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स्मरण- राजेन्द्र यादव

स्मरण: राजेंद्र यादव  आप जीवित रहेंगे युगो- युगो तक किसी भी साहित्य प्रेमी के जीवन में एक ऐसा समय जरूर आता है जब वह किसी ना किसी साहित्यकार के सम्मोहन में पड़ा उसकी रचनाएं एक के बाद एक पढ़ता चला जाता है। व्यक्तिगत रूचि का यह आलम अमूमन किसी भी साहित्य प्रेमी के जीवन में यूं ही नहीं आ जाता और ना ही वह अपने प्रिय रचनाकारों की लिस्ट में किसी भी चलते हुए लेखक को शामिल करता है , ऐसा गजब का सम्मोहन तभी पैदा होता है जब कोई रचनाकार किसी साहित्य प्रेमी के दिलों दिमाग पर कुछ ज्यादा ही छाया हुआ हो , कुछ यूँ  की एक के बाद एक पन्ने पलटते हुए कहानियों की कहानियों से लेकर उपन्यासों तक को पढ़ जाने की ललक पाठक मे जागे व साथ ही साथ ललक कुछ लेखक के व्यक्तिगत जीवन या आलोचनाओं को पढ़कर उससे जुड़े हर एक पक्ष को कुरेदने का मन भी बार-बार हो आए। ऐसी विचित्र मनोदशा एक ना एक साहित्य प्रेमी के साथ जरूर होती है ,मेरे साथ भी हुई और मेरा यह  सम्मोहन तब अपने पीक पर पहुंच गया जब मेरे मन में सहसा ही यह भाव जाग पड़ा कि क्यों इतने प्रिय रचनाकार के मुझे अपने जीवन में कभी दर्शन नहीं होने पाए। मेरे लिए यह भाव सम्मोहन था प्रेम था या श्रद्धा मुझे कुछ समझ नहीं आया पर जो भी था वाजिब ही था क्योंकि मेरे अभी तक के जीवन में शायद ही उन्हें (यानि की मेरे प्रिय रचनाकार रहे राजेंद्र यादव ) को छोड़कर मैंने किसी और लेखक को इतने चाव से पढ़ा हो। उन्हें याद करते हुए साहित्य को समझने पढ़ने की समझ कुछ इन शब्दों में मुझे मिली , ” साहित्य सपना नहीं देता, जब जब सपना देता है तब तब या तो वह राजनीति द्वारा इस्तेमाल किया जा रहा होता है या फिर हमें वर्तमान को नकारना सिखा रहा होता है।” – उपन्यास के भावी संकट इतनी साफ ,बेबाक और सटीक टिप्पणी शायद ही कहीं और पढ़ने को मिले । राजेंद्र यादव को यूं तो हंस पत्रिका से जोड़कर ज्यादा देखा जाता रहा है और वर्ष 2013 में उनके जाने के बाद भी हंस पत्रिका हमारे बीच अपनी लोकप्रियता और अहमियत बनाए रखे हैं यह वाकई में एक अच्छी बात है । लेकिन फिर भी देखा जाए तो हंस पत्रिका के संपादन को अगर अलग रखें तो भी राजेंद्र यादव का लेखन कार्य अनगिनत लेखों ,आलोचनाओं, कहानियों और उपन्यासों में इतनी भारी तादाद में मौजूद है कि दर्जन भर के वॉल्यूम की उनकी एक समग्र रचनावली आसानी से प्रकाशित हो सके और इस बात की गंभीरता को देखते हुए आज के वर्तमान समय में बड़ा ही आभार बलवंत कौर और अर्चना वर्मा जी को जिन्होंने राजेंद्र यादव की एक समग्र रचनावली का संपादन कर राजेंद्र यादव के समकालीन रचनाकारों के संग हुए अनेकों साक्षातकारों ,संश्लेषण , डायरी, आलोचनात्मक लेख ,कहानियां , उपन्यास इत्यादि का करीबन दस से ज्यादा वॉल्यूम की किताबों में प्रकाशन करवाया है। क्योंकि यह प्रकाशन अभी हाल फिलहाल के समय का ही है इससे साफ तौर पर यह समझा जा सकता है कि आधुनिक हिंदी साहित्य में राजेंद्र यादव की महत्ता और उनके स्थान को लेकर साहित्य जगत के तमाम लोग अरसे से कलम की चुप्पी साध कर बैठे रहे हैं। राजेंद्र यादव के पूरे के पूरे साहित्य को हम कई कई विमर्शा से जोड़कर देखते हैं लेकिन आज भी उनके जाने के बाद उनकी हर रचना को कहीं ना कहीं नए सिरे से पढ़ने, समझने और उससे जुड़े विविध आयामों को तलाशने की एक जरूरत  महसूस होती है।   यह एक तरह की साहित्यिक जरूरत है जिसे सिर्फ और सिर्फ साहित्यिक शोध एवं नई आलोचनाओं के जरिए ही मुमकिन बनाया जा सकता है।  आज हम जब भी हिंदी साहित्य के क्षेत्र हुए तमाम शोधों की परंपरा को देखते हैं तो हमारे सामने हिंदी के तमाम लेखक कौध जाते हैं । विश्वविद्यालयों में जैसे अरसे से बनी बनाई परिपाटी पर गिने चुने लेखकों पर शोध कार्य संपन्न होते आ रहे हैं । ऐसे में हम राजेंद्र यादव के नाम को तलाशने चलते हैं तो सिवाय निराशा ही हाथ लगती है या गिने  चुने शोध कार्यों में उनकी निजी जिंदगी या फिर मनु भंडारी से उनके संबंधों को जोड़ कर देख लिया जाता है। लेकिन एक लेखक की उसकी अपनी निजी जिंदगी में जरूरत से ज्यादा झांकना या किन्ही सुने सुनाए सवालों के घेरे में उसे कैद करके देखते रहना कहां तक तर्क संगत है?  एक रचनाकार खुद भले ही अपने जीवन या अपनी रचनाओं को लेकर कोई बयानबाजी करें या ना करें लेकिन उसकी रचनाओं से उसकी मन की गूंज  बराबर सुनी जा सकती है। राजेंद्र यादव एक ऐसे रचनाकार रहे हैं जिनकी साहित्य गूंज आज तक है ,अपने लेखन के शुरुआती दौर से वह नई कहानी आंदोलन से जुड़े रहे। “जहाँ  लक्ष्मी कैद है” और “एक कमजोर लड़की की कहानी” ऐसी कहानियाँ  है जो की राजेन्द्र जी ने केवल एक सिटिंग देकर लिख डाली थी, ये वाकई हैरत मे डालने वाली बात है की अपने लेखन के शुरूआती दौर मे ही स्त्री पक्ष उकेरती ऐसी गज़ब की कहानियाँ  उन्होने मुश्किल से एक बार के लिखने मे पूरी कर डाली होगी। लेकिन उनके विषय मे ये नही कहा जा सकता की लिखना उनके लिये हमेशा ही आसान और सुखकर कार्य रहा, मन्नू भंडारी पर लिखे गये  “सहज और पारदर्शी” नामक     संश्लेषण मे वो बार बार आपनी लेखकीय तकलीफ़ की ओर इशारा करके बताते है की लिखना उनके लिये कई बार कितना कष्ठकर कार्य सिद्ध होता है, खाली बैठ कुछ लिखने का मन होकर भी कुछ ना लिख पाना एक लेखक के लिये कितना तकलीफ़देह है ये राजेन्द्र यादव के शब्दो मे भली प्रकार समझा जा सकता है । यूँ  तो राजेन्द्र यादव ने  नियमित रुप से डायरी कम ही लिखी इसलिये उनके द्वारा लिखे गये आज जो कुछ डायरी के अंश पाठको को सुलभ है उन सभी मे समय, स्थान आदि का एक बड़ा अंतर साफ तौर पर मेहसूस होता है लेकिन उन सभी डायरियो मे कही ना कही एक कलात्मक बेचैनी साफ झलकती है, यूँ कहा जाए की राजेन्द्र यादव बार बार “निरंतर कुलबुलाते हुए यथार्थ” को दर्शाने की गहन साधना को लेकर अति सजग रहे, इस शब्द साधना मे उनके एक लेखक के तौर पर मानसिक संघर्ष को चित्रित करता उनका एक कथन, – “कलाकार का व्यक्तित्व, उसका परिचय, उसका विश्वास और उसकी प्रतिबद्धता- सभी कुछ उसकी कला होती है।”  एक कलाकार को बाहरी और आंतरिक ऊहापटक के साथ साथ समाजिक, पारीवारिक, आर्थिक  कठिनाईयो का सामना करना ही पड़ता है, मानसिक संघर्ष मे उलझे राजेन्द्र यादव एक लेखक की  निष्ठा पर विचार करते हुए लिखते है की, – “कोई ज़रूरी नही है की मंच पर  जो कहें वही करें भी, कलाकार और व्यक्ति आपस मे विरोधी भी हो सकते है। इलियट ने कहा ही है की लेखन अपने व्यक्तित्व से पलायन का दूसरा नाम है- शायद विरोधी का भी।”   उनके कथनों मे हल्के व्यंग्य का पुट और एक चलती हुई भाषा हमें  उनकी साफ़ ज़ुबान और बेबाक विचारों के प्रकटीकरण की तरफ आकर्षित करती है। यही स्पष्टवादिता और खुले विचारों का आदान प्रदान ही राजेन्द्र यादव के समग्र रचना संसार को साधारण  से विशिष्ट की कोटि मे ला खड़ा करता है।  हिन्दी साहित्य मे विमर्शो की जड़ो को पुख्ता करने मे जितना योगदान खुद राजेन्द्र जी का है उतना शायद ही किसी और साहित्यकार का रहा हो, अपनी दूरगामी सोच, उत्कृष्ट लेखन, वा साथी रचनाकारो या उभरते लेखकों के प्रति आत्मीयता समेत कितने ही ऐसे गुण  है जो की राजेन्द्र यादव को साहित्य प्रेमियो के बीच सदा के लिये अमर रखेगे। अपनी साहित्यिक गूँज की बदौलत ही राजेन्द्र यादव हिन्दी साहित्य के पाठको के बीच युगों -युगों तक जीवित रहेंगे।
राजेन्द्र यादव का जन्म 28 अगस्त 1929 को उत्तर प्रदेश के आगरा जिले में हुआ था। शिक्षा भी आगरा में रहकर हुई। बाद में दिल्ली आना हुआ और कई व्यापक साहित्यिक परियोजनाएं यहीं सम्पन्न हुईं। देवताओं की मूर्तियां, खेल-खिलौने, जहां लक्ष्मी कैद है, अभिमन्यु की आत्महत्या, छोटे-छोटे ताजमहल, किनारे से किनारे तक, टूटना, अपने पार, ढोल तथा अन्य कहानियां, हासिल तथा अन्य कहानियां व वहां तक पहुंचने की दौड़, इनके कहानी संग्रह हैं। उपन्यास हैं-प्रेत बोलते हैं, उखड़े हुए लोग, कुलटा, शह और मात, एक इंच मुस्कान, अनदेखे अनजाने पुल। ‘सारा आकाश,’‘प्रेत बोलते हैं’ का संशोधित रूप है। जैसे महावीर प्रसाद द्विवेदी और ‘सरस्वती’ एक दूसरे के पर्याय-से बन गए वैसे ही राजेन्द्र यादव और ‘हंस’ भी। हिन्दी जगत में विमर्श-परक और अस्मितामूलक लेखन में जितना हस्तक्षेप राजेन्द्र यादव ने किया, दूसरों को इस दिशा में जागरूक और सक्रिय किया और संस्था की तरह कार्य किया, उतना शायद किसी और ने नहीं। इसके लिए ये बारंबार प्रतिक्रियावादी, ब्राह्मणवादी और सांप्रदायिक ताकतों का निशाना भी बने पर उन्हें जो सच लगा उसे कहने से नहीं चूके। 28 अक्टूबर 2013  अपनी अंतिम सांस तक आपने  हंस का संपादन पूरी निष्ठा के साथ किया। हंस की उड़ान को इन ऊंचाइयों तक पहुंचाने का श्रेय राजेन्द्र यादव को जाता है।

उदय शंकर

संपादन सहयोग
हंस में आई  कोई भी रचना ऐसी नहीं होती जो पढ़ी न जाए। प्राप्त रचनाओं को प्रारम्भिक स्तर पर पढ़ने में उदय शंकर संपादक का   सहयोग करते  हैं । 
हिंदी आलोचक, संपादक और अनुवादक उदय शंकर जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से पढ़े हैं। उन्होंने कथा-आलोचक सुरेंद्र चौधरी की रचनाओं को तीन जिल्दों में संपादित किया है। ‘नई कहानी आलोचना’ शीर्षक से एक आलोचना पुस्तक प्रकाशित।
उत्तर प्रदेश के बनारस जिले के लमही गाँव में 31 अक्टूबर 1880 में जन्मे प्रेमचंद का मूल नाम धनपतराय था।पिता थे मुंशी अजायब राय।शिक्षा बनारस में हुई। कर्मभूमि भी प्रधानतः बनारस ही रही। स्वाधीनता आंदोलन केनेता महात्मा गांधी से काफी प्रभावित रहे और उनके ‘असहयोग आंदोलन’ के दौरान नौकरी से त्यागपत्र भी देदिया। लिखने की शुरुआत उर्दू से हुई, नवाबराय नाम से। ‘प्रेमचंद’ नाम से आगे की लेखन-यात्रा हिन्दी में जारी रही। ‘मानसरोवर,’ आठ खंडों में, इनकी कहानियों का संकलन है और इनके। उपन्यास हैं सेवासदन, प्रेमाश्रम, निर्मला, रंगभूमि, कायाकल्प, गबन, कर्मभूमि, गोदान और मंगल सूत्र (अपूर्ण)। 1936 ई. में ‘गोदान’ प्रकाशित हुआ और इसी वर्ष इन्होंने लखनऊ में प्रगतिशील लेखक संघ’ की अध्यक्षता की। दुर्योग यह कि इसी वर्ष 8 अक्टूबर को इनका निधन हो गया। जब तक शरीर में प्राण रहे प्रेमचंद हंस निकालते रहे। उनके बाद इसका संपादन जैनेन्द्र,अमृतराय आदि ने किया। बीसवीं सदी के पांचवें दशक मेंयह पत्रिका किसी योग्य, दूरदर्शी और प्रतिबद्धसंपादक के इंतजार में ठहर गई, रुक गई।

नाज़रीन

डिजिटल मार्केटिंग / सोशल मीडिया विशेषज्ञ
आज के बदलते दौर को देखते हुए , तीन साल पहले हंस ने सोशल मीडिया पर सक्रिय होने का निर्णय लिया। उसके साथ- साथ हंस अब डिजिटल मार्केटिंग की दुनिया में भी प्रवेश कर चुका है। जुलाई 2021 में हमारे साथ जुड़ीं नाज़रीन अब इस विभाग का संचालन कर रही हैं। वेबसाइट , फेस बुक, इंस्टाग्राम , ट्विटर जैसे सभी सोशल मीडिया प्लेटफार्म के माध्यम से ये हंस को लोगों के साथ जोड़े रखती हैं। इन नए माध्यमों द्वारा अधिक से अधिक लोगों को हंस परिवार में शामिल करने का दायित्व इनके ऊपर है।

प्रेमचंद गौतम

शब्द संयोजक
कोरोना महामारी में हमसे जुदा हुए वर्षों से जुड़े हमारे कम्पोज़र सुभाष चंद का रिक्त स्थान जुलाई 2021 में प्रेमचंद गौतम ने संभाला। हंस के सम्मानित लेखकों की सामग्री को पन्नों में सुसज्जित करने का श्रेय अब इन्हें जाता है । मुख्य आवरण ले कर अंत तक पूरी पत्रिका को एक सुचारू रूप देते हैं। इस क्षेत्र में वर्षों के अनुभव और ज्ञान के साथ साथ भाषा पर भी इनकी अच्छी पकड़ है।

दुर्गा प्रसाद

कार्यालय व्यवस्थापक
पिछले 36 साल से हंस के साथ जुड़े दुर्गा प्रसाद , इस बात का पूरा ध्यान रखते हैं की कार्यालय में आया कोई भी अतिथि , बिना चाय-पानी के न लौटे। हंस के प्रत्येक कार्यकर्ता की चाय से भोजन तक की व्यवस्था ये बहुत आत्मीयता से निभाते हैं। इसके अतिरिक्त हंस के बंडलों की प्रति माह रेलवे बुकिंग कराना , हंस से संबंधित स्थानीय काम निबाटना दुर्गा जी के जिम्मे आते हैं।

किशन कुमार

कार्यालय व्यवस्थापक / वाहन चालक
राजेन्द्र यादव के व्यक्तिगत सेवक के रूप में , पिछले 25 वर्षों से हंस से जुड़े किशन कुमार आज हंस का सबसे परिचित चेहरा हैं । कार्यालय में रखी एक-एक हंस की प्रति , प्रत्येक पुस्तक , हर वस्तु उनकी पैनी नज़र के सामने रहती है। कार्यालय की दैनिक व्यवस्था के साथ साथ वह हंस के वाहन चालक भी हैं।

हारिस महमूद

वितरण और लेखा प्रबंधक
पिछले 37 साल से हंस के साथ कार्यरत हैं। हंस को देश के कोने -कोने तक पहुँचाने का कार्य कुशलतापूर्वक निभा रहे हैं। विभिन्न राज्यों के प्रत्येक एजेंट , हर विक्रेता का नाम इन्हें कंठस्थ है। समय- समय पर व्यक्तिगत रूप से हर एजेंट से मिलकर हंस की बिक्री का पूरा ब्यौरा रखते हैं. इसके साथ लेखा विभाग भी इनके निरीक्षण में आता है।

वीना उनियाल

सम्पादन संयोजक / सदस्यता प्रभारी
पिछले 31 वर्ष से हंस के साथ जुड़ीं वीना उनियाल के कार्यभार को एक शब्द में समेटना असंभव है। रचनाओं की प्राप्ति से लेकर, हर अंक के निर्बाध प्रकाशन तक और फिर हंस को प्रत्येक सदस्य के घर तक पहुंचाने की पूरी प्रक्रिया में इनकी अहम् भूमिका है। पत्रिका के हर पहलू से पूरी तरह परिचित हैं और नए- पुराने सदस्यों के साथ निरंतर संपर्क बनाये रखती हैं।

रचना यादव

प्रबंध निदेशक
राजेन्द्र यादव की सुपुत्री , रचना व्यवसाय से भारत की जानी -मानी कत्थक नृत्यांगना और नृत्य संरचनाकर हैं। वे 2013 से हंस का प्रकाशन देख रही हैं- उसका संचालन , विपणन और वित्तीय पक्ष संभालती हैं. संजय सहाय और हंस के अन्य कार्यकर्ताओं के साथ हंस के विपणन को एक आधुनिक दिशा देने में सक्रिय हैं।

संजय सहाय

संपादक

प्रेमचंद की तरह राजेन्द्र यादव की भी इच्छा थी कि उनके बाद हंस का प्रकाशन बंद न हो, चलता रहे। संजय सहाय ने इस सिलसिले को निरंतरता दी है और वर्तमान में हंस उनके संपादन में पूर्ववत निकल रही है।

संजय सहाय लेखन की दुनिया में एक स्थापित एवं प्रतिष्ठित नाम है। साथ ही वे नाट्य निर्देशक और नाटककार भी हैं. उन्होंने रेनेसांस नाम से गया (बिहार) में सांस्कृतिक केंद्र की स्थापना की जिसमें लगातार उच्च स्तर के नाटक , फिल्म और अन्य कला विधियों के कार्यक्रम किए जाते हैं.