कविता
(राजीव कुमार तिवारी )
## किरायेदार
कितना भी मन रम जाए उनका
वहां रहते हुए
चाहे कलेजा ही क्यूं न फट जाए
वहां से निकलते हुए
किरायेदारों को मगर/फिर भी
छोड़ कर जाना पड़ता है किराए का घर
एक न एक दिन
बहुत करीने से संवार के रखने के बाद भी
किसी भी हद में लगाव जुड़ाव होने के बावजूद
घर कभी किरायेदार का अपना नहीं होता
किराए का एक ठौर ही रहता है
छोड़ कर जाते वक़्त
जब पलट कर देखता है किरायेदार
घर की तरफ
घर का मन भी भाव विहवल हो जाता है
पर मकान मालिक की ठस नजर
को नहीं दिखता ये सबकुछ
वहां तो बस पैसों की लोलुपता बसती है
कई कई घरों में रहता
है
एक किरायेदार
वर्षों के अंतराल में
थोड़ी थोड़ी हर घर की यादें सहेजे हुए
थोड़ा थोड़ा हर याद में बंटा हुआ
बहुत से किरायेदार
मकान मालिक बन जाते हैं
ढेरों नहीं बन पाते आजीवन
जो बन जाते हैं
वे कहीं से भी
किरायेदार नहीं रह जाते फिर ।
राजीव कुमार तिवारी
मुख्य गाड़ी लिपिक, जसीडीह
भारतीय रेल
प्रोफेसर कॉलोनी, बीलासी टाऊन ,
देवघर , झारखंड
9304231509 ,9852821415
rajeevtiwary6377@gmail.com