क्योंकि मैं मजदूर हूँ,
इसीलिए तो मजबूर हूँ!
खाने को परेशान सा,
अपनों से काफी दूर हूँ!!
जानवर सा सड़क पर रेंग रहा हूँ,
दिखाई नहीं देती कोई आस है!
घर तो कहीं दूर रह गया,
बस पहुंचने की उम्मीद पास है!!
पड़ रहे पांवों में छाले,
सहने को मजबूर हूँ!
सामान की गठरी उठाये,
चल पड़ा काफी दूर हूँ!!
ऐसा नहीं के सब बुरे हैं,
किसी ने खाना दिया तो किसी ने पानी!
लेकिन गुहार लगानी है जिनसे,
उन्होंने ही तो बात ना मानी!!
घिसते मेरे पैर देखकर,
लोगों ने लाकर दे दी चप्पल!
लेकिन घस गई जो किस्मत की रेखा,
क्या मिलेंगे कभी सुकुन के दो पल!!
अपने ही देश में लकीरें खींच दी,
पता नहीं क्या बचाने को!
खड़ा हूं जमीन किनारे तुम्हारी,
तैयार नहीं कोई अपनाने को!!
रेल चल रही पैसा लेकर,
पैसे से चल रही गाड़ी है!
विपदा ये क्या आई पता नहीं,
मौत से भी जो भारी है!!
मिली मुझे एक गाड़ी थी,
भरी जिसमें खूब सवारी थी!
उम्मीद बंध गई घर पहुंचने की,
वो रात बड़ी अंधियारी थी!!
कठिन डगर थी घर की मगर,
मिल रहा सबका साथ था!
कुछ दूरी पर पड़ी एक टक्कर,
मेरा क्या अपराध था!!
आदमी से लाशों में बनकर,
बदलने का दस्तूर हूँ!
क्योंकि मैं मजबूर हूँ,
इसीलिए तो मजदूर हूँ,
भारत निर्माण का मैं सदा गुरूर हूँ,
बढ़ती अर्थव्यवस्था का मैं सुरूर हूँ!
“अलीगढ़ी” लेखनी का माध्यम मैं भरपूर हूँ,
मेरी दुश्वारियां पर ना जाओ मेरे यारों,
सीना ठोक के गर्व से कहता हूँ मैं मजदूर हूँ…
✍🏻 – मुनेश कुमार “अलीगढ़ी”
(अलीगढ़, उत्तर प्रदेश)