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बड़ी व छोटी मछलियों का खेल : पाताल लोक

महाभारत एक ऐसा सीरियल है जो स्वस्थ मनोरंजन के साथ ज्ञान की एक बेहतरीन ख़ुराक भी सही तरीक़े से मुहैया करवाने का कार्य बख़ूबी करता है। भिन्न-भिन्न मौक़ो पर मुझे महाभारत के संवाद और सीन याद आते है जैसे अभी हाल ही में रिलीज़ हुई वेब सीरीज़ “पाताललोक” को जब देखा तो मुझे महाभारत के चार प्रमुख पात्र दुर्योधन,कर्ण दुशासन और शकुनि मामा के वह संवाद याद आ गये जब दुर्योधन पांडवो का अज्ञातवास तोड़ने के लिए मत्स राज्य पर हमला करने की योजना बना रहा होता हैं। तब मामा शकुनी उसे राय दे रहें होते हैं और वह अपनी बात कहते ही हैं। तब अंगराज कर्ण मामा शकुनि से कहता हैं कि मामा आप कभी तो सीधे बोल, बोल लिया करिये तो जवाब में मामा शकुनि  कहते हैं कि सीधे बोल बोलने वाला सतयुग तो कबका चला गया अंगराज। ये तो टेड़े बोल बोलने वाला द्वापर हैं इसमें बात कुछ कहो और अर्थ कुछ और निकले और जीना चाहते हो भांजे तो ये कला भी सीख ही लो, इस कला में अंगराज कर्ण निपुण थे या नहीं ये अलग बात हैं,लेकिन वेब सीरीज़ “पाताल लोक” ने मामा शकुनी की इस कला की जानकारी देने की एक कोशिश तो की ही हैं क्योकि आज जो बातें कहते हुए मुख्य धारा की मीडिया की रूह हलक़ में आ जाती हैं। उन सभी बातों को मामा शकुनी की कलानुसार वेब सीरीज़ पाताललोक ने बहुत ज़बरदस्त तरीक़े से कहा हैं। वेब सीरीज़ “पाताललोक” ने क्लास डिफ़्रेंस को बहुत अच्छी तरह से पेश किया हैं कि बच्चों के मन में हीन भावना और आपराधिक प्रवत्ती पैदा होती कहां से हैं? इस बात का उदाहरण वेब सीरिज़ के मुख्य पात्र इंस्पेक्टर हाथीराम चौधरी का बेटा हैं जो एक बहुत ही शानदार कान्वेंट स्कूल में पढ़ता हैं लेकिन वह इकलौता ऐसा बच्चा होता हैं जो अपनी कार से स्कूल नहीं आता, उसकी इंगलिश भी अच्छी नहीं होती और जो उस माहौल में एडजस्ट नहीं हो पाता क्योंकि अन्य छात्र इंस्पेक्टर हाथीराम के बेटे को अपने बराबर का समझते ही नहीं हैं। जिसकी वजह से वह मन ही मन हीन भावना का शिकार होता रहता है। यही हीन भावना उसके अन्दर दिन प्रतिदिन गुस्से को पैदा करती हैं, जब उसके सहने की ताक़त जवाब दे देती हैं तो वह अपनी इंसल्ट करने वाले पर खाली पिस्टल हैं। इसी तरह सीरीज़ के अन्य बाल किरदार जैसे विशाल त्यागी का अपना सगा चाचा ज़मीन की लालच में उसकी तीन बहनों के साथ बलात्कार करवा कर बड़ा काम अंजाम देता है। जिसके बाद विशाल त्यागी चाचा के तीनो बेटों की हत्या कर बड़े काम का बदला पूरा काम कर कर लेता हैं और विशाल त्यागी से हथौड़ा त्यागी बन जाता हैं। इसके अतिरिक्त चीनी के साथ भी बचपन से शोषण होता हैं। जिससे निजात पाने के लिए ही वह संजीव मेहरा मर्डर केस में शामिल होता है। इन सभी बाल किरदारो के साथ बचपन से ही बुरा होता हैं जिसके फ़लस्वरूप उन्हें वह सब करना पड़ता है जो वह नहीं करना चाहते। इसी तरह वेब सीरीज़ पाताललोक ने क्लास डिफ़्रेन्स के साथ दूसरी महत्वपूर्ण बात कास्ट सिस्टम को भी बहुत कलात्मक अंदाज़ के साथ बयान किया हैं। पंजाब जैसे राज्य में आज भी किस तरह से छोटी कास्ट वालो को बात-बात पर ख़ूबसूरत से ख़ूबसूरत गालियों से नवाज़ा जाता हैं,जितनी हो सके उनकी उतनी तौहीन की जाती है। इस तौहीन का फल यह निकलता है कि “तोप सिंह” जैसा सीधा आदमी अपराधी बन जाता है। सुख्खा जो तोप सिंह को ट्रेन करता है उसका सर धड़ से ऐसे अलग किया जाता है जैसे दूध में से मक्खी निकाली जाती है। बड़ी कास्ट का रुतबा यहीं पर ख़त्म नहीं होता,तोप सिंह के न मिलने पर उसकी मां के साथ कैसे दस लोग बारी-बारी से शोषण करते है। शोषण का सीन और मंत्री की जीप में रखा गंगाजल “कास्ट सिस्टम” की मज़बूत जड़ो के बारे में अधूरा ज्ञान पूरा कर देता है कि आज भी समाज इस बिमारी से कितना ग्रसित है? ठीक इसी तरह ‘वेब सीरीज पाताललोक’ ने अल्पसंख्यक समुदाय को जिस से टारगेट कर उनको निशाना बनाया जाता हैं। इस बात को भी इशारो में बताने की बेहतरीन कोशिश की हैं। जिसका एक ज़बरदस्त उदाहरण सीरीज़ का पात्र “कबीर एम” हैं ‘कबीर एम’ के पिता ने उसके लिए एक सर्टिफिकेट बनवाया होता है कि इसका ख़तना नहीं बल्कि आपरेशन हुआ होता हैं क्योंकि उसके पिता के दिल में यह डर होता हैं कि जिस तरह ‘बड़े के गोश्त’ की वजह से उसके बड़े बेटे की हत्या कर दी जाती हैं कहीं इसी तरह कबीर एम की भी हत्या न हो जाए। जो डर कबीर एम के पिता को था वही डर पूरा अल्पसंख्यक समुदाय लेकर हर रोज़ जीता हैं कि कहीं कोई घटना उनके परिवार के साथ न हो जाए। पाताललोक अल्पसंख्यक समुदाय के मन में मौजूद इसी डर की ओर इशारा कर रही है। इसके साथ अल्पसंख्यक समुदाय की ओर विभाग में जिस तरह का भेदभाव होता है और “कट्वा” कहकर किस तरह से सम्बोधित किया जाता है। इस चीज़ को भी सीरीज़ में बख़ूबी दिखाया गया है कि ज़्यादा मात्रा भेदभाव करने वालो की होती हैं,कम मात्रा साथ देने वालो की। अल्पसंख्यक समुदाय या किसी भी समाज की जीत इसी बात पर है कि वह शिक्षा पर सही से ध्यान दे तभी उसे सम्मान मिल सकता है जिसका अच्छा उदाहरण “इंस्पेक्टर अंसारी” का किरदार है जो नीचे से उठकर पहले इंस्पेक्टर और बाद में “यूपीएससी” का एग्ज़ाम क्लीयर करता हैं। “पाताल लोक” में एलजीबीटी समाज की मुश्किलों को भी बख़ूबी दिखाया हैं कि कैसे चीनी को पहले लड़की समझकर उसे महिला वार्ड में रखा जाता हैं लेकिन जब यह बात खुलती है चीनी एलजीबीटी हैं तो किस तरह से उसके लाते मारी जाती हैं दरअसल ये लाते पड़ तो तो चीनी के रही थी लेकिन असल में पूरा एलजीबीटी समाज इसी तरह से रोज़ किसी न किसी की लात खाता ही है क्योंकि इस समाज में एलजीबीटी होना आज भी बहुत शर्म की बात समझी जाती है। इन्हीं शोषण भरी लातो से बचने के लिए वह विशाल त्यागी के साथ रहता है क्योंकि उसे भरोसा होता हैं कि शायद काम ख़त्म होते ही उसे पैसे मिल जाएंगे और वह आपरेशन करवाकर एक ख़ुशहाल ज़िन्दगी जी सकेगा? इन सबके साथ सीरीज़ में पुलिस इन्वेस्टिगेशन को भी ज़बरदस्त तरीक़े से दिखाया गया हैं कि किस तरह से सिस्टम में मौजूद बड़ी मछलियां हाथीराम जैसी छोटी मछलियों के साथ कैसे खेल खेलती है। जिन्हें पता तो सब होता है कि जिसे केस दिया जा रहा है वह केस हल कर पाएगा या नहीं? फिर भी केस दिया जाता है क्योंकि उनके फ़ेल होने की स्थिति में बड़ी मछलियों के आक़ा उन्हें भरपूर इनाम से नवाज़ देंगे। इसके विपरीत इंस्पेक्टर हाथीराम चौधरी जैसी छोटी मछली इस बात से ही ख़ुश हो जाती है कि उसे एक हाई प्रोफ़ाइल केस मिल गया है। वहीं दूसरी तरफ़ संजीव मेहरा जो सिर्फ़ एक मोहरे से ज़्यादा और कुछ नहीं होता उसे भी यह सोचने का मौक़ा मिल जाता है कि आज तक वह जैसी पत्रकारिता कर रहा होता है यदि उससे अलग हटकर दूसरे टाइप की पत्रकारिता की जाए तो कैसा रहेगा? संजीव मिले मौक़े का लाभ उठाकर अपना रास्ता बदल देता हैं। वहीं इंस्पेक्टर हाथीराम चौधरी इस ग़ुमान में होता हैं कि इस हाई प्रोफ़ाइल केस को साल्व करने के बाद उसे भी तरक़्क़ी मिल जाएगी लेकिन यह सब एक भ्रम से ज़्यादा और कुछ नहीं होता क्योंकि खेल तो दोनों तरफ़ से सिस्टम की बड़ी मछलियां ही खेल रही होती हैं। इस बात का यह सबूत है कि जैसे ही इंस्पेक्टर हाथीराम चौधरी से चूक होती है तो फ़ौरन ही तरक़्की के बजाए उसे सस्पेंशन मिलता है और जो वह कर रहा होता हैं वह जांच सीबीआई के हाथों में दे दी जाती है। अब यहीं पर से महाभारत का वह दृश्य जिसमें दुर्योधन, कर्ण, दुशासन और मामा शकुनि संवाद कर रहे होते है कि पांडवों का अज्ञात वास कैसे तोड़ा जाए जबकि उन्हें यह बात बहुत अच्छे से मालूम है कि पांडव मत्स राज्य में अज्ञात वास काट रहे होते है तब मामा शकुनी दुर्योधन को राय देते है कि ‘भांजे दुर्योधन तुम जाकर जीजा महाराज को अर्ध सत्य बताओ कि कीचक वध के उपरान्त मत्स राज्य अनाथ हो गया है अब वह हस्तिनापुर की छांव तले आना चाहता है और इस कार्य को तुम स्वंय करना चाहते हो फिर गंगापुत्र भीष्म, आचार्य द्रोण और कुल गुरु कृपाचार्य भी तुम्हारे प्रस्ताव का विरोध नहीं कर पाएंगे’ जैसा सच दुर्योधन अपने पिता को बताता है वैसी ही जांच वेब सीरीज़ पाताल लोक में सीबीआई भी करती हैं और जो नहीं होता वह भी बताती है। अपने सस्पेंशन से न टूटकर इंस्पेक्टर हाथीराम चौधरी अर्ध सत्य को पूर्ण सत्य बनाने की तलाश करने में कामयाब हो जाता है और इस कामयाबी का पुरस्कार उसकी बची हुई जान और नौकरी पर बहाली होती हैं।
राजेन्द्र यादव का जन्म 28 अगस्त 1929 को उत्तर प्रदेश के आगरा जिले में हुआ था। शिक्षा भी आगरा में रहकर हुई। बाद में दिल्ली आना हुआ और कई व्यापक साहित्यिक परियोजनाएं यहीं सम्पन्न हुईं। देवताओं की मूर्तियां, खेल-खिलौने, जहां लक्ष्मी कैद है, अभिमन्यु की आत्महत्या, छोटे-छोटे ताजमहल, किनारे से किनारे तक, टूटना, अपने पार, ढोल तथा अन्य कहानियां, हासिल तथा अन्य कहानियां व वहां तक पहुंचने की दौड़, इनके कहानी संग्रह हैं। उपन्यास हैं-प्रेत बोलते हैं, उखड़े हुए लोग, कुलटा, शह और मात, एक इंच मुस्कान, अनदेखे अनजाने पुल। ‘सारा आकाश,’‘प्रेत बोलते हैं’ का संशोधित रूप है। जैसे महावीर प्रसाद द्विवेदी और ‘सरस्वती’ एक दूसरे के पर्याय-से बन गए वैसे ही राजेन्द्र यादव और ‘हंस’ भी। हिन्दी जगत में विमर्श-परक और अस्मितामूलक लेखन में जितना हस्तक्षेप राजेन्द्र यादव ने किया, दूसरों को इस दिशा में जागरूक और सक्रिय किया और संस्था की तरह कार्य किया, उतना शायद किसी और ने नहीं। इसके लिए ये बारंबार प्रतिक्रियावादी, ब्राह्मणवादी और सांप्रदायिक ताकतों का निशाना भी बने पर उन्हें जो सच लगा उसे कहने से नहीं चूके। 28 अक्टूबर 2013  अपनी अंतिम सांस तक आपने  हंस का संपादन पूरी निष्ठा के साथ किया। हंस की उड़ान को इन ऊंचाइयों तक पहुंचाने का श्रेय राजेन्द्र यादव को जाता है।

उदय शंकर

संपादन सहयोग
हंस में आई  कोई भी रचना ऐसी नहीं होती जो पढ़ी न जाए। प्राप्त रचनाओं को प्रारम्भिक स्तर पर पढ़ने में उदय शंकर संपादक का   सहयोग करते  हैं । 
हिंदी आलोचक, संपादक और अनुवादक उदय शंकर जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से पढ़े हैं। उन्होंने कथा-आलोचक सुरेंद्र चौधरी की रचनाओं को तीन जिल्दों में संपादित किया है। ‘नई कहानी आलोचना’ शीर्षक से एक आलोचना पुस्तक प्रकाशित।
उत्तर प्रदेश के बनारस जिले के लमही गाँव में 31 अक्टूबर 1880 में जन्मे प्रेमचंद का मूल नाम धनपतराय था।पिता थे मुंशी अजायब राय।शिक्षा बनारस में हुई। कर्मभूमि भी प्रधानतः बनारस ही रही। स्वाधीनता आंदोलन केनेता महात्मा गांधी से काफी प्रभावित रहे और उनके ‘असहयोग आंदोलन’ के दौरान नौकरी से त्यागपत्र भी देदिया। लिखने की शुरुआत उर्दू से हुई, नवाबराय नाम से। ‘प्रेमचंद’ नाम से आगे की लेखन-यात्रा हिन्दी में जारी रही। ‘मानसरोवर,’ आठ खंडों में, इनकी कहानियों का संकलन है और इनके। उपन्यास हैं सेवासदन, प्रेमाश्रम, निर्मला, रंगभूमि, कायाकल्प, गबन, कर्मभूमि, गोदान और मंगल सूत्र (अपूर्ण)। 1936 ई. में ‘गोदान’ प्रकाशित हुआ और इसी वर्ष इन्होंने लखनऊ में प्रगतिशील लेखक संघ’ की अध्यक्षता की। दुर्योग यह कि इसी वर्ष 8 अक्टूबर को इनका निधन हो गया। जब तक शरीर में प्राण रहे प्रेमचंद हंस निकालते रहे। उनके बाद इसका संपादन जैनेन्द्र,अमृतराय आदि ने किया। बीसवीं सदी के पांचवें दशक मेंयह पत्रिका किसी योग्य, दूरदर्शी और प्रतिबद्धसंपादक के इंतजार में ठहर गई, रुक गई।

नाज़रीन

डिजिटल मार्केटिंग / सोशल मीडिया विशेषज्ञ
आज के बदलते दौर को देखते हुए , तीन साल पहले हंस ने सोशल मीडिया पर सक्रिय होने का निर्णय लिया। उसके साथ- साथ हंस अब डिजिटल मार्केटिंग की दुनिया में भी प्रवेश कर चुका है। जुलाई 2021 में हमारे साथ जुड़ीं नाज़रीन अब इस विभाग का संचालन कर रही हैं। वेबसाइट , फेस बुक, इंस्टाग्राम , ट्विटर जैसे सभी सोशल मीडिया प्लेटफार्म के माध्यम से ये हंस को लोगों के साथ जोड़े रखती हैं। इन नए माध्यमों द्वारा अधिक से अधिक लोगों को हंस परिवार में शामिल करने का दायित्व इनके ऊपर है।

प्रेमचंद गौतम

शब्द संयोजक
कोरोना महामारी में हमसे जुदा हुए वर्षों से जुड़े हमारे कम्पोज़र सुभाष चंद का रिक्त स्थान जुलाई 2021 में प्रेमचंद गौतम ने संभाला। हंस के सम्मानित लेखकों की सामग्री को पन्नों में सुसज्जित करने का श्रेय अब इन्हें जाता है । मुख्य आवरण ले कर अंत तक पूरी पत्रिका को एक सुचारू रूप देते हैं। इस क्षेत्र में वर्षों के अनुभव और ज्ञान के साथ साथ भाषा पर भी इनकी अच्छी पकड़ है।

दुर्गा प्रसाद

कार्यालय व्यवस्थापक
पिछले 36 साल से हंस के साथ जुड़े दुर्गा प्रसाद , इस बात का पूरा ध्यान रखते हैं की कार्यालय में आया कोई भी अतिथि , बिना चाय-पानी के न लौटे। हंस के प्रत्येक कार्यकर्ता की चाय से भोजन तक की व्यवस्था ये बहुत आत्मीयता से निभाते हैं। इसके अतिरिक्त हंस के बंडलों की प्रति माह रेलवे बुकिंग कराना , हंस से संबंधित स्थानीय काम निबाटना दुर्गा जी के जिम्मे आते हैं।

किशन कुमार

कार्यालय व्यवस्थापक / वाहन चालक
राजेन्द्र यादव के व्यक्तिगत सेवक के रूप में , पिछले 25 वर्षों से हंस से जुड़े किशन कुमार आज हंस का सबसे परिचित चेहरा हैं । कार्यालय में रखी एक-एक हंस की प्रति , प्रत्येक पुस्तक , हर वस्तु उनकी पैनी नज़र के सामने रहती है। कार्यालय की दैनिक व्यवस्था के साथ साथ वह हंस के वाहन चालक भी हैं।

हारिस महमूद

वितरण और लेखा प्रबंधक
पिछले 37 साल से हंस के साथ कार्यरत हैं। हंस को देश के कोने -कोने तक पहुँचाने का कार्य कुशलतापूर्वक निभा रहे हैं। विभिन्न राज्यों के प्रत्येक एजेंट , हर विक्रेता का नाम इन्हें कंठस्थ है। समय- समय पर व्यक्तिगत रूप से हर एजेंट से मिलकर हंस की बिक्री का पूरा ब्यौरा रखते हैं. इसके साथ लेखा विभाग भी इनके निरीक्षण में आता है।

वीना उनियाल

सम्पादन संयोजक / सदस्यता प्रभारी
पिछले 31 वर्ष से हंस के साथ जुड़ीं वीना उनियाल के कार्यभार को एक शब्द में समेटना असंभव है। रचनाओं की प्राप्ति से लेकर, हर अंक के निर्बाध प्रकाशन तक और फिर हंस को प्रत्येक सदस्य के घर तक पहुंचाने की पूरी प्रक्रिया में इनकी अहम् भूमिका है। पत्रिका के हर पहलू से पूरी तरह परिचित हैं और नए- पुराने सदस्यों के साथ निरंतर संपर्क बनाये रखती हैं।

रचना यादव

प्रबंध निदेशक
राजेन्द्र यादव की सुपुत्री , रचना व्यवसाय से भारत की जानी -मानी कत्थक नृत्यांगना और नृत्य संरचनाकर हैं। वे 2013 से हंस का प्रकाशन देख रही हैं- उसका संचालन , विपणन और वित्तीय पक्ष संभालती हैं. संजय सहाय और हंस के अन्य कार्यकर्ताओं के साथ हंस के विपणन को एक आधुनिक दिशा देने में सक्रिय हैं।

संजय सहाय

संपादक

प्रेमचंद की तरह राजेन्द्र यादव की भी इच्छा थी कि उनके बाद हंस का प्रकाशन बंद न हो, चलता रहे। संजय सहाय ने इस सिलसिले को निरंतरता दी है और वर्तमान में हंस उनके संपादन में पूर्ववत निकल रही है।

संजय सहाय लेखन की दुनिया में एक स्थापित एवं प्रतिष्ठित नाम है। साथ ही वे नाट्य निर्देशक और नाटककार भी हैं. उन्होंने रेनेसांस नाम से गया (बिहार) में सांस्कृतिक केंद्र की स्थापना की जिसमें लगातार उच्च स्तर के नाटक , फिल्म और अन्य कला विधियों के कार्यक्रम किए जाते हैं.