आज हंस को हिंदी साहित्य की धरोहर माना जाता है। इस समय के अनेक स्थापित लेखकों ने अपनी लेखन यात्रा हंस से शुरू की। देश की उच्चतम और बेहतरीन हिंदी साहित्यिक कृतियां – जैसे कहानी, कवितायें , ग़ज़ल ,लघु कथा , लेख , समीक्षाएं , पत्र इत्यादि आप इस पत्रिका में पढ़ सकते हैं।
हिंदी साहित्य और समाज से जुड़े अनेक प्रासंगिक और महत्वपूर्ण मुद्दों पर बहस, और विमर्श की शुरुआत हंस से ही हुई , जिनके प्रभाव से इस क्षेत्र में अनेक सकारात्मक बदलाव भी आए। तभी तो कहा जाता है कि हंस महज़ सौ पन्नों की पत्रिका ही नहीं , पर एक प्रथा और परंपरा है।
हंस विचार से भाषा तक हिन्दुस्तानियत की पक्षधर है। सांप्रदायिक सोच ने एक ही व्याकरण पर दो भाषाएँ, हिन्दी और उर्दू, बना दीं। यह भाषायी विभाजन शोषण की शक्तियों के अनुकूल रहा। हंस इस सोच का प्रतिकार करते हुए दोनों भाषाओं से अपने को समृद्ध करती है। यह हंस की भाषा-नीति है। हंस के दिसंबर-1935 के अपने संपादकीय में प्रेमचंद ने जो स्वप्न देखा था वह इसी भाषा-नीति को दर्शाता है-“दोनों जबानों का विकास इस ढंग से होगा कि वे दिन दिन एक दूसरे के समीप आती जाएँगी और एक दिन दोनों भाषाएँ एक हो जाएँगी।”
जिस देश में सैंकड़ों पत्रिकाएँ बिना किसी प्रगतिशील विचारधारात्मक मजबूती के प्रकाशित हो रही हों और वे जनमानस के बड़े हिस्से पर इस तरह छायी हुई हों कि प्रगतिशील व भविष्योन्मुखी बातों की ओर लोगों का ध्यान दिलाने से भी न जा रहा हो, वहाँ हंस जैसी अपने उद्देश्यों, आदर्शों व नीतियों में प्रतिबद्ध और बेबाक पत्रिका का निकलना चुनौतीपूर्ण है, जरूरी है, सराहनीय है और समय-समाज की मांग है।