकृति का बेहतर सरंक्षण हुआ था और मानव मूल्य अधिकतर व्यक्तियों के गुण थे। महाभारत के अनुसार यदि दो ब्रह्मास्त्र आपस में टकरा जाते हैं तो प्रलय की स्थिति उत्पन्न हो जाती है, जिससे पूरी पृथ्वी के समाप्त होने का डर भी रहता है। महाभारत में वर्णित एक श्लोक है तदस्त्रं प्रजज्वाल महाज्वालं तेजोमंडल संवृतम। सशब्द्म्भवम व्योम ज्वालामालाकुलं भृशम। चचाल च मही कृत्स्ना सपर्वतवनद्रुमा।। अर्थात ब्रह्मास्त्र छोड़े जाने के पश्चात् भयंकर तूफ़ान आया था। आसमान से हज़ारों उल्काएं गिरने लगीं। सभी को महाभय होने लगा। बहुत बड़े धमाके साथ आकाश जलने लगा। पहाड़, जंगल, पेड़ों के साथ धरती हिल गई। यदि हम परमाणु हमले को याद करें तो यही सब कुछ तो हिरोशिमा और नागासाकी में भी हुआ था – तेज़ चमक फिर धमाका उसके बाद तूफ़ान और फिर आग ही आग। इस तथ्य के अतिरिक्त मोहनजोदड़ो की खुदाई के अवशेषों के परिक्षण के बाद यह प्राप्त हुआ कि कई अस्थिपंजर जिन्होंने एक-दूसरे के हाथ ऐसे पकड़े हुए थे जैसे किसी विपत्ति के कारण वे मारे जा रहे हों, उन पर उसी प्रकार की रेडियो एक्टिविटी पायी गयी जैसी रेडियो एक्टिविटी हिरोशिमा और नागासाकी के नरकंकालों पर एटम बम के पश्चात थी। इन सभी बातों से हम यह मान सकते हैं कि आदिकालीन सभ्यता में भी कहीं न कहीं परमाणु बम किसी न किसी रूप में उपलब्ध रहे होंगे। श्रीराम और कृष्ण की तरह ही चाहे परमाणु शक्ति संपन्न देश हो या परमाणु शक्तिहीन देश, परमाणु परीक्षणों और परमाणु बमों के निर्माण का समर्थन नहीं करता। हालाँकि महाशक्ति अमेरिका और अन्य कई देश परमाणु परिक्षण और बमों में कमी नहीं ला रहे हैं। 1998 के परमाणु परीक्षण के बाद भारत को कई अंतरराष्ट्रीय आर्थिक प्रतिबंधों का सामना करना पड़ा था लेकिन हम अपनी छवि को बेहतर करते हुए स्वयं को एक जिम्मेदार देश दर्शा पाने में सफल हुए हैं। लेकिन चूँकि हमें खतरा है परमाणु शक्ति सम्पन्न पडौसी देशों से, इसलिए 1998 में किया गया परमाणु परिक्षण केवल परमाणु परिक्षण न मानकर शक्ति प्रदर्शन भी माना जा सकता है। परमाणु बमों की वास्तविक संख्या के बारे में केवल परमाणु परीक्षणों के आधार पर ही अनुमान लगाया जा सकता है, जिसके अनुसार अमेरिका के पास 7500 से अधिक, रूस के पास लगभग 8500, फ़्रांस के पास 300, चीन के पास 250, ब्रिटेन के पास 225, पाकिस्तान के पास 100 से अधिक, भारत के पास 90-100 केम मध्य, इस्राईल के पास 80-100 और उत्तर कोरिया के पास 6 परमाणु बम हो सकते हैं। इन परमाणु बमों से धरती पर सैकड़ों बार जीवन को नष्ट किया जा सकता है। परमाणु निशस्त्रीकरण की वैश्विक मांग के बावजूद भी परमाणु बमों की संख्या बढती जा रही है। यह एक सत्य है कि परमाणु शक्ति है और इस शक्ति के दुरुपयोग ‘परमाणु बमों’ से संपन्न हम स्वयं को शक्तिशाली तो मान रहे हैं लेकिन यदि पडौसी देश पाकिस्तान और हमारे बीच कभी परमाणु युद्ध हो जाये तो उसकी भयावहता के बारे में भी थोड़ा विचार कर लें। यह बात राम या कृष्ण ने खुल कर नहीं कही क्योंकि उनकी बात मान ली गयी थी और हम हैं कि मान नहीं रहे। सच तो यह है कि यदि 65 किलोटन का एक परमाणु बम फैंका जाये तो कम से कम मरने वाले लोगों की संख्या 6,50,000 और घायलों की संख्या 15,00,000 से भी अधिक होगी। ज़रा सोचिये कि भारत और पकिस्तान के कितने शहर एक ही परमाणु बम से तबाह हो सकते हैं और उसी एक परमाणु बम से कितने ही पर्वत, पेड़ आदि सभी खत्म हो जायेंगे, कितने ही वर्षों तक बच्चे विकलांग पैदा होंगे, महामारियों की चपेट में रहेंगे। और अधिक कल्पना कीजिए कि यदि 100-100 परमाणु बम दोनों देश चला दें तो…? परमाणु शक्ति से संपन्न होना चाहे पुरातन इतिहास में भी मौजूद है लेकिन है तो हानिकारक ही और यह भी एक सत्य है कि परमाणु शक्ति संपन्न सभी देशों में से किसी की भी स्थिति अर्जुन की तरह नहीं बल्कि अश्वत्थामा की तरह है, एक बार यदि चल गया तो पुनः वापस नहीं ले सकते। मेरा मत है कि धरती के भविष्य पर मंडरा रहे इस खतरे के मद्देनज़र हमें सभी परमाणु बमों और परमाणु बम से भी अधिक खतरनाक हाइड्रोजन बमों को कहीं सुदूर अन्तरिक्ष में ले जाकर शून्य में फैंक देना चाहिये। ताकि उल्का पिंडों, धूमकेतुओं आदि से टकरा कर वे वहीँ नष्ट हो जाएँ। धरती पर मानव हैं-पशु हैं-पेड़-पौधे आदि प्रकृति प्रदत्त जीव हैं, इनको बचाने के लिए इन बमों और अन्य किसी भी तरह की विनाशकारी शक्तियों को समूल नष्ट करना बहुत आवश्यक है। साथ ही हम सभी के लिए आवश्यक है कि इनको समूल नष्ट करने के लिए अपनी आवाज़ बुलंद करें। ज़रा सोचिए परमाणु शक्ति संपन्न देश परमाणु उर्जा का विकास कार्यों में उपयोग करें तो क्या कुछ नहीं किया जा सकता? – डॉ. चंद्रेश कुमार छ्तलानी
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अपनी ज़मीन

अपनी ज़मीन

मेरे घर के इर्द गिर्द कई पेड़ हैं मोहगनी,शीशम,नारियल, आम,नीम और नीलगिरी का वृक्ष है । जिनमें कुछ लंबे -चौड़े हैं तो कुछ छोटे और बौने हैं। जो अपनी अपनी जगह विद्यमान हैं, उनमें न कोई राग है न द्वेष है न वर्ण है न भेद है जीवन अभी सावशेष है, पर जब-जब हवा आँधियों में बदलकर वहाँ से गुजरती है तो एक विभत्स दृश्य सामने आता है बड़े पेड़ छोटे पौधों पर कुछ इस तरह झपटते हैं जैसे पूंजीपति,मजदूर पर पुरूषपशु अबला पर बलशाली कमजोर पर। पर वे भूल जाते हैं उनका आधार और उनके अस्तित्व को छोटे पौधे ही अपनी जड़ों से बांध कर रखते हैं। आँधियाँ सिर्फ विनाशकारिणी ही नहीं, क्रान्तिवाहिनी भी होती हैं जो उखाड़ फेंकेंगी इन बड़े वृक्षों को उनकी जड़ो से, जो छोटे पौधों को बढ़ने नहीं देती और रह जाएंगे सिर्फ ये छोटे पौधे ही, अपनी ज़मीन पर अपने होने का प्रमाण लिये
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कविताएँ

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1.कविता विश्वकर्मा है…! कवि नहीँ बनता पहले पहले बनती है कविता! कविता के पकने पर कवि का होता है जन्म। कविता एक फल है कवि उसकी मिठास है। प्रकृति की हर कमी को कविता अंततः भर देती है, जहाँ-जहाँ भी किसी कवि की जरूरत होगी कविता स्वतः वहाँ-वहाँ किसी कवि को जन्म दे देगी प्रकृति और जीवन के मध्य जो खालीपन है उसे कविता पाट देती है कविता मन-महलोँ की विश्वकर्मा है। *********** 2.पिता से बात……! पिता से बात करते हुए ऐसा लगता है जैसे आसमान से बात करना। आसमान जानता है संसार की सारी बातें इसलिए पिता से बात करते हुए मैं सारे संसार से मिल लेता हूँ। संसार घूमने से अच्छा है पिता के साथ घूम लेना। पिता के साथ घूमते हुए आसमान को नापते देर नहीँ लगती। ********* 3.नई कविता ऐसे पढ़े…! आइये, बिना कवि के नाम और तस्वीर के कोई कविता पढ़े, कविता को कविता की नजर से देखे नाम और तस्वीर में छीपी पूर्वाग्रह की “तानसेनी” गन्ध से मुक्त हो कर आँखे कुएँ के पानी से धोए, कुआँ जो मेहनत से खोदा गया धरती को पसीने के मोती से सींचकर बनाया गया। ऐसा करना इसलिए भी जरूरी है कि हम एक मौलिक और सरस कविता चाहते हैं तो आइये पहले मन को मौलिक बनाएं इच्छाओं को सरस बनाएं। हर नई कविता के स्वागत में कैसी शर्म? अगर वो इसके लायक है तो थोड़ा सा समय निकाल कर पढ़ लो इससे सूरज के रथ के पहिए थम नहीँ जाएँगे ऐसा करने से हमारे प्रिय कवि की कविताएँ आत्महत्या नहीँ करेगी! वरिष्ठ कवि जिनकी नाक के दोनों और की आँखे भी वरिष्ठ हो चुकी है, मैं उनसे निवेदन करता हूँ कि नई कविताओँ को भी अपनी आँखों का सुख दे, नई कलम को देख कर उसकी नोंक को न घूरे उसकी स्याही को मिलावटी न कहे उस स्याही से बने अक्षरों के अर्थों को अपनी अँजुरी में भरकर उस दिशा में उछाल दे जहाँ से हवा सरपट दौड़कर चाँद की पगड़ी को छू आती है। ********* 4.दिल्ली में…..! दिल्ली में जो लिखा जाएगा वही पढ़ने के हिसाब से स्तरीय होगा ऐसी घोषणा किसी दिन की होगी ब्रह्मा ने अपने आसन से! दिल्ली में जो रहेगा वही कहने के हिसाब से कवि होगा यह घोषणा भी उसी दिन ब्रह्मा ने की होगी! आलोचक होने के लिए बनारस की सीढ़ियों पर बैठना जरूरी है सारे सच्चे आलोचक गंगा में डुबकियां लगा कर पहुँचे हैं अंततः दिल्ली! इधर जो लिख रहे हैं कविताएँ अलग-अलग शहरों में बैठकर दरअसल वो ब्रह्मा के बनाएं विधान को तोड़ रहे हैं दिल्ली से ही कविताएँ फूटती है और बनारस में जाकर पूरे देश में फ़ैल जाती है सुना है आजकल सारे कवियोँ ने अपने शहर का नाम दिल्ली कर लिया है और ब्रह्मा के चतुर्मुख पर एक अज़ीब सी शान्ति है। रचयिता-पवन कुमार वैष्णव पता-ओल्ड आर.टी.ओ.,प्रताप नगर, उदयपुर,राजस्थान 7568950638
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1.पिता से बात……! पिता से बात करते हुए ऐसा लगता है जैसे आसमान से बात करना। आसमान जानता है संसार की सारी बातें इसलिए पिता से बात करते हुए मैं सारे संसार से मिल लेता हूँ। संसार घूमने से अच्छा है पिता के साथ घूम लेना। पिता के साथ घूमते हुए आसमान को नापते देर नहीँ लगती। *********** 2. पिता से दूर रहकर….! पिता के दुखते हुए हाथ, सुख का सृजन करते हैं अन्तस् में दबी हुई वेदनाओं के बीच में से खिंच लाते हैं मुस्कुराहट अपने गहन होंठो पर सिर्फ मेरे लिए! पिता कहते हैं “मेरी सुख की दुनिया सिर्फ तू ही है बाकी बची दुनिया ग्लोब जैसी है गोल-गोल” पिता कहते हैं,”इस ग्लोब जैसी दुनिया को मैंंने कभी समझना नहीँ चाहा!” बस एक मुझे ही समझने में उन्हें सरलता रही है और पिता इस सरलता को जीना चाहते हैं उम्र भर। पिता अकेले ढलान से उतरते हुए भी थक जाते है पर पिता कहते हैं “मैं कभी नहीँ थकता हूँ जब मैं तुम्हे अपने कन्धे पर लेकर किसी पहाड़ पर चढ़ता हूूँ।” और पिता पहाड़ पर ऐसे चढ़ते थे जैसे मेरे लिए सूरज को पकड़ना चाह रहे थे। पिता कहते हैं “मेरी आँखों में कोई स्वप्न नहीँ रहा अब शेष हाँ,अब मेरी नींद में तुम जरूर होते हो।” जब कभी मैं बहुत उदास होकर अपनी साँस छोड़ता हूँ पता नहीँ क्यों पिता गहरी नींद से उठ जाते हैं मेरी तस्वीर को हाथ में लेकर उसे साफ़ करने लगते हैं जबकि अब मैं पिता से बहुत दूर हूँ। पवन कुमार वैष्णव पता-ओल्ड आर.टी.ओ.रोड. प्रताप नगर,उदयपुर(राजस्थान) 7568950638 ************************
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सबसे अधिक वो रोया जिसने जमीं को चीर ‘फसल’ को बोया सबसे अधिक उसको छला गया जो हँसते हँसते सीने पर ‘गोली’ खा गया सबसे अधिक वो आंखें रोई जो वोट देकर ‘आस’ में सोई औऱ सबसे अधिक जयजयकार उनको मिली जिसने कुर्सी की खातिर गन्दी ‘चाले’ चली। – नरेंद्र दान चारण
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आत्महत्या हाँ जीवन कभी कभी बहुत कठिन हो जाता है रास्ता कोई नहीं सूझता हताशा, उदासी और कुंठा की पकड़ से छूटने का मन के घुप्प अंधेरे जंगल से बाहर निकलने का दर्द और दुख के दलदल में डूबती जाती है पल पल जिजीविषा कोई नहीं होता इतने पास जिससे कहकर मन की बात संघनित पीड़ा को वाष्पित किया जा सके जिसके कांधे पे रख के सर स्वयं को भुला जा सके पूरी तरह दूर बहुत दूर तक दृष्टि में नहीं होता उत्साह उमंग और आनंद का फैलाव जब उस काल खंड में भी स्वीकारना चाहिए जीवन को उसकी संपूर्णता में उसके चूभते कोणों को सहते हुए जीवन सिर्फ अपने लिए नहीं दूसरों के लिए भी है बल्कि दूसरों के लिए ही ज्यादा है बहुत बार हम नाव के सवार होते हैं मल्लाह के भरोसे सागर पार हो जाते हैं पर कई बार हमें मल्लाह भी होना होता है दूसरों को पार भी लगाना पड़ता है और खुद को डूबाकर कोई किसी को पार नहीं लगा सकता । श्रमिक एक्सप्रेस 1) लंबी यात्रा के बाद अपने गंतव्य पर पहुंची श्रमिक एक्सप्रेस के यात्रियों को जिलावार छांट कर उनका अलग अलग समूह बनाया जाता है और प्रत्येक समूह को बारी बारी सुरक्षा दायरे में उनके आगे की यात्रा के लिए प्लेटफॉर्म के बाहर खड़ी बसों तक पहुंचाया जाता है । 2) खाने का पैकेट पानी की बोतल बच्चों को चॉकलेट और बिस्किट उपलब्ध कराया जाता है पर हाथों हाथ नहीं सबकुछ दो तीन टेबलों पर रख दिए गए हैं जिसे वे लोग कतारों में गुजरते हुए अपने अपने हिस्से का उठा लेते हैं 3) बस में सवार होने से पहले प्रत्येक यात्री की थर्मल स्क्रीनिंग की व्यवस्था है साथ ही डब्बे से उतरने और बस में सवार होने से पहले “सामाजिक दूरी ” के निर्धारित मानदंड के अनुपालन का पूरा ध्यान रखा जाता है रेलगाड़ी और बस के भीतर भले ही इस पाबंदी की धज्जियां उड़ाई जाएं प्रशासन को इससे ज्यादा कुछ लेना देना नहीं है डब्बे से उतरने और बस में सवार होने के अंतराल में सबकुछ चूंकि रिपोर्टिंग और रिकॉर्डिंग के दायरे में है इसलिए प्रशासन पूरा सजग और प्रतिबद्ध दिखाना चाहता है खुद को I 4) थके हारे भूखे बुझे यात्रियों के चेहरे पर संकट से बाहर निकल आने का घर तक पहुंच जाने का संतोष भाव तो है पर बीते दो तीन माह में भोगे हुए कष्ट का इतना गाढ़ा काला धुआं भर गया है उनके मन के आयतन में कि वह बड़ी से बड़ी खुशी को पल्लवित नहीं होने देता । 5) प्लेटफार्म पर मौजूद तमाम लोग रेलकर्मी, राज्य प्रशासन के कर्मी इन यात्रियों को Corona संक्रमण से ग्रस्त मानकर चल रहे हैं इनकी तरफ वे यूं घूर रहे हैं मानो ये लोग किसी और दुनियां से आए हैं उनकी बर्बादी का इंतेजाम लेकर । रास्ता खुशियों तक पहुँचने का कोई रास्ता अगर है तो वह दर्द और उदासियों के बीहड़ से गुजरकर है खुशियां खुद चुन लें आपको तो बात दिगर है । याद का मौसम फूल खिले हैं रात रानी के पौधे में पोर पोर महक उठी है हवा तर ब तर है रात सुगंध के पानी से इन्द्रधनुष के पर्दे पे तेरी धुंधली सी तस्वीर उभरी है बीते दिनों की बारिश में कमरा गुलजार है फिर से तेरी याद का मौसम लौटा है । घर वापस लौटना जाना को दुनियां की सबसे खौफनाक क्रिया बतानेवाले कवि केदार नाथ सिंह आज अगर जीवित होते तो शायद लौटना को दुनियां की सबसे कठिन क्रिया बताते घर वापस लौटते इन श्रमिकों की पीड़ा को देख कर । व्यवस्था होनी तो इसे एक खबर चाहिए थी पर एक कविता हो कर रह गई यूं एक कविता हो कर भी यह एक खबर होने की कोशिश ही है कविता में खबर की गुंजाइश बनाने की कोशिश किस्सा- ए – कोताह यूं है कि हिन्दुस्तान की 24 उच्च अदालतों में से एक के मुख्य न्यायाधीश महोदय को अपने पूरे परिवार समेत 12315 अप कोलकाता – उदयपुर अनन्या एक्सप्रेस पकड़ कर जाना था जसीडीह जंक्शन से पटना जंक्शन उसके लिए उन्हें और उनके परिवार के लोगों को प्लेटफार्म के फुट ओवरब्रिज का इस्तेमाल कर दो नंबर प्लेटफार्म पर पहुंचना था न तो न्यायप्रिय मुख्य न्यायाधीश महोदय को न उनकी खातिरदारी में सलाम बजाते लोगों को यह स्वीकार्य था कि वे और उनके परिवार के लोग पांव पैदल एक प्लेटफार्म से दूसरे पर जाएं इसलिए रेल प्रशासन और स्थानीय प्रशासन के आपसी सहयोग और समन्वय के बाद तय हुआ कि बदल दिया जाए अनन्या एक्सप्रेस का तय प्लेटफार्म दो नंबर की जगह उसे एक नंबर प्लेटफार्म पर रिसीव किया जाए न्यायाधीश महोदय और उनके परिवार के लोगों की सुविधा/आरामतलबी को मद्देनजर रखते हुए होती है तो हो उन आम यात्रियों को परेशानी जिन्होंने गाड़ी के पूर्व निर्धारित प्लेटफार्म पर गाड़ी आने के तय समय से बहुत पहले से अपना स्थान पक्का कर रखा है अपने तमाम माल असबाब के साथ यूं यह कोई अनोखी या पहली और न ही आखिरी घटना है अपने तरह की पर कविता का ध्यान खींच गया इस ओर क्या करें । **अपना होना ** जो देख रहा है जिसे दिख रहा है उसे दिखाना क्या जो देख नहीं रहा जिसे दिखता नहीं उसे दिखाना क्या जो हैं जैसे हैं अपने जैसे हैं जिस तरह सच्चे हैं अच्छे हैं किसी के लिए खुद को खुद से परे ले जाना क्या । माँ के न रहने पर १ मृत्यु ! उस पल समझ पाया मैं इस शब्द का ठीक ठीक अर्थ जिस पल इसने तुम्हें अपना ग्रास बनाया | २ राह की मुश्किलों से टकराकर गिरता हूँ अब भी कभी कभी चोट अब भी लगती है तन पर मन में पर कोई तुम्हारी तरह से उस चोट पर प्रेम और करुणा की पट्टी नहीं बांधता अब | ३ कितनी तो बातें हैं अच्छी बुरी अपनों परायों की तुमसे कहने को पर जनता हूँ तुम अब न आओगी कभी मेरी कथा व्यथा सुनने को मैं भी कहाँ अब किसी से मन की बातें कहूँगा उस तरह सचमुच बहुत अकेला हो गया हूँ | विरोधाभास सबसे ज्यादा छपने और दिखने वाला राजनेता सलाह करता है लोगों को कि उन्हें भरसक छपास और दिखास से बचना चाहिए खुद वह बहुत बार कड़वा और जहरीला बोल जाता है लोगों को मगर बोली में मिठास रखने की नसीहत करता है वंशवाद गलत प्रभाव डालता है लोगों की सोच और धारणा पर प्रतिभाओ को कुन्ठित करता है वंशवादी राजनीति को हतोत्साहित करना चाहिए मौजूदा दौर में वंशवादी राजनीति का सबसे बड़ा ब्रांड एम्बेसडर कहता है ये बातें पुरज़ोर  तरीके से | राजीव कुमार तिवारी मुख्य गाड़ी लिपिक, भारतीय रेल, जसीडीह स्टेशन प्रोफेसर कॉलोनी, बिलासी टाऊन, देवघर, झारखंड 9304231509, 9852821415