मुक्ति
मुझे पूर्ण मुक्ति नहीं चाहिए ,
मुक्ति संभव भी नहीं
पिपीलिका के रूप में
संग्राहक होना चाहती हूं
शर्करा की
होना चाहती हूं मधूक
प्रेमी परागकण का
या होना चाहती हूं ,
मक्षिका या चित्रपतंग
या शलभ सा निर्मोही
पुष्प होना चाहती हूं
एक दिवस का
सुरभित और सुवासित
या होना चाहती हूं
कृष्ण चूड की घनी छांव
प्रेमी मिलते हो जहां
या होना चाहती हूं
पारिजात का फूल
रहती है प्रियतमा की
प्रतीक्षा जहां
मुक्ति की कल्पना में
नहीं बनना चाहती
किसी इमली के वृक्ष का
अतृप्त प्रेत
मुक्ति की लालसा में
नहीं होना चाहती जीर्ण शीर्ण
किसी खंडहर की भांति