अपनी जिह्वा और कण्ठ में
अवसादों के गट्ठर फँसाए
दोहरे मापदंडों के साथ
कुछ इंसानी जानवर
अपनी गाड़ियों में छुप कर
रिकॉर्ड करने वाले आईने को लेकर
खुद की भद्दी तस्वीर सामने देख
सड़कों पर दुम दबाए भोंकते हैं
अपने नुकीले दांतों से
दूसरों की ज़ुबान काट लेने को
घात लगाए बैठे ये भेड़िये
जिनके गलों पर पट्टे नही है
इतिहास और संस्कृति की आड़ में
चीरहरण कर रहे हैं
उसी इतिहास और गौरव का
जो इन्हें जान से प्यारा है
ये क्या हो रहा है ?
दुख होता है
क्या आज का नौजवान दुर्बल है?
क्यों इतना क्षीण हो चला
कि इस तरह की मनमानी
इस तरह के कमीनेपन पर उतर आया
कि भूल गया उसका भी यही घर है
ज़िन्दा शरीर में मृत आत्मा लिए
घूम रही इन अभागी लाशों का
खून भी सड़ा हुआ होता है
काला पड़ जाता है जम जाता है
ज़ुबान तो खैर होती है सड़ी हुई
तभी तो अपने ही दीन बन्धुओं से
अपने ही देश में ये कुरुक्षेत्र बना रही हैं
ऐसा युद्ध जिसका मतलब ही नही
खोखली खोपड़ी के ये अमानुष
अनायास की गरमागर्मी में
बीमारी की तरह नफरत फैला रहे हैं
इनके गलों पर पट्टे बांधने हैं
हमे तुम्हे ही यह लगाम कसनी होगी
वरना काल के कपाल पर ये वो इतिहास रचेंगे
प्रकांड विध्वंसी ज्वालामुखी विस्फोट
जिससे कम खतरनाक है
प्रेमचंद की तरह राजेन्द्र यादव की भी इच्छा थी कि उनके बाद हंस का प्रकाशन बंद न हो, चलता रहे। संजय सहाय ने इस सिलसिले को निरंतरता दी है और वर्तमान में हंस उनके संपादन में पूर्ववत निकल रही है।
संजय सहाय लेखन की दुनिया में एक स्थापित एवं प्रतिष्ठित नाम है। साथ ही वे नाट्य निर्देशक और नाटककार भी हैं. उन्होंने रेनेसांस नाम से गया (बिहार) में सांस्कृतिक केंद्र की स्थापना की जिसमें लगातार उच्च स्तर के नाटक , फिल्म और अन्य कला विधियों के कार्यक्रम किए जाते हैं.