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खर्चापानी

चुनाव की अधिसूचना जारी होते ही जनता यकायक महत्वपूर्ण हो उठी । साधारण लोग जो मिनिस्टर, नेताओं, अफसरों के पीछे छोटे-बड़े काम के लिये चप्पल घिसा करते थे, इस समय पासा पलट जाता है, आज उनके पीछे बड़े-बड़े नेता और राजनैतिक पार्टियाँ घूम रहीं थीं । वे शक्ति पाने के लिये प्रजा के दरबार में चक्कर लगा रहे थे । प्रजातंत्र की यही सबसे बड़ी खूबी है, सत्ता के इच्छुक प्रत्येक व्यक्ति को जनता के आंगन में आना ही पड़ता है । इस समय चतुर राजनैतिक पार्टियाँ जनता को गाय के समान समझने लगतीं हैं, जिसे दूहने के लिये वे तरह–तरह का चारा फेंकती हैं । कोई पार्टी उन्हें भविष्य का सुनहरा सपना दिखाती है तो कोई उपहार बाँटती है, कोई इतिहास की याद दिलाकर रिस्तेदारी जोड़ती है तो कोई जाति-धर्म का खेल खेलती है, कोई गरीबी से मुक्ति की बात करती है तो कोई किसानों का कर्जा माँफ करने की योजना बनाती है । पार्टियाँ उन्हें अपने पक्ष में करने के लिये यथा संभव प्रत्येक चाल चलतीं हैं । यह जनता की बुध्दिमत्ता ही है कि वह इन सबों की बीच उसे चुनना चाहती है जो सबसे ज्यादा भरोसेमंद हो । जनता जिसे चाहेगी वही विजयी होगा । वोट का सब खेल है, जिस गाँव, मुहल्ले में अधिक वोट है, उस पर नजर सबकी है । नेता, उपनेता, पार्टी कार्यकर्ता सभी उस गाँव को ज्यादा महत्व देते हैं । वे वहाँ की समस्याओं को दूर करने का आश्वासन देते हैं, उनको पूज्य प्रतीकों को नमन करते हैं तथा उनके वोटों को अपने पक्ष में करना चाहते हैं। गाँव में एक घर था झुलावन का । वैसे तो पचहत्तर साल का वह एक वरिष्ठ नागरिक था, बेटों-पोतों पर खेती-बाड़ी की जिम्मेदारी डालकर कामकाज से फुर्सत पा चुका था तथा घर के एक कोने में पुराने बरतन की तरह ठनठनाता रहता था । वह दिन भर अकेले टांय-टांय करता, कोई सूनने वाला नहीं था, काम के बहाने सुबह ही सभी घर से बाहर चले जाते। घर में केवल बहुऐं ही थीं जो समय पर उसे रोटी और पानी दिया करतीं थीं, इसके आलावे ‘जेरी’ था उसका एक पालतू, जो भौंक कर उससे बातें करता, उसके इर्द-गिर्द मँडरा कर उसका अकेलापन दूर करता और जब वह उसे अपने हिस्से की रोटी का टुकड़ा देता तो वह कूँ-कूँ करते हुए उसका पैर सूँघकर स्वामि भक्ति जताता । ऐसी दयनीय स्थिति में भी जबकि हर काम के लिये उसे दूसरों पर आश्रित रहना पड़ता था, इन दिनों उसकी पूछ बढ जाती थी । राजनैतिक दलों के कार्यकर्ताओं में होड़ लगी रहती थी । वे दिन में कम से कम एक बार उसका हाल-चाल पूछने जरूर आते थे । दरअसल उसके और उसकी पत्नी के पास दो वोट, चार पुत्र और चार बहुयें के पास आठ वोट, पौत्र और उसकी पत्नियों के वोटों को मिलाकर कुल पच्चीस वोटों का मालिक था वह । यह एक ऐसा खजाना था उसके पास, जिसमें सेंध मारने के लिये सभी राजनैतिक पार्टिया मौका तलाशतीं थीं । अपने जीवन काल में उसने कई चुनाव देखें, चौदह-पंद्रह तो लोकसभा के… और लगभग इतने ही विधानसभा के भी…। राजनैतिक दलों की लुभावनी घोषणाओं को सुनते सुनते उसके कान में मोम का परत जमा हो गया था.., सुनकर भी अनसुना रह जाता…। ये घोषणायें उसे जरा भी आकृष्ट नहीं कर पाती, अधिकांश तो महज भाषण मात्र होती, कुछ तो ऐसी होती, जिसका वास्तविक तथ्यों से कोई लेना देना नहीं होता, जिसे पूरी भी नहीं की जा सकती, फिर भी इन घोषणाकर्ताओं की बेशर्मी की इंतहा नहीं होती, वे भले मतकर्ताओं को वास्तविक मुद्दे से भटकाकर वोट बैंक बनाने में जरा भी कसर नहीं छोड़ते । अत: यह उबाऊ के साथ-साथ उसे पीड़ादायक भी लगती, जिस कारण वह इससे दूर रहने की कोशिश करता या उसपर ध्यान ही नहीं देता था । यह उसे लुभाती तो बिल्कुल ही नहीं थी, यदि उसे कुछ लुभाता था वह एक पेय पदार्थ था जो इधर कई चुनावों से उसे मिलता रहा था, जिससे न तो उसकी गरीबी दूर हो सकती थी, न ही उसके भविष्य को सुनहरा बनाया जा सकता था, और न ही उसका गाँव खुशहाल बन सकता था, परंतु उससे भूत का गम अवश्य कम हो सकता था तथा वर्तमान मदमस्त बना सकता था, इसलिय वह ऐसे अवसरों को मुफ्त के हाथों गवाना नहीं चाहता । जब से उसे चुनाव की भनक लगी, वह इसे पुख्ता करने के लिये बेचैन हो उठा । यद्यपि वय अधिक होने के कारण उसका बाजर-हाट अक्सरे जाना नहीं हो पाता, फिर भी घर बैठे-बैठे ही वह गुजरते राहगीरों से टोह लेने का प्रयास करता । यदि कोई पहचान वाला मिल गया तो पाँच मिनट रोककर उससे हाल-चाल के बहाने चुनाव की खबर की पुष्टि करने की कोशिश करता । रात्रि में भी उसे चैन नहीं मिलती, बिस्तर पर लेटे लेटे अचानक वह उठ बैठता, मानों किसी ने पीठ में बिच्छू पौधे की पत्तियाँ रगड़ दी हो । ऐसे ही एक रात वह उठ कर बैठ गया और आँखें बन्द किये ‘चुनाव…, चुनाव’ बकने लगा । धनमंती, उसकी पत्नी, परेशान हो उठी,“ क्या बोल रहे हो… ? अभी आधी रात है…, सो जाओ, सुबह देख लेना.. ।“ उसे लगता कि कहीं चुनाव बीत न जाय और पार्टी से मिलने वाला ‘खर्चापानी’ न छूट जाय, इसलिये वह बोल कर खरियाने की कोशिश करता, दरसल अब उसे यादाश्त पर भरोषा रहा नहीं। उसने जब आँखें खोली तो चारों ओर अंधेरा था…। धनमंती उसका हाथ पकड़कर खींचने लगी और वह ‘हूँ… हूँ…’ कहते हुए पुन: बिस्तर में लेट गया । काफी देर तक उसने सोने की कोशिश की, कभी दायीं करवट तो कभी बायीं करवट बदली, परंतु नींद नहीं आयी, रह-रह कर खर्चापानी छूटने का डर सताने लगता था । हलाँकि आँखें तो उसने बंद कर रखीं थीं, फिर भी सामने पुरानी घटनायें चलचित्र की तरह घूमने लगीं थीं। बहुत पुरानी घटनायें थीं । जब पहली बार उसने मतदान किया था, उस समय की बातें थी । उस समय ‘खर्चेपानी’ का चलन नहीं था । लोगों के हृदय में सच्चाई वास करती थी । उनके जुबान का महत्व होता था, वे दिया गया वचन पूरी निष्ठा से निभाते थे, जिस कारण लोग एक-दूसरे पर भरोषा करते थे । वोट माँगने वाले का व्यक्तित्व और उसके अंदर की सच्चाई लोगों को पार्टी से जोड़ती थी, यदि उसने वचन ले लिया तो लोग उसी को वोट देते थे, अपनी जुबान से कोई मुकरता नहीं था । उसे याद आयी, जब उसने पहली बार मताधिकार का प्रयोग किया था, वह नासमझ था, उसे नहीं मालूम कि वोट किसे देना है ? परंतु उसके अंदर उमंग हिलोरे मार रही थी । उस दिन वह काम पर नहीं गया, नहा-धोकर तैयार हुआ और बैलों को खिला-पिलाकर गाड़ी में जोत दिया । जब सूरज सिर के उपर आया, वह बाबूजी, माँ और पड़ोस के कुछ लोगों के साथ निकल पड़ा । बूथ से थोड़ी दूरी पर उसकी बैलगाड़ी रुकी थी । पार्टी के लोगों ने मतदाता नामावली में क्रम संख्या वाली पर्ची सभी को दी। उसके बाद सभी ने बारी- बारी से बूथ के अन्दर जाकर मतपत्र पर मुहर लगायी थी । उसे याद नहीं कि उसने किस चिन्ह पर मुहर लगायी थी, परंतु उसने कांग्रेस पार्टी को ही वोट दिया था । बाबूजी के इशारे पर ही सभी ने वोट दिया, हलांकि बाबूजी भी आचार्यजी के कहने में थे । आचार्यजी स्वतंत्रता सेनानी तथा पक्का कांग्रेसी थे, वह नेहरुजी को गुरू मानते थे । उसे आज भी आचर्यजी का चेहरा याद है । सफेद दाढी-मूँछ एवं सफेद बाल के बीच दमकता चेहरा, जिस पर लाल तिलक शोभा बढाता था । जब वह बोलते थे तो वाणी में विद्वता झलकती थी । उनकी बात काटने की हिम्मत किसी में नहीं थी । लोग देवमुख से निकली वाणी समझ कर उनके आदेश का पालन करते थे, लेकिन अब न वैसे लोग हैं और न उनकी तरह की सच्चाई । बाबूजी भी एकबोलिया थे । उन्होंने आचार्यजी को जुबान दे दी तो दे दी । बलियार के उनके दोस्त की भी एक न चली, वह लाल सलाम वाले थे तथा भाकपा के लिये वोट माँग रहे थे । उसने बाबूजी को मनाने की बहुत कोशिश की, परंतु बाबूजी नहीं माने, वह अपने वचन पर कायम थे…, दोस्ती में दरार आ गयी, दोस्त से बात-चित बंद हो गयी, रिश्ते  खत्म हो गये, फिर भी उन्होंने आचार्य जी को नहीं छोड़ा…, उनकी कांग्रेस पार्टी को ही वोट दिया था । *** *** *** अब उसे किसी तरह का अमल ( नशे की आदत ) नहीं था, पान-पुड़िया भी छोड़ चुका था, फिर भी यदि कभी-कभार इच्छा जाग गयी तो वह अद्धा पीने पुलिया के नीचे आ जाता था । सात-दस दिन में एक बार तीस-चालीस रुपैए का एक अद्धा खरीदता था, इसके आलावा उसके पास अन्य खर्च के लिये कुछ रहता नहीं था। अब तो आमदनी भी नहीं रही, बेटों की दया पर कुछ रकम आ जाती थी । हाँ, यदि मोफत की दावत मिल गयी और उसमें भी अंग्रेजी की तो फिर क्या कहने, जी भरकर वह ऐसे पीता था जैसे बरसों से प्यासा हो । पीते-पीते जब तक पूरी तरह मदहोश नहीं हो जाता, वह रुकता नहीं था । उसकी यादाश्त में यह इस तरह फँसा हुआ था कि वह हमेशा उस मोफत वाले आइटम को ढूँढता रहता । वह सोचता, कोई कहीं से एक-दो बोतल लाकर दे दे तो मजा आ जाय । इसलिये ऐसे मौके पर जब विभिन्न दलों के लोग उससे वोट माँगने आते तो उसका जीभ लपलपाने लगता और वह चाकुर-चुकुर करने लगता था । पिछले चुनाव में पार्टी के लोगों ने उसे एक पेटी अंग्रेजी शराब की दी थी । उसने तो सोचा—बचा-बचा कर कई महीनें तक पीयेंगे, परंतु पहला दिन ही छोटा बेटा श्यामू ने तीन बोतलें निकाल लीं । बहुत गुस्सा आया, उसने उसे डांटा-फटकारा और शेष बची बोतलों को आलमारी में बंद कर ताला लगा दिया। अन्य बेटों को उसने हाथ तक नहीं लगाने दिया । उसने कोशिश की रोजाना दो पैग से अधिक नहीं पीने की, फिर भी दो महीनें तक ही वह चला पाया, मन को काबू में रखना बड़ा मुश्किल था । बाद में कभी-कभार बेटों के माँगने पर आधी बची बोतल उन्हें दे दिया करता था ।अंतिम दो बोतलों में से एक को उसने छह महीनें तक बचाकर रखा था, जब वह आधी हो गयी तो पड़ोस के एक मिस्त्री को देकर खत्म करने को कहा था । आज वह कई दिन बाद पुलिया के नीचे आया था । जब वह घर से निकला तो कूँ-कूँ करता ‘जेरी’ भी साथ लग गया । रास्ते में वह कभी आगे चलता तो कभी एक जगह रुक कर कुछ सूंघने लगता, जिस वजह से वह पीछे रह जाता, तब वह अचानक दौड़कर उससे आगे निकल जाता था । जेरी के साथ रहने से उसे बल मिलता, उसे लगता कोई तो है जो उसके साथ चल रहा है। जब वह पुलिया से थोड़ी दूरी पर था तो उसने देखा कि कठघरा खाली पड़ा था । आस-पड़ोस की दुकान में थोड़ी-बहुत चहल-पहल थी । उसने सोचा—दोपहर का वक्त है, शायद इसी वजह से कम लोग जमा हैं, फिर भी वह आगे बढता रहा । उसने लाठी से जेरी को इशारा किया और वह पुन: उससे आगे निकल गया । जब वह वहाँ पहुँचा तो देशी शराब की दुकान बंद थी । चुँकि इस बार वह बहुत दिन बाद यहाँ आया था…, उसे जोर की तलब लगी थी। वह वहीं बेंच पर बैठ कर दुकान खुलने का इंतजार करने लगा । जेरी भी पास बैठकर जीभ लपलपाने लगा था । कुछ देर तक वह चुपचाप बैठा रहा, कभी-कभी वह जेरी का गरदन सहला देता तो कभी सड़क की ओर नजर दौड़ा कर दुकानदार की राह ताकता । उसकी नजर गाड़ियों की आवाजाही पर भी थी, तभी उसने देखा कि एक प्रचार गाड़ी वहाँ आकर रुकी । एक पल के लिये उसे यकीन नहीं हुआ, परंतु उसे अंदर ही अंदर खुशनुमा स्पंदन महसूस हुआ । वह खड़ा होकर इधर–उधर देखने लगा । पास की दुकान पर खड़े आदमी से उसने पूछा, “ क्या यह चुनाव प्रचार की गाड़ी है ? “ हाँ… ।“ उस आदमी ने कहा । उसने भी ‘हाँ’ ही सुनी थी, परंतु शायद उम्र अधिक होने के कारण या किसी अन्य कारण से उसे इस ‘हाँ‘ पर विश्वास नहीं हुआ । उसने पुन: सिर डुलाकर पुष्टि करने की कोशिश की । “ हाँ…, चुनाव प्रचार की गाड़ी है ।“इस बार उस आदमी ने जोर देकर कहा था । उसके चेहरे पर प्रसन्नाता की रेखायें उभर आयीं । उसने पूछा, “ गाड़ी किसका प्रचार कर रही है ?“ “ कृष्णानंद का फोटो लगा है, “ उस आदमी ने कहा । “क्या? कृष्णानंद का…?“ वह उठकर प्रचार गाड़ी के पास गया तथा उसने उसपर लगी तस्वीर देखने की कोशिश की, परंतु बूढी आँखों ने पहचानने में असमर्थता दिखाई । लोगों ने उसी का फोटो लगे होने की बात कही थी । कृष्णानंद का नाम सुनते ही उसे अजीब महसूस हुआ । उसे ऐसा लगा जैसे कसैला स्वाद पूरे जीभ पर फैल गया हो । उसका मुँह विचित्र रुप से टेढा हो गया, आँखें सिकुड़ गयी । कुछ पल के लिये चुनाव की खबर से उसे जो खुशी मिली थी, वह काफूर हो गयी । झूठा, भ्रष्ट, कमीना, बेईमान और न जाने कौन-कौन से अपशब्द उसके दिमाग में बुलबुले की तरह उठने लगे । उसका मन घृणा भाव से भर उठा और वह उसे कोसने लगा था । वह अनाप-शनाप बड़बड़ाने लगा, लेकिन जब उसने देखा कि पास खड़े लोग उसे घूरने लगे थे तो वह जल्दी ही चुप हो गया । एक बार वह इसी तरह बड़बड़ा रहा था कि उसके बड़े बेटे का मंझला पुत्र गौरव जो कि कुछ दिन पहले एमए पास किया था, उसे टोक दिया । उसने कहा, “आप क्या बक रहे हैं ? आपको पता है ? जैसे-जैसे आप बूढे होते जा रहे हैं, आपकी जुबान बेलगाम होती जा रही है.., गंदी-गंदी गालियाँ बकना आपको अच्छा लगता है ? सामने औरतें और बच्चे भी रहते हैं, फिर भी आप अनाप-शनाप बोलते हैं ।“ हलाँकि उस समय उसने गौरव को बहुत डांटा और उसे पीटने के लिये हाथ भी उठा लिया था, परंतु बाद में उसे अपनी गलती का एहसास हुआ । उसके बाद से उसे जब भी गालियाँ देने का मन करता तो वह चुपचाप अकेले में बोलकर भड़ास निकाल लिया करता था । शाम में जब सभी जमा हुए तो बहस छिड़ गयी । बड़े बेटे ने असंतोष व्यक्त किया, “कृष्णानंद तो अभी बच्चा है । इस लौंडा-लफांड़ी से क्या होगा ? कृपाशंकर को टिकट मिलता तो सही रहता, वह उम्रदराज है, पहले भी एमपी रह चुका था । “ “ देखा जाय, तो सबसे योग्य कृपाशंकर है…, फिर भी उसका टिकट काट दिया ? समझना मुश्किल है कि क्यों काट दिया ? “ मंझले बेटे ने कहा । श्यामू ने गुप्त पिटारा खोला, “ आपको नहीं पता, कृष्णानंद की पहुँच उपर तक है और उसने रुपैया भी खर्च किया है, इसलिये तो उसे टिकट मिला है।“ “ कृपाशंकर के टिकट कटने से कार्यकर्ताओं में आक्रोश व्याप्त हो जायेगा ।“ बड़े बेटे ने संभावना जतायी। “ अरे, हम तो कहते हैं कि पार्टी के अंदर ही अंदर कृष्णानंद का विरोध हो जायेगा, कार्यकर्ताओं का पूरा सपोर्ट भी नहीं मिलेगा, “ तीसरे बेटे ने कहा था । श्यामू ने कहा, “नहीं, भैया, आपलोग गलत अनुमान लगा रहें हैं, कृष्णानंद ही जितेगा.., देखियागा । उसे सभी का सपोर्ट मिलेगा । कृपाशंकर में अब दम नहीं रहा । वह बहुत बूढे हो गये हैं ।“ तीसरे बेटे ने उसकी बात काटी, “ इस बार दूसरी पार्टी के बेलाट सिंह जीतेंगे । वह एक मजबूत कैंडिडेट है। उसे क्षत्रीय, ब्राह्मण, पटेल और लोधी का सॉलिड वोट मिलेगा । उसे कोई हरा नहीं सकता ।“ मंझले बेटे ने कहा, “जानते हो जयनंदन निषाद को क्यों खड़ा करवाया गया है ? बेलाट सिंह का वोट काटने के लिये…., निषादों का एक भी वोट उसे नहीं मिलने वाला ।“ “ परंतु मुस्लिम वोट पूरा का पूरा कृष्णानंद को मिलेगा ।“ “ नहीं, नहीं, मुस्लिम वोट के बारे में अनुमान लगाना बहुत मुश्किल है । रामनगर का एक भी मुस्लिम वोट कृष्णानंद को नहीं जा रहा है,“ बड़े बेटे ने कहा था । गौरव काफी देर से उनकी बातें सुन रहा था, उसके अंदर भी कुछ प्रतिक्रियायें कुलांचे मार रहीं थीं । उसने कहा, “ इस बार कृष्णानंद ही जीतेगा, चाहे लोग कुछ भी कर लें । वह युवा है, विकास को तरजीह दे रहा है, उसके जीतने से क्षेत्र का विकास होगा । हमलोग भी उसी को वोट देंगे।“ झुलावन एक कोने में बैठा बहस से दूर था, परंतु कृष्णानंद को वोट देने की बातें सुनते ही उसके अंदर सुलग उठा । उसने उँची आवाज में कहा, “ कौन ? कृष्णानंद ! उसके बारे में तुम्हें कुछ नहीं मालुम । वह अपने बाप से भी बीस है । उसके जैसा भ्रष्ट और लुटेरा यहाँ एक भी कैंडिडेट नहीं है । वह क्या विकास करेगा ?“ दादा की बात सुनकर गौरव सन्न रह गया । झुलावन ने बताना शुरु किया, “उसका बाप गुंडा था । इलाके में जिससे पूछो, सभी उसके करतूत से अवगत थे । बिना बूथ कैप्चर किये उसने एक भी चुनाव नहीं जीता । उस समय ईवीएम नहीं था । मतपत्र पर मोहर लगाकर वोट किया जाता था । एक बार तो उसने एक भी मतदाता को बूथ के अन्दर जाने नहीं दिया, पोलिंग पार्टी को डरा-धमका कर उससे सभी मतपत्र छीन लिया और अपनी पार्टी के चिन्ह पर मोहर लगाकर बक्से में डाल दिया था । उसी का बेटा है कृष्णानंद, इसे कम मत समझो । “ “ पहले की बात आलग थी और अबकी बात अलग है । अब जो विकास की बात करेगा, जो काम करेगा, उसी को वोट मिलेगा, अब पुराने ढर्रे पर चलने से काम नहीं चलने वाला,,” गौरव ने धीमी स्वर में कहा था । “ मैं भी जब तुम्हारी तरह था तो गरीबी दूर करने की बात सुनता था, पचास साल हो गये, क्या गरीबी दूर हो गयी ? मेरे दादा के पास अस्सी बीघे जमीन थी, लेकिन अब तुम्हारे पास क्या है ? दो बीघे जमीन भी तुम्हारे हिस्से में आ जाय तो बहुत है । क्या यही गरीबी दूर हुई है ? “ बड़े बेटे ने गौरव को समझाया, “ देखो बेटा, इन नेताओं की बातों पर विश्वास नहीं करते, अभी इन्हें वोट की जरुरत है, इसलिये वे लम्बी फेंकते हैं । वे जो भी बातें करते हों, चाहे विकास की हो, गरीबी दूर करने की हो या स्कूल, कॉलेज व अस्पताल खोलने की हो, सभी बातें केवल वोट पाने के लिये है । जब वे जीत कर चले जायेंगे तो वापस हमसे मिलने भी नहीं आयेंगे।“ गौरव ने चुपाचाप सुन लिया । “ सुनो, तुमलोग अपनी मनमानी मत करना, जिसे मैं कहूँ उसे ही वोट देना, “ झुलावन ने उन्हें कड़ी हिदायत दी । “….और जब भी किसी पार्टी का आदमी मिलने आये तो उसे मेरे पास भेज देना, तुमलोग मत बात करना । “ *** *** *** जैसे-जैसे चुनाव की तिथि नजदीक आती जा रही थी, झुलावन की बैठकी में उपस्थति दर्ज कराने वालों की संख्या बढती जा रही थी । आने वाले लोग पहले तो उसकी खबर पूछते, उसके बाद अपने नेता की खूबियाँ बखान करते, फिर बड़ी-बड़ी बातें करते –यह कर देंगे, वह कर देंगे, नदी पर पुल बनवा देंगे, स्कूल बनवा देंगे, सड़क अच्छी हो जायेगी, गरीबों को रुपैया बंटवायेंगे इत्यादि। परंतु उनके इन हवाई बातों से उसे क्या..? उसके सूखे गले तर करने की बात कोई नहीं करता । यही कोई सात दिन बाद वोट पड़ने थे, परंतु न तो किसी ने खर्चेपानी का जिक्र किया और न ही किसी ने किसी अन्य तरह की भेंट देने की बातें की । आँखों के सामने फैलता सूनापन तथा घटती उम्मीदें उसे निराश करने लगी थी । बाबादीन आया । “राम, राम, चाचा, “ कहते हुए वह उसके पास बैठ गया । वह भी इन दिनों उसकी बैठकी में हाजिरी लगाने वालों में से एक था । “चाचा, आशीर्वाद है न। “ उसने नजरें घुमायीं, “ आज फिर आ गये । “ “ चाचा, जब तक आशीर्वाद नहीं मिलेगा, आता रहुंगा ।“ “मैं कोई देवी-देवता थोड़े हूँ… जो आशीर्वाद दूँगा, “उसने कुछ सोचकर कहा था। “हमारे लिये तो आप देवी-देवता से भी बढकर हैं । “ “ अच्छा.., हम देवी-देवता से बढकर हो गये…? अजीब बात है….. ।“ “ बड़े-बुजुगों का आशीर्वाद कम नहीं होता । “ बाबादीन ने झेंपते हुए कहा था । “ देवी-देवता को तो चढावा चढाते हो.. और हमें….? अपने नेता बेलाट सिंह से मेरे लिये बात करो ।“ “ जरुर । अपना मुँह तो खोलिये । “ “ सुनो..,” उसने बाबादीन को पास बुलाया और उसके कान में कुछ फुसफुसाया । बाबादीन ने कहा, “आप चिंता न करें, नेताजी से कह कर व्यवस्था हो जायेगी । “ कृष्णानंद का आदमी भी उसके इर्द-गिर्द मंडराता रहता था, उसने एकांत पाकर धीरे से मुँह खोला, “दादा, हम आपके पोते के समान हैं, ख्याल रखियेगा। “ “ चुप रहो ? “उसने मुँह फेर लिया । परंतु लगातार पीछे पड़े रहने के कारण उसका दिल पसीजने लगा । कृष्णानंद के प्रति उसके मन में जो नफरत थी, वह कम होने लगी । बेईमान, चोर और भ्रष्ट तो सबके सब हैं, यह अलग बात है कि कोई कम है या कोई ज्यादा । यदि इन्हीं से हमें खर्चापानी मिल रहा है तो क्या बुरा..है ? वह उसे एक कोने में ले गया और उसके कान में कुछ फुसफुसाया । “ जी, हो जायेगा । परंतु आपके सभी वोट हमें मिलने चाहिये । “ “ हाँ…, हाँ, मिलेगा ।“ उस लोकसभा क्षेत्र के अधिकांश प्रत्याशियों के प्रतिनिधियों ने झुलावन से संम्पर्क किया तथा सभी ने कुछ न कुछ खर्चापानी देने का आशवासन दिया । परसों चुनाव होनेवाली है, आज का दिन खाली ही बीत गया । झुलावन कमरे में बैठा दिन भर इंतजार करता रहा, किंतु न कोई मिलने आया और न ही किसी ने खर्चापानी पहुँचाया । उसे ऐसा महसूस हुआ जैसे उसकी बैठकी का पुराना सूनापन फिर से लौट आया हो । देखते-देखते संध्या भी बीत गयी, फिर भी कोई नहीं आया । उसके चेहरे पर निराशा की रेखायें उभरने लगीं—क्या बिना खर्चे-पानी मिले ही यह चुनाव बीत जायेगा ? यदि ऐसा हुआ तो बहुत अफसोसजनक होगा । तभी उसे याद आया—आज चुनाव प्रचार का अंतिम दिन है, प्रत्याशी प्रचार में व्यस्त होंगे, हो सकता है उन्हें समय न मिला हो । कल का समय तो बांकी है, कल ही कोई आ जाय । रात में जब वह खाना खा कर आराम करने के लिये बिस्तर पर पहुँचा तो दरवाजे पर दस्तक हुई । घर के बाहर बाबादीन खड़ा था । “ चाचा, आपने जो कहा था, वह पूरा कर दिया, लीजिये । “ उसने शराब की बोतलों से भरी एक पेटी उसके सामने रख दी । उसका चेहरा खुशी से खिल उठा, उसने दोनों हाथ उठाकर कहा, “ आशीर्वाद है…। “ “हाँ, चाचा, आपका सारा वोट हमें चाहिये । “ “ अवश्य, मिलेगा…, “ उसने श्यामू को बुलाकर जल्दी से शराब की पेटी अंदर रखवायी । अगले दिन यानि कि चुनाव की तिथि से एक दिन पहले उसे दो अन्य पार्टियों से भी खर्चापानी मिला था । *** *** *** मतदान की पूर्व संध्या थी । झुलावन द्वार के बाहर चहलकदमी कर रहा था । आज वह अत्यंत ही उत्साहित अनुभव कर रहा था । उसके पैर स्वत: ही गतिमान हो उठे थे, दो कदम में ही वह पूरा बरामदा माप लेना चाहता था । मन में खुशनुमा बातें चल रही थी । उसने सोचा— इतना खर्चापानी तो पहले कभी नहीं मिला । इस बार इतनी मात्रा में मिली है कि कई महीनों तक चला सकता है…। अब बचा-बचा कर पीने की क्या जरुरत ? जब चाहे वह जी भर पी सकता है । चाहे तो वह बेटों को भी उचित मात्रा में कई बोतलें दे सकता है । दोस्तों एवं पड़ोसियों को भी एक-दो बार पिला सकता है । एक तरफ जहाँ उसे इस बात कि खुशी थी कि खर्चापानी भरपूर मिला है, दूसरी तरफ वह परेशानी में उलझा महसूस कर रहा था । वह तय नहीं कर पा रहा था कि वोट किसे देना है ? तीन पार्टियों से खर्चापानी मिला था । उसने घर के सभी सदस्यों को बुलाया तथा उन्हें वहाँ ले गया जहाँ खर्चापानी रखा हुआ था । सभी देखते ही खुश हो गये, कोई पेटी छू कर देख रहा था, तो कोई बोतल निकाल कर हाथ में लेना चाहता था । किसी ने गिलास मंगवाया तो किसी ने पानी । उसने सभी को रोका,“सुनो., परेशान होने की जरुरत नहीं, खर्चापानी भरपूर मात्रा में मिला है, सबको इच्छाभर मिलेगा…, परंतु एक दिक्कत है । पिछले चुनाव में हमें एक ही पार्टी से खर्चापानी मिला था, इसलिये हमने उसी पार्टी को वोट दिया । इस बार स्थिति बदल गयी है । इस बार हमें तीन पार्टी से कई गुणा अधिक खर्चा–पानी मिला है, शराब की बोतलों से भरी एक पेटी हमें कृष्णानंद ने दी है, एक पेटी और कुछ रुपैये बेलाट सिंह की ओर से मिला है तथा दो पेटी हमें जयनंदन निषाद से मिली है। इस स्थिति में हम क्या करे ? किसी वोट दे ? आओ, सभी मिलकर इस समस्या का हल निकालते हैं । ” बड़े बेटे ने कहा,” सबसे ज्यादा खर्चापानी यानि कि दो पेटी शराब जयनंदन निषाद से मिली है, इसलिये हमें जयनंदन निषाद को वोट देना चाहिये । “ “ नहीं, नहीं, बेलाट सिंह ने भी हमें कम नहीं दिया है, एक पेटी शराब और कुछ रुपैये दिया है, वो कम नहीं है । हमें बेलाट सिहं को वोट देना चाहिये, “ मंझले बेटा ने अपनी राय रखी । “सुनिये, बेलाट सिंह और जयनंदन निषाद जीतने वाले नहीं है । उन्हें वोट देकर हमें मत बर्बाद नहीं करना है । कृष्णानंद ही जीतेगा, उसी को हमें वोट देना चाहिये, “छोटे बेटे श्यामू ने कहा । मंझला बेटा नाराज हो उठा, “ तब उनसे खर्चापानी क्यों लिया ? जब सबसे कम देने वाले को ही वोट देना था तो बाँकी दोनो को मना कर देते, उनसे नहीं लेते ।“ “ यह तो सरासर बेईमानी है, खर्चापानी लेने का क्या मतलब रह गया ? यदि खर्चापानी लिया है, तो ईमानदारी से हमें उसे वोट देना चाहिये, जिसने सबसे अधिक दिया है । “बड़े बेटे ने उसका समर्थन किया । श्यामू ने कहा, “ मुझे अपना मत बर्बाद नहीं करना है, हमें जीतने वाले को ही वोट देंगे । “ “मेरी बात सुनो, हम ऐसा भी कर सकते है कि जिसने सबसे ज्यादा खर्चापानी दिया है उसे दस वोट, उससे कम देनेवाले को आठ वोट और जिसने सबसे कम दिया है उसे सात वोट देकर कर्तव्य निभा सकते हैं, “तीसरे बेटे ने सुझाव दिया । “ यह तो विल्कुल गलत है, तब तो आगे से हमें खर्चापानी भी नहीं मिलेगा, “ बड़े बेटे ने कहा । “आपलोगों ने बहुत बड़ी गलती की है खर्चापानी लेकर… । क्या आपलोगों को पता नहीं, वोट के बदले किसी तरह का उपहार या धन लेना गैरकानूनी है? यदि पुलिस को पता चल गया और उसने छापामारी की तो हम सभी पकड़े जायेंगे । हमें सजा भी हो सकती है और आर्थिक दंड भी मिल सकता है । आपलोगों ने खर्चापानी क्यों लिया ?” गौरव ने गुस्से में कहा था । “ चुप्प, एक दम चुप्प, तुम्हें कानून बघारने की जरुरत नहीं है, “ झुलावन ने उसे चुप कराने की कोशिश की । वाद-विवाद में सभी उलझ गये थे, सभी जोर-जोर से वार्ता कर रहे थे । सबकी अपनी-अपनी राय थी । किसी एक पर सहमति नहीं बन पायी थी । किसी वोट दें ? किसे न दें… ? समस्या जस की तस खड़ी थी । झुलावन ने पहले तो सभी को चुप कराया, उसके बाद शांतिपूर्वक विचार-विमर्श करने को कहा था । जब सभी चुप हुए और धीमी आवाज में विचार-विमर्श कर रहे थे, तभी उन्हें बाहर शोर-शराबा सुनाई दिया, ऐसा लगा जैसे कोई पुकार रहा हो । “चलकर देखते हैं, बाहर कौन है? “ सभी बाहर गये । झुलावन आगे था तथा उसके पीछे सभी लोग । बाहर बाबादीन, कृष्णानंद के आदमी और जयनंदन निषाद के आदमी अपने-अपने लठैत के साथ खड़े थे । वे बहुत नाराज थे और गुस्से में दिख रहे थे । उन्हें देखते ही झुलावन घबड़ा उठा। उसने गिरगिराते हुए पूछा, “ क्या बात हो गयी ? इतनी रात को आपलोग यहाँ आये ? “ “ यह बता…, तू ने हम तीनों से खर्चापानी लिया है तो वोट किसे देगा ?” एक लठैत ने आँखें दिखाते हुए पूछा । झुलावन कुछ बोलने ही जा रहा था कि दूसरे ने कहा, “ तूने मेरे साथ छल किया है, तूने मुझसे भी खर्चापानी लिया है और उनसे भी… । बोल, क्या तू मुझे वोट देगा…?” “अबे बूढ्ढे , यदि तुम्हारा सारा वोट मुझे नहीं मिला तो मैं मार-मार कर तुम्हारी हड्डी पसली एक कर दूंगा । बता, मुझे वोट देगा या नहीं ।“ बाबादीन के लठैत ने धमकाया । स्थिति बिगड़ती देख झुलावन ने हाथ जोड़ लिया, “ मुझसे बहुत बड़ी गलती हो गयी, मुझे छोड़ दीजिये, मुझ बूढे पर दया कीजिये ।“ “ तुझ जैसा बेईमान पर दया करूँ ? मैं तुम्हारा वो हाल करुंगा कि तू खर्चापानी भूल जायेगा । “ जयनंदन निषाद के लठैत ने लाठी पटकते हुए कहा था । “ नहीं, हुजूर, हम तो आप ही को वोट देंगे ।“ “ मैं कैसे मान लूँ… कि तू मुझे ही वोट देगा ?“ कृष्णानंद के लठैत ने पूछा । “ हजूर, मैं आपको ही वोट दूंगा, मैं कह रहा हूँ न…, फिर भी…, यदि यकीन न हो तो आप अपना खर्चापानी वापस ले सकते हैं । “ फिर उसने सभी से कहा, “जिन-जिन को यकीन न हो वह अपना खर्चापानी वापस ले सकता है । श्यामू…, जा बेटा, सबका सामान बाहर लाकर रख दे । “ श्यामू एवं अन्य अंदर जाने लगे । तभी सभी ने उन्हें रोका, “ ठहरो, खर्चापानी अपने पास रखो, हम देखते हैं कि तुम किसे वोट देते हो, चुनाव के बाद तुमसे निपट लेंगे । “ वे कुछ देर तक खुशुर-पुशुर करते रहे, उसके बाद चले गये थे । रात अंधेरी थी । सुनसान सड़क पर केवल जेरी ही था जो भौंकता हुआ कुछ दूर तक उनके पीछे गया था । जब वह चुप हुआ तो नीरवता पुन: पसर गयी । वह झुलावन के पास आकर बैठ गया और उसका पैर चूमने लगा था । झुलावन ने उसकी ओर देखा, परंतु अभी उसे उसका सिर सहलाने की इच्छा नहीं हुई । उसके अंदर तीव्र बेचैनी थी । ऐसा लग रहा था, मानों किसी ने सीने में खंजर उतार दिया हो । दर्द से वह छटपटा रहा था । उसे बहुत बेईज्जति महसूस हुई थी—एक-दो पेटी शराब ही तो ली थी, कोई सोना-चांदी जैसा मंहगा सामान तो लिया नहीं, उसकी वजह से इसतरह की डाँटफटकार, मारने- पीटने पर वे उतारू हो गये थे । यह तो सरासर ज्यादती थी । खर्चापानी देकर उन्होंने मुझे गुलाम बना लिया क्या ? मैं उन्हें वोट नहीं दूंगा तो वे मुझे पीटेंगे ? मेरी हड्डी-पसली तोड़ देंगे ? यह मेरी ही गलती थी, जो मैं लालच में आ गया, उनसे खर्चापानी माँग लिया । अब वे संविधान द्वारा प्रदत्त मेरे अधिकार का दुरुपयोग करना चाहते है । क्या मैं उनकी इच्छानुसार मतदान करुंगा ? उसका मन असंतुलित हो उठा था । वह सभी राजानैतिक दलों को अनाप-शनाप बकने लगा और गालियाँ देने लगा था । उसने बेटों पर भी गुस्सा उतारा, बेटों को भी अक्लविहीन व बेवकूफ कहा था । उसके बाद वह अपनी ही गलती समझकर स्वंय को दोष देने लगा । कुछ देर बाद जब उसका मन थोड़ा सहज हुआ तो वह घर के अंदर चला गया । उसके बाद सभी एक-एक कर अंदर चले गये थे । चुनाव के दिन सभी नहा-धोकर तैयार हुए और झुलावन के पास आकर बैठ गये। वोट देना है…, नहीं देना है…, या किसे देना है ? अभी तक इसका निर्णय नहीं हुआ था । वातावरण में शुष्क मायूसी पसरी थी, झुलावन शांत चित्त बैठा था । उसके चेहरे पर सख्ती थी, लेकिन अचानक ही मुस्कराहट फैल गयी । उसने सबसे छोटे पोते के गोद में लिया और उसे प्यार करने लगा था । उसने सभी से कहा, “ बच्चों, मताधिकार संविधान द्वारा प्रदत्त ऐसा अधिकार है जिसके माध्यम से प्रजातंत्र की नींव रखी जाती है । सरकार के सभी महत्वपूर्ण पदों पर चुनाव में विजयी व्यक्ति ही आसीन होता है । इसलिये हमें बहुत ही समझदारी से मतदान करना चाहिये । राजनैतिक दलों के नेतागण बहुत ही चतुराई से वोट पाने की कोशिश करते हैं । वे सभी तरह की चाल चलते हैं । इसलिये हमें उनसे सावधान रहने की आवश्यकता है । उनके झांसे में आकर मतदान करने की जरुरत नहीं है । मुझसे एक भूल हो गयी, जिसका नतीजा तुम सबके सामने था । तुम सभी ने देखा कि वोट के लिये वे किस हद तक जा सकते हैं । इसलिये हमें इन नेताओं को दोस्ती-दुश्मनी, भाईचारा, जाति-धर्म, लेन-देन इत्यादि के आधार पर वोट नहीं करना चाहिये । हमें उसकी योग्यता के आधार पर वोट करना चाहिये । हमें यह देखना चाहिये कि कौन प्रत्याशी जीतने के बाद क्षेत्र का ख्याल रख सकेगा, ईमानदारी के साथ विकास का काम करेगा, लोगों के साथ अच्छा व्यवहार करेगा, समस्या दूर करने का प्रयास कर सकेगा इत्यादि के आधार पर हमें उसकी योग्यता का आंकलन करना चाहिये । अब मैं तुम्हें किसी के पक्ष में वोट करने के लिये बाध्य नहीं करुंगा और न ही किसी तरह का दबाव डालुंगा । तुम्हें स्वंय निर्णय लेना चाहिये । प्रत्येक व्यक्ति स्वतंत्रतापूर्वक अपनी बुध्दि का उपयोग कर यह तय कर सकता है कि किसे वोट देना है ? प्रत्येक प्रत्याशी के बारे में पूरी जानकारी प्राप्त कर लेनी चाहिये, उसके बाद ही सबसे योग्य उम्मीदवार के पक्ष में मतदान करना चाहिये । अब तुम सभी जाओ और सोच-समझ कर सबसे योग्य उम्मीदवार के लिये मतदान करो ।“ घर के सभी मतदान के लिए निकल पड़े थे । झुलावन सबसे पीछे था । वह बाद में तैयार हुआ । वह जब निकला तो अकेला था । रास्ते में वह विचार करते हुए जा रहा था कि वोट किसे देना है ? तभी जेरी आया, उसके इर्द-गिर्द सूंघा और साथ-साथ चलने लगा ।
राजेन्द्र यादव का जन्म 28 अगस्त 1929 को उत्तर प्रदेश के आगरा जिले में हुआ था। शिक्षा भी आगरा में रहकर हुई। बाद में दिल्ली आना हुआ और कई व्यापक साहित्यिक परियोजनाएं यहीं सम्पन्न हुईं। देवताओं की मूर्तियां, खेल-खिलौने, जहां लक्ष्मी कैद है, अभिमन्यु की आत्महत्या, छोटे-छोटे ताजमहल, किनारे से किनारे तक, टूटना, अपने पार, ढोल तथा अन्य कहानियां, हासिल तथा अन्य कहानियां व वहां तक पहुंचने की दौड़, इनके कहानी संग्रह हैं। उपन्यास हैं-प्रेत बोलते हैं, उखड़े हुए लोग, कुलटा, शह और मात, एक इंच मुस्कान, अनदेखे अनजाने पुल। ‘सारा आकाश,’‘प्रेत बोलते हैं’ का संशोधित रूप है। जैसे महावीर प्रसाद द्विवेदी और ‘सरस्वती’ एक दूसरे के पर्याय-से बन गए वैसे ही राजेन्द्र यादव और ‘हंस’ भी। हिन्दी जगत में विमर्श-परक और अस्मितामूलक लेखन में जितना हस्तक्षेप राजेन्द्र यादव ने किया, दूसरों को इस दिशा में जागरूक और सक्रिय किया और संस्था की तरह कार्य किया, उतना शायद किसी और ने नहीं। इसके लिए ये बारंबार प्रतिक्रियावादी, ब्राह्मणवादी और सांप्रदायिक ताकतों का निशाना भी बने पर उन्हें जो सच लगा उसे कहने से नहीं चूके। 28 अक्टूबर 2013  अपनी अंतिम सांस तक आपने  हंस का संपादन पूरी निष्ठा के साथ किया। हंस की उड़ान को इन ऊंचाइयों तक पहुंचाने का श्रेय राजेन्द्र यादव को जाता है।

उदय शंकर

संपादन सहयोग
हंस में आई  कोई भी रचना ऐसी नहीं होती जो पढ़ी न जाए। प्राप्त रचनाओं को प्रारम्भिक स्तर पर पढ़ने में उदय शंकर संपादक का   सहयोग करते  हैं । 
हिंदी आलोचक, संपादक और अनुवादक उदय शंकर जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से पढ़े हैं। उन्होंने कथा-आलोचक सुरेंद्र चौधरी की रचनाओं को तीन जिल्दों में संपादित किया है। ‘नई कहानी आलोचना’ शीर्षक से एक आलोचना पुस्तक प्रकाशित।
उत्तर प्रदेश के बनारस जिले के लमही गाँव में 31 अक्टूबर 1880 में जन्मे प्रेमचंद का मूल नाम धनपतराय था।पिता थे मुंशी अजायब राय।शिक्षा बनारस में हुई। कर्मभूमि भी प्रधानतः बनारस ही रही। स्वाधीनता आंदोलन केनेता महात्मा गांधी से काफी प्रभावित रहे और उनके ‘असहयोग आंदोलन’ के दौरान नौकरी से त्यागपत्र भी देदिया। लिखने की शुरुआत उर्दू से हुई, नवाबराय नाम से। ‘प्रेमचंद’ नाम से आगे की लेखन-यात्रा हिन्दी में जारी रही। ‘मानसरोवर,’ आठ खंडों में, इनकी कहानियों का संकलन है और इनके। उपन्यास हैं सेवासदन, प्रेमाश्रम, निर्मला, रंगभूमि, कायाकल्प, गबन, कर्मभूमि, गोदान और मंगल सूत्र (अपूर्ण)। 1936 ई. में ‘गोदान’ प्रकाशित हुआ और इसी वर्ष इन्होंने लखनऊ में प्रगतिशील लेखक संघ’ की अध्यक्षता की। दुर्योग यह कि इसी वर्ष 8 अक्टूबर को इनका निधन हो गया। जब तक शरीर में प्राण रहे प्रेमचंद हंस निकालते रहे। उनके बाद इसका संपादन जैनेन्द्र,अमृतराय आदि ने किया। बीसवीं सदी के पांचवें दशक मेंयह पत्रिका किसी योग्य, दूरदर्शी और प्रतिबद्धसंपादक के इंतजार में ठहर गई, रुक गई।

नाज़रीन

डिजिटल मार्केटिंग / सोशल मीडिया विशेषज्ञ
आज के बदलते दौर को देखते हुए , तीन साल पहले हंस ने सोशल मीडिया पर सक्रिय होने का निर्णय लिया। उसके साथ- साथ हंस अब डिजिटल मार्केटिंग की दुनिया में भी प्रवेश कर चुका है। जुलाई 2021 में हमारे साथ जुड़ीं नाज़रीन अब इस विभाग का संचालन कर रही हैं। वेबसाइट , फेस बुक, इंस्टाग्राम , ट्विटर जैसे सभी सोशल मीडिया प्लेटफार्म के माध्यम से ये हंस को लोगों के साथ जोड़े रखती हैं। इन नए माध्यमों द्वारा अधिक से अधिक लोगों को हंस परिवार में शामिल करने का दायित्व इनके ऊपर है।

प्रेमचंद गौतम

शब्द संयोजक
कोरोना महामारी में हमसे जुदा हुए वर्षों से जुड़े हमारे कम्पोज़र सुभाष चंद का रिक्त स्थान जुलाई 2021 में प्रेमचंद गौतम ने संभाला। हंस के सम्मानित लेखकों की सामग्री को पन्नों में सुसज्जित करने का श्रेय अब इन्हें जाता है । मुख्य आवरण ले कर अंत तक पूरी पत्रिका को एक सुचारू रूप देते हैं। इस क्षेत्र में वर्षों के अनुभव और ज्ञान के साथ साथ भाषा पर भी इनकी अच्छी पकड़ है।

दुर्गा प्रसाद

कार्यालय व्यवस्थापक
पिछले 36 साल से हंस के साथ जुड़े दुर्गा प्रसाद , इस बात का पूरा ध्यान रखते हैं की कार्यालय में आया कोई भी अतिथि , बिना चाय-पानी के न लौटे। हंस के प्रत्येक कार्यकर्ता की चाय से भोजन तक की व्यवस्था ये बहुत आत्मीयता से निभाते हैं। इसके अतिरिक्त हंस के बंडलों की प्रति माह रेलवे बुकिंग कराना , हंस से संबंधित स्थानीय काम निबाटना दुर्गा जी के जिम्मे आते हैं।

किशन कुमार

कार्यालय व्यवस्थापक / वाहन चालक
राजेन्द्र यादव के व्यक्तिगत सेवक के रूप में , पिछले 25 वर्षों से हंस से जुड़े किशन कुमार आज हंस का सबसे परिचित चेहरा हैं । कार्यालय में रखी एक-एक हंस की प्रति , प्रत्येक पुस्तक , हर वस्तु उनकी पैनी नज़र के सामने रहती है। कार्यालय की दैनिक व्यवस्था के साथ साथ वह हंस के वाहन चालक भी हैं।

हारिस महमूद

वितरण और लेखा प्रबंधक
पिछले 37 साल से हंस के साथ कार्यरत हैं। हंस को देश के कोने -कोने तक पहुँचाने का कार्य कुशलतापूर्वक निभा रहे हैं। विभिन्न राज्यों के प्रत्येक एजेंट , हर विक्रेता का नाम इन्हें कंठस्थ है। समय- समय पर व्यक्तिगत रूप से हर एजेंट से मिलकर हंस की बिक्री का पूरा ब्यौरा रखते हैं. इसके साथ लेखा विभाग भी इनके निरीक्षण में आता है।

वीना उनियाल

सम्पादन संयोजक / सदस्यता प्रभारी
पिछले 31 वर्ष से हंस के साथ जुड़ीं वीना उनियाल के कार्यभार को एक शब्द में समेटना असंभव है। रचनाओं की प्राप्ति से लेकर, हर अंक के निर्बाध प्रकाशन तक और फिर हंस को प्रत्येक सदस्य के घर तक पहुंचाने की पूरी प्रक्रिया में इनकी अहम् भूमिका है। पत्रिका के हर पहलू से पूरी तरह परिचित हैं और नए- पुराने सदस्यों के साथ निरंतर संपर्क बनाये रखती हैं।

रचना यादव

प्रबंध निदेशक
राजेन्द्र यादव की सुपुत्री , रचना व्यवसाय से भारत की जानी -मानी कत्थक नृत्यांगना और नृत्य संरचनाकर हैं। वे 2013 से हंस का प्रकाशन देख रही हैं- उसका संचालन , विपणन और वित्तीय पक्ष संभालती हैं. संजय सहाय और हंस के अन्य कार्यकर्ताओं के साथ हंस के विपणन को एक आधुनिक दिशा देने में सक्रिय हैं।

संजय सहाय

संपादक

प्रेमचंद की तरह राजेन्द्र यादव की भी इच्छा थी कि उनके बाद हंस का प्रकाशन बंद न हो, चलता रहे। संजय सहाय ने इस सिलसिले को निरंतरता दी है और वर्तमान में हंस उनके संपादन में पूर्ववत निकल रही है।

संजय सहाय लेखन की दुनिया में एक स्थापित एवं प्रतिष्ठित नाम है। साथ ही वे नाट्य निर्देशक और नाटककार भी हैं. उन्होंने रेनेसांस नाम से गया (बिहार) में सांस्कृतिक केंद्र की स्थापना की जिसमें लगातार उच्च स्तर के नाटक , फिल्म और अन्य कला विधियों के कार्यक्रम किए जाते हैं.