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ख़ामोशियों के स्वर

” टन-टन-टन-टनन…।” छुट्टी की घंटी बजते ही बच्चे कंधों पर अपना – अपना स्कूल बस्ता लिए क्लास से बाहर निकलते हैं। पूरा कैंपस उनके शोर से भर जाता है….. मस्ती में हँसते-खिलखिलाते, एक-दूसरे से बातें करते बच्चे….अपने – अपने घरों की ओर दौड़ पड़ते हैं। दिन भर बच्चों से भरा रहने वाला स्कूल कैम्पस देखते-ही-देखते खाली होने लगता है…… मासूम हँसी – खुशी और जिंदगी का रेला मेन गेट से बाहर निकल जाता है, और छोड़ जाता है – सन्नाटा, अकेलापन और पहाड़ियों में गूंजती ख़ामोशी का स्वर। ” माउन्टेन व्यू “- उत्तराखंड के चमोली जिले में औली हिल स्टेशन पर शहर से दूर एक स्कूल, जिसने इन पाँच वर्षों में ही राज्य के शीर्ष स्कूलों में जगह बना ली थी। यह उसकी दुनिया थी। उसका आशियाना था। यहीं उसकी सुबह और शाम होती थी….रोज, इसी तरह। उस दिन सुबह एक भयानक शोर से अचानक उसकी नींद टूटी। घड़ी देखी। करीब सात बज रहे थे। खिड़की से बाहर देखा, तो उसके होश ही उड़ गये।। जोरों की बारिश हो रही थी….और ऊपर पहाड़ों से पानी का एक विशाल रेला चट्टानों – पत्थरों को ढकेलते हुए जोरोंं की आवाज केे साथ, तेजी से नीचे की ओर आ रहा था…….रास्ते में पड़ने वाले लोगों, घरों – मकानों, पेड़ों, सड़कों पर खड़ी गाड़ियों को पलक झपकते ही अपने तीव्र प्रवाह में लीलते हुए। जान बचाने की जद्दोजहद में तेज धार में बहते लोगों की कातर पुकार रूह तक को कंपा दे रही थी। वह संभलते हुए सीढ़ी से नीचे उतरा और माली – दरबानों को आवाज देते हुए मेन गेट की ओर भागा। सौभाग्य से उसका स्कूल सैलाब के प्रवाह में आने से बच गया था। जब ज़लज़ला थमा, तो नजरों के सामने थी भयंकर तबाही…..और टनों मलबे में तब्दील पहाड़ी धरती। मानव और प्रकृति के बीच अनादि काल से जारी संघर्ष में चाहे जीत के हजार दावे मनुष्य करता रहा हो, मगर जीत हमेशा प्रकृति की ही हुई है। प्रकृति मानव को लगातार उसकी कारस्तानियों की चेतावनी और सजा देती रही है…… कभी भूकम्प, कभी सुनामी, कभी बाढ़, तो कभी केदारनाथ में हुए भयावह ज़लज़ले के रुप में….। * * * सेना, सरकार और गैर-सरकारी संगठन आपदा प्रबंधन में युद्ध स्तर पर लग गये थे। उसका स्कूल राहत शिविर में तब्दील हो गया था। वायुसेना के हेलिकाप्टर जगह-जगह पर फंसे लोगों को निकालकर शिविरों में पहुँचा रहे थे। लोगों को भोजन के पैकेट, पानी की बोतलें व दवाईयाँ भेजी जा रही थीं। एक एनजीओ ” प्रयास ” ने डॉ. नीलिमा के नेतृत्व में स्कूल के शिविरों में मेडिकल सुविधाओं एव साफ – सफाई की जिम्मेदारी संभाल ली थी। ग्राउंड में बने टेंटों एवं स्कूल के कमरों में करीब पाँच सौ के आसपास लोग ठहरे हुए थे। वह कमरों, टेंटों में जा-जाकर लोगों का हालचाल लेता था ,उनकी समस्याएँ सुनता था और पूरा ध्यान रखता था कि उन्हें किसी प्रकार की असुविधा और परेशानी न हो। उसके सेवाभाव एवं स्नेहभरे व्यवहार से सभी अभिभूत थे। डॉ. नीलिमा ने उसके साथ शिविर में बीमार लोगों की तीमारदारी करते हुए यह महसूस किया, मानो वह व्यक्ति किसी दूसरे की पीड़ा को नहीं, बल्कि अपने दर्द को जी रहा हो। वह उसके बारे में जानने को उत्सुक हो उठी थी। उस दिन सुबह वह डॉ.नीलिमा के साथ कैम्पस के शिविरों में घूम रहा था, तभी सहसा सेना का एक युवा अधिकारी उसके पास आया और उसे सैल्यूट करते हुए अपना परिचय दिया – ” आई एम अभिषेक, प्रिंसिपल सर! ” ” नाइस टू मीट यू कैप्टेन ! ” – उसने भी गर्मजोशी से उससे हाथ मिलाते हुए कहा। ” यहाँ सब ठीक – ठाक है, सर ?” – कैप्टेन ने कैम्पस में शिविरों की ओर देखते हुए जानना चाहा। ” बिलकुल ,कैप्टेन। बस…! कम्बल,चादरें और पानी की बोतलें……यू इन्श्योर कि ये सब यहाँ पर्याप्त रहें। और हाँँ…डॉ.नीलिमा कुछ दवाईयों के बारे में बता रही थीं।उनकी तत्काल व्यवस्था हो जाती तो….। ” – उसने नीलिमा की ओर देखते हुए कहा। ” ओ के,सर। ” – युवा अधिकारी ने कहा। “रेस्क्यू ऑपरेशन की क्या स्थिति है,कैप्टेन? ” – उसने कैप्टेन से औपचारिक संवाद स्थापित करने की कोशिश की। ” मौसम साफ हो रहा है। रेस्क्यू का काम करीब – करीब पूरा हो गया है। सड़क और टेम्पररी पुल बनाए जा रहे है। आवागमन भी जल्दी चालू करने की कोशिश की जा रही है। ” – साथ- साथ चलते हुए कैप्टेन उसे मंत्रवत् बताने लगा। उसे लगा मानो उसका कोई अधिकारी उससे पूछ रहा हो। पता नहीं क्यों , इस व्यक्ति में कैप्टेन को अलग – सा, कुछ खास नजर आया था। वह ध्यान से उसे देखने लगा, तो उसने पूछा – ” इस तरह मुझे क्या देख रहे हो,कैप्टेन ? ” ” कुछ नहीं, सर! ” – कैप्टेन ने कुछ रुककर कहा – ” पर ,पता नहीं क्यों सर , मुझे लगता है कि मैंने आपको पहले भी कहीं देखा है। ” युवा कैप्टेन देर से मन में उठ रही जिज्ञासा को व्यक्त करने से खुद को नहीं रोक पाया। ” नहीं तो। “- उसने कैप्टेन की आँखों में झांकते हुए कहा, और स्कूल – बिल्डिंग की ओर मुड़ गया। शिविर में अन्य बच्चों के अलावा इस स्कूल के कुछ स्टूडेंट्स भी थे। उन्हें व्यस्त रखने के लिए ऑडिटोरियम में ऑडियो – विजुअल मोड से उन्हें मनोरंजक, ज्ञानवर्द्धक जानकारियाँ देने के साथ-साथ विभिन्न तरह की प्राकृतिक आपदाओं तथा उनसे निपटने के उपायों के बारे में भी बताया जा रहा था । उस दिन कैप्टेन अभिषेक पर्वतों, नदियों,भौगोलिक दशाओं और उन कारणों के बारे में, जो ऐसी प्राकृतिक आपदाओं की वजह बनती हैं , बच्चों को विस्तार से बता रहे थे। बच्चे तन्मय होकर उनकी बातें सुन रहे थे। डा. नीलिमा के साथ कमरों का मुआयना करते हुए, वह भी आडिटोरियम के पास आ गया था। कैप्टन अभिषेक बच्चों से मुखातिब थे -” ……और, अब मैं वह बात बताने जा रहा हूँ, जो शायद आप नहीं जानते होंगे। बच्चों, मैं आपको बता दूँ, आपके प्रिंसिपल मि. सिद्धांत……कोई और नहीं, बल्कि कैप्टेन सिद्धांत वर्मा हैं !…… मुझे अच्छी तरह से याद है,जब मैंने एनडीए में एडमिशन लिया था, उसी वर्ष इन्होंने पास आउट किया था और उस बैच में इन्हें ‘ बेस्ट जेंटिलमैन कैडेट ‘ चुना गया था। ” अभिषेक ने सहसा उसके अतीत के पन्ने खोल दिए थे। वह आश्चर्यचकित था। अपनी जिस पहचान को इतने वर्षों तक उसने किसी पर जाहिर नहीं होने दिया था,वह आज सबके सामने थी। अभिषेक बच्चों को कैप्टेन सिद्धांत वर्मा की बहादुरी की कहानियाँ सुनाने लगे और… वह यादों के समंदर में डूब गया था….। * * * कैप्टेन बनने के बाद उसने शहर में एक फ्लैट ले लिया था। उसकी पोस्टिंग सुदूर जम्मू – कश्मीर सेक्टर में थी। सेना में वह एक सख्त और कठोर अनुशासन को मानने वाला अधिकारी माना जाता था। सीमा पर घुसपैठ और कई आतंकवाद विरोधी अभियानों में उसने अपनी असाधारण नेतृत्व व जुझारू क्षमता का परिचय दिया था। कुछ दिनों में उसे नया बड़ा क्वार्टर मिलने वाला था। उसके बाद वह पत्नी-माँ-बाबूूजी को अपने साथ ले जाने के बारे में सोच रहा था। दुर्गा पूजा की छुट्टियों में वह घर आया हुआ था। शहर का दशहरा देखने की माँ – बाबूजी की बड़ी इच्छा थी। शहरों में दुर्गा पूजा की रौनक ही अलग तरह की हुआ करती है – बड़े-बड़े महलनुमा पंडाल, सुंदर, आकर्षक चलती-फिरती बोलती – सी मूर्त्तियाँ, लेड बल्बों की रंग-बिरंगी लड़ियों से जगमग संसार,सड़क किनारे सजी खिलौने – मिठाईयों की दुकानें, रंग – बिरंगे गुब्बारे, लाउडस्पीकरों से गूँजते देवी – गीत और लोगों का हुजूम। कदाचित् गाँवों की परंपरा से लुप्त हो चुके मेलों ने आधुनिकता की चादर ओढ़ शहरों की ओर रुख कर लिया है, और अब वह काफ़ी हाईटेक हो गयी हैं। वह बड़े उत्साह से पत्नी और माँ – बाबूजी को एक-एक पंडाल घुमा रहा था। अंत में वे मुख्य चौराहे पर स्थित सबसे बड़े पंडाल को देखने आए हुए थे।पत्नी-माँ-बाबूजी को पंडाल के अंदर भेज, वह गाड़ी पार्क करने लगा। गाड़ी पार्क कर ज्योंहि वह अंदर जाने को मुड़ा, कि एक जोरदार धमाका हुआ और पूरा इलाका थर्रा उठा। आसमान धुएँ और गुबार से भर गया। चीख-पुकार मच गयी। लोग बदहवास इधर-उधर भागने लगे। वह तेजी से भीड़ को चीरता हुआ ” सुरूचि – माँ – बाबूजी ” पुकारता हुआ जलते हुए पंडाल के अंदर दौड़ा। अंदर का दृश्य भयावह और दिल दहला देने वाला था – मुख्य स्थल के पास लाशों के ढेर, चीथड़ों में जमीन पर पड़े लहूलूहान लोग और जिंदा – बेजान खंडित मूर्त्तियाँ। अचानक उसकी नजर सुरूचि की साड़ी पर पड़ी तो उसका कलेजा मुँह को आ गया। सुरुचि – माँ – बाबूजी अगल – बगल क्षत-विक्षत अवस्था में पड़े हुए थे। तबाही का खौफनाक मंजर देख उसकी आँखों के सामने अंधेरा छा गया था। * * * वह वापस अपनी ड्यूटी पर लौट चुका था। जम्मू सेक्टर – देश का सबसे संवेदनशील क्षेत्र , जहाँ पाकिस्तान से लगती सीमा से आतंकियों के घुसपैठ की आशंका हमेशा बनी रहती है। दुर्गम स्थानों पर कई कठिन सैन्य अभियानों का नेतृत्व करते हुए उसने कितने – ही आतंकियों को मार गिराया था। आतंकियों के प्रति उसका आक्रोश अब और बढ़ चुका था। वक्त ने उसे पहले से ज्यादा कठोर और क्रूर बना दिया था। उस दिन सुबह – सुबह उसे सूचना मिली कि हथियारों से लैश चार – पाँच आतंकी आर्मी हेडक्वार्टर में घुस गये हैं। तुरंत जवानों ने पूरे एरिया को घेर लिया। कई घंटों तक दोनों ओर से लगातार फायरिंग होती रही। दो आतंकी मारे जा चुके थे। तीन जवानों को भी गोली लगी थी। एक जवान शहीद हो गया था। अचानक उसकी नजर झाड़ियों की ओट लेकर आर्मी बिल्डिंग की ओर बढ़ते दो आतंकियों पर पड़ी। अपनी स्टेनगन से फायरिंग करते हुए अपने साथियों के साथ वह तेजी से आगे बढ़ा। तभी अचानक एक ग्रेनेड उसके पास आकर फटता है, मगर तब तक वह दोनों आतंकियों को ढेर कर चुका था। आर्मी हास्पिटल में दूसरे दिन जब उसे होश आया, तो पता चला कि बुरी तरह क्षतिग्रस्त हो जाने के कारण उसका बायाँ पैर काटा जा चुका था। डिसेबल करार कर सेना से रिटायरमेंट मिल जाने के बाद, ” जयपुर फुट ” ने हालांकि उसे अपने दोनों पैरों पर फिर से खड़ा तो कर दिया था, मगर अब उसके लिए सबकुछ खत्म हो चुका था। हादसों के अंतहीन सिलसिलों से वह बुरी तरह टूट चुका था। दूर-दूर तक खालीपन के सिवा उसे अब कुछ भी नजर नहीं आ रहा था। जिंदगी बोझ – सदृश लगने लगी थी और वह घोर निराशा के गर्त्त में डूबता जा रहा था। क्रूर नियति ने उसे अपनी पीड़ाओं के साथ तिल – तिलकर जीने के लिए छोड़ दिया था – दूर-दूर तक फैले सुनसान, वियाबान रेगिस्तान में जैसे किसी अनजान पथिक को अकेला छोड़ दिया गया हो। किसी तरह,अपनी संकल्प और जीवनी-शक्ति को बटोरते हुए ,अपना घर – खेत और अपनी जमीन – सबकुछ बेचकर, सेना की अपनी पुरानी पहचान को पीछे छोड़ते हुए शांति और सुकून की तलाश में जब उसने सुदूर उत्तरांचल में ” माउंटेन व्यू स्कूल ” की शुरुआत की, तो लगा जैसे जीने की कोई वजह मिल गयी हो। किसी के लिए जीने में कितनी आत्मिक और अलौकिक खुशी मिलती है, इसका उसे अनुमान नहीं था। बस..अब तो यही उसका जीवन और संसार….सबकुछ था। अचानक तालियों की गड़गड़ाहट और बच्चों के समवेत स्वर – ” कैप्टेन !….कैप्टेन !” से वह यादों की गलियों से वर्त्तमान में लौटा। हॉल में बैठे सारे लोग अश्रुपूरित नजरों से उसकी ओर देख रहे थे। उसकी दर्द भरी कहानी सुनकर बगल में खड़ी डॉ.नीलिमा तड़प उठी थी। वह अपने आँसुओं को नहीं रोक पाई। भरे नयनों से वह उसे एकटक देखती रही। संवेदनाएँ जब संवेदनाओं से जुड़ीं, तो मन के तार अनायास जुड़ गये थे। वह एक बार उससे जुड़ी तो बस, जुड़ती ही चली गई। * * * युद्ध स्तर पर काम कर सेना ने सड़कों – रास्तों को दुरुस्त कर दिया था। आवागमन चालू हो गया था। कैम्पस में स्थित राहत शिविर धीरे – धीरे खाली हो रहे थे। सिद्धांत मेन गेट के बाहर खड़ा सड़क पर दूर तक जाते हुए लोगों के हुजूम और गाड़ियों के काफिलों को देख रहा था। तभी डॉ.नीलिमा उसके पास आकर खड़ी हो गयी – ” कैप्टेन सर,मैं भी अब चलती हूँ। ” “आप थोड़ी देर और नहीं रुक सकतीं, डॉक्टर? ” आज नीलिमा ने पहली बार सिद्धांत के स्वर में भारीपन महसूस किया था। ” रुकने की कोई वजह तो हो? ” नीलिमा ने मानो अपने मन की बात कह दी हो। ” हूँ।…….। ” सिद्धांत ने सहमति में सिर हिलाया, और कहा – ” हर वक्त हर चीज के होने की कोई वजह हो ही, यह जरुरी तो नहीं, डॉक्टर ? ” ” हाँ…। मगर, इतनी दूर यहाँ आकर आपके रहने की कुछ वजह तो होगी,कैप्टेन? ” नीलिमा ने उसके मन को छूने की कोशिश करते हुए प्रति प्रश्न किया – ” कहीं सुरूचि !…..अतीत की यादों के सहारे एकाकीपन में जीने की कोशिश तो नहीं ? ” ” नहीं….! हाँ।……!! ” सिद्धांत के हृदय और मन ने अलग – अलग जवाब दिया – ” मैं तो शांति और सुकून की तलाश में यहाँ आया था। मगर मैं उन यादों की गुंजलक से कभी बाहर निकल ही नहीं पाया। अतीत की यादों से दूर जाने की मैं जितनी ही कोशिश करता हूँ, उतनी ही वो आ -आकर मेरे पाँवों से लिपटती जाती हैं। सोचता हूँ, अगर सुरुचि को भूला दूँगा,तो मेरे पास रह ही क्या जाएगा?” सिद्धांत के मन की परतें खुलनी शुरु हो गई थीं। ” यादें जरुरी हैं जीने के लिए। मगर सिर्फ यादों के सहारे जीवन नहीं बिताया जा सकता, कैप्टेन। जीने के लिए हमें दु:ख भरे पलों को भुलाना पड़ता है। और फिर, यादें जब कमजोरी बन हमें एकाकीपन, खामोशी और अवसाद की ओर ले जाने लगें, तब उन यादों को अतीत के संदूक में बंद कर देना ही अच्छा होता है। ” नीलिमा एक ही साँस में अपनी बात कह गयी। वर्षों पहले एक एक्सीडेंट में अपने मम्मी – पापा को खो देने के बाद वह खुद भी तो भावनाओं के इसी तूफान से गुजरी थी। फिर किसी तरह उसने अपने आप को संभाला था।उसने कहा – ” हो सके तो निराशा के इस भंवर से बाहर निकलने की कोशिश करें, कैप्टेन। फिर आपको ये दुनिया खूबसूरत लगने लगेगी। ये नजारे आपको शांति और सुकून देंगे और नीरव खामोशी में भी जीवन के स्वर फूटेंगे। ” ” क्या आप इन खामोशियों को स्वर देंगी, डॉक्टर ? ” सिद्धांत बोल पड़े। सिद्धांत के शब्द वादियों से टकराकर सहसा नीलिमा के कानों में गूँजे,तो उसका रोम – रोम स्पंदित हो उठा। उसने भाव भरे नयन उठाकर सिद्धांत की ओर देखा – उनकी आँखों में आज उसे जिंदगी की चमक दिखाई पड़ी थी। सिद्धांत ने हाथ बढ़ाया, तो नीलिमा ने बढ़कर उनका हाथ थाम लिया और…. उनके कदम ” माउंटेन व्यू स्कूल ” की ओर बढ़ चले। मन में छाया अंधेरा दूर हो चुका था। जीवन का वीराना अब प्रेम के उजालों से रौशन था। खामोशियों को स्वर मिल गये थे। – विजयानंद विजय मो. – 9934267166 ईमेल – vijayanandsingh62@gmail.com
राजेन्द्र यादव का जन्म 28 अगस्त 1929 को उत्तर प्रदेश के आगरा जिले में हुआ था। शिक्षा भी आगरा में रहकर हुई। बाद में दिल्ली आना हुआ और कई व्यापक साहित्यिक परियोजनाएं यहीं सम्पन्न हुईं। देवताओं की मूर्तियां, खेल-खिलौने, जहां लक्ष्मी कैद है, अभिमन्यु की आत्महत्या, छोटे-छोटे ताजमहल, किनारे से किनारे तक, टूटना, अपने पार, ढोल तथा अन्य कहानियां, हासिल तथा अन्य कहानियां व वहां तक पहुंचने की दौड़, इनके कहानी संग्रह हैं। उपन्यास हैं-प्रेत बोलते हैं, उखड़े हुए लोग, कुलटा, शह और मात, एक इंच मुस्कान, अनदेखे अनजाने पुल। ‘सारा आकाश,’‘प्रेत बोलते हैं’ का संशोधित रूप है। जैसे महावीर प्रसाद द्विवेदी और ‘सरस्वती’ एक दूसरे के पर्याय-से बन गए वैसे ही राजेन्द्र यादव और ‘हंस’ भी। हिन्दी जगत में विमर्श-परक और अस्मितामूलक लेखन में जितना हस्तक्षेप राजेन्द्र यादव ने किया, दूसरों को इस दिशा में जागरूक और सक्रिय किया और संस्था की तरह कार्य किया, उतना शायद किसी और ने नहीं। इसके लिए ये बारंबार प्रतिक्रियावादी, ब्राह्मणवादी और सांप्रदायिक ताकतों का निशाना भी बने पर उन्हें जो सच लगा उसे कहने से नहीं चूके। 28 अक्टूबर 2013  अपनी अंतिम सांस तक आपने  हंस का संपादन पूरी निष्ठा के साथ किया। हंस की उड़ान को इन ऊंचाइयों तक पहुंचाने का श्रेय राजेन्द्र यादव को जाता है।

उदय शंकर

संपादन सहयोग
हंस में आई  कोई भी रचना ऐसी नहीं होती जो पढ़ी न जाए। प्राप्त रचनाओं को प्रारम्भिक स्तर पर पढ़ने में उदय शंकर संपादक का   सहयोग करते  हैं । 
हिंदी आलोचक, संपादक और अनुवादक उदय शंकर जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से पढ़े हैं। उन्होंने कथा-आलोचक सुरेंद्र चौधरी की रचनाओं को तीन जिल्दों में संपादित किया है। ‘नई कहानी आलोचना’ शीर्षक से एक आलोचना पुस्तक प्रकाशित।
उत्तर प्रदेश के बनारस जिले के लमही गाँव में 31 अक्टूबर 1880 में जन्मे प्रेमचंद का मूल नाम धनपतराय था।पिता थे मुंशी अजायब राय।शिक्षा बनारस में हुई। कर्मभूमि भी प्रधानतः बनारस ही रही। स्वाधीनता आंदोलन केनेता महात्मा गांधी से काफी प्रभावित रहे और उनके ‘असहयोग आंदोलन’ के दौरान नौकरी से त्यागपत्र भी देदिया। लिखने की शुरुआत उर्दू से हुई, नवाबराय नाम से। ‘प्रेमचंद’ नाम से आगे की लेखन-यात्रा हिन्दी में जारी रही। ‘मानसरोवर,’ आठ खंडों में, इनकी कहानियों का संकलन है और इनके। उपन्यास हैं सेवासदन, प्रेमाश्रम, निर्मला, रंगभूमि, कायाकल्प, गबन, कर्मभूमि, गोदान और मंगल सूत्र (अपूर्ण)। 1936 ई. में ‘गोदान’ प्रकाशित हुआ और इसी वर्ष इन्होंने लखनऊ में प्रगतिशील लेखक संघ’ की अध्यक्षता की। दुर्योग यह कि इसी वर्ष 8 अक्टूबर को इनका निधन हो गया। जब तक शरीर में प्राण रहे प्रेमचंद हंस निकालते रहे। उनके बाद इसका संपादन जैनेन्द्र,अमृतराय आदि ने किया। बीसवीं सदी के पांचवें दशक मेंयह पत्रिका किसी योग्य, दूरदर्शी और प्रतिबद्धसंपादक के इंतजार में ठहर गई, रुक गई।

नाज़रीन

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आज के बदलते दौर को देखते हुए , तीन साल पहले हंस ने सोशल मीडिया पर सक्रिय होने का निर्णय लिया। उसके साथ- साथ हंस अब डिजिटल मार्केटिंग की दुनिया में भी प्रवेश कर चुका है। जुलाई 2021 में हमारे साथ जुड़ीं नाज़रीन अब इस विभाग का संचालन कर रही हैं। वेबसाइट , फेस बुक, इंस्टाग्राम , ट्विटर जैसे सभी सोशल मीडिया प्लेटफार्म के माध्यम से ये हंस को लोगों के साथ जोड़े रखती हैं। इन नए माध्यमों द्वारा अधिक से अधिक लोगों को हंस परिवार में शामिल करने का दायित्व इनके ऊपर है।

प्रेमचंद गौतम

शब्द संयोजक
कोरोना महामारी में हमसे जुदा हुए वर्षों से जुड़े हमारे कम्पोज़र सुभाष चंद का रिक्त स्थान जुलाई 2021 में प्रेमचंद गौतम ने संभाला। हंस के सम्मानित लेखकों की सामग्री को पन्नों में सुसज्जित करने का श्रेय अब इन्हें जाता है । मुख्य आवरण ले कर अंत तक पूरी पत्रिका को एक सुचारू रूप देते हैं। इस क्षेत्र में वर्षों के अनुभव और ज्ञान के साथ साथ भाषा पर भी इनकी अच्छी पकड़ है।

दुर्गा प्रसाद

कार्यालय व्यवस्थापक
पिछले 36 साल से हंस के साथ जुड़े दुर्गा प्रसाद , इस बात का पूरा ध्यान रखते हैं की कार्यालय में आया कोई भी अतिथि , बिना चाय-पानी के न लौटे। हंस के प्रत्येक कार्यकर्ता की चाय से भोजन तक की व्यवस्था ये बहुत आत्मीयता से निभाते हैं। इसके अतिरिक्त हंस के बंडलों की प्रति माह रेलवे बुकिंग कराना , हंस से संबंधित स्थानीय काम निबाटना दुर्गा जी के जिम्मे आते हैं।

किशन कुमार

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राजेन्द्र यादव के व्यक्तिगत सेवक के रूप में , पिछले 25 वर्षों से हंस से जुड़े किशन कुमार आज हंस का सबसे परिचित चेहरा हैं । कार्यालय में रखी एक-एक हंस की प्रति , प्रत्येक पुस्तक , हर वस्तु उनकी पैनी नज़र के सामने रहती है। कार्यालय की दैनिक व्यवस्था के साथ साथ वह हंस के वाहन चालक भी हैं।

हारिस महमूद

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पिछले 37 साल से हंस के साथ कार्यरत हैं। हंस को देश के कोने -कोने तक पहुँचाने का कार्य कुशलतापूर्वक निभा रहे हैं। विभिन्न राज्यों के प्रत्येक एजेंट , हर विक्रेता का नाम इन्हें कंठस्थ है। समय- समय पर व्यक्तिगत रूप से हर एजेंट से मिलकर हंस की बिक्री का पूरा ब्यौरा रखते हैं. इसके साथ लेखा विभाग भी इनके निरीक्षण में आता है।

वीना उनियाल

सम्पादन संयोजक / सदस्यता प्रभारी
पिछले 31 वर्ष से हंस के साथ जुड़ीं वीना उनियाल के कार्यभार को एक शब्द में समेटना असंभव है। रचनाओं की प्राप्ति से लेकर, हर अंक के निर्बाध प्रकाशन तक और फिर हंस को प्रत्येक सदस्य के घर तक पहुंचाने की पूरी प्रक्रिया में इनकी अहम् भूमिका है। पत्रिका के हर पहलू से पूरी तरह परिचित हैं और नए- पुराने सदस्यों के साथ निरंतर संपर्क बनाये रखती हैं।

रचना यादव

प्रबंध निदेशक
राजेन्द्र यादव की सुपुत्री , रचना व्यवसाय से भारत की जानी -मानी कत्थक नृत्यांगना और नृत्य संरचनाकर हैं। वे 2013 से हंस का प्रकाशन देख रही हैं- उसका संचालन , विपणन और वित्तीय पक्ष संभालती हैं. संजय सहाय और हंस के अन्य कार्यकर्ताओं के साथ हंस के विपणन को एक आधुनिक दिशा देने में सक्रिय हैं।

संजय सहाय

संपादक

प्रेमचंद की तरह राजेन्द्र यादव की भी इच्छा थी कि उनके बाद हंस का प्रकाशन बंद न हो, चलता रहे। संजय सहाय ने इस सिलसिले को निरंतरता दी है और वर्तमान में हंस उनके संपादन में पूर्ववत निकल रही है।

संजय सहाय लेखन की दुनिया में एक स्थापित एवं प्रतिष्ठित नाम है। साथ ही वे नाट्य निर्देशक और नाटककार भी हैं. उन्होंने रेनेसांस नाम से गया (बिहार) में सांस्कृतिक केंद्र की स्थापना की जिसमें लगातार उच्च स्तर के नाटक , फिल्म और अन्य कला विधियों के कार्यक्रम किए जाते हैं.