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कविता – प्रेम

कविता - प्रेम

कितना बाँधा है इसको मैंने, ये असीमित ही रहा।।
तुम्हारा प्रेम छिटका ब्रह्मांड में, अपरिमित ही रहा।।

अपने आत्मसंतुलन में जब भी हो गई गर्वित मैं ।
तुम्हारी विस्मृति के भान में कुछ-कुछ रही दर्पित मैं ।।
जाने क्यों झरते हुए अश्रुधार में कम्पित ही रहा।।
तुम्हारा प्रेम छिटका ब्रह्मांड में, अपरिमित ही रहा।।

राग, क्रोध, ईर्ष्या, द्वेष, अहम् सब ही माटी हो गए ।
उन पदचिन्हों को ढूँढना मन में, परिपाटी हो गए ।।
गूँगा प्रेम प्राणों की मौन ध्वनि में भाषित ही रहा।।
तुम्हारा प्रेम छिटका ब्रह्मांड में, अपरिमित ही रहा।।

ये जो अंकुर फूटा है, काश विटप न बने तो अच्छा ।
ये आर्द्रता जीवन की कहीं आतप न बने तो अच्छा।।
मनुष्य सरलता के सोपानों में भी शंकित ही रहा।।
तुम्हारा प्रेम छिटका ब्रह्मांड में, अपरिमित ही रहा।।

चारों ओर भीड़ में आत्मा के बंधन मुट्ठी भर हैं।
सर्पों से घिरे वृक्षों पर खांटी चंदन मुट्ठी भर हैं।।
धमनियों में बहता जो, समूह में अपरिचित ही रहा।।
तुम्हारा प्रेम छिटका ब्रह्मांड में, अपरिमित ही रहा।।

कितना बाँधा है इसको मैंने, ये असीमित ही रहा।।
तुम्हारा प्रेम छिटका ब्रह्मांड में, अपरिमित ही रहा।।
~निवेदिता चक्रवर्ती