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कविताएँ

1.मैं इतना भी अस्पष्ट नहीँ दीखता…! मैं इतना भी अस्पष्ट नहीँ दीखता हूँ, मुझे देखने से पहले अपनी अधखुली आँखे किसी साफ़ पानी से धो डालों! मैंने समय को बटुए में अंतिम बचे नोटों की तरह निकाल कर खर्च किया है मैं जानता हूँ समय को कभी रोका नहीँ जा सकता और की गई क्रियाएँ पूर्ववत् दोहराई तो जा सकती लेकिन प्राप्त किये गए फल सुधारे नहीँ जा सकते..! मुझे मालूम है रोटी जब तवे पर जल जाती है तो उसे कैसे खाया जाता है! जली हुई रोटी को कभी अलग नहीँ रखा, इन्ही जली हुई रोटियों ने मुझे हर समय पेट की आग से बचाया। मैंने कभी किसी पूराने वृक्ष की ओर पत्थर नहीँ बरसाए किसी शाम शांत झील पर भी कोई कंकर नहीँ उछाले, मैं तपती धुप में इतना जल्दी में रहता हूँ कि झील की ठण्डी लहरों को देखने के बारे में कभी सोचा ही नहीँ। मैंने पूरा टिकट दिया और खड़े-खड़े ही कई बसों में लम्बी यात्राये की बैठने के लिए सीट कभी-कभार ही मिलती थी लेकिन ऐसी बसों में की गई यात्राओं ने मुझे भीड़ में खड़े रह कर अपने गन्तव्य तक पहुंचने का अभ्यास सिखाया! मुझे मालूम है कि इन तमाम अभावों से मैंने समय,जली रोटियाँ,पुराने वृक्ष,शांत झील और भीड़ भरी बसों के उस पक्ष को देखा जिसमें यथार्थ था..संघर्ष था..और एक मजबूत क़दमों वाला साधारण जीवन था..! आज मैं आँखों में आये आँसुओं को पलकों की मजबूत परिधि में रोक सकता हूँ, दुःखों को गेंद की तरह हौंसले की दीवार पर मार सकता हूँ..! ********** 2.कबूतर…! न मिट्टी का घर बचेगा न गांव बचेंगे और न पेड़ बचेंगे! यह बात एक कबूतर ने दूसरे कबूतर से कही पूरे विश्वास के साथ…! दरअसल उस दिन उस कबूतर के जोड़े ने एक घोंसला प्लास्टिक की सुतलियों से बनाया था सीमेंट के रोशनदान पर…! अब कबूतर जान चुके हैं इंसान के आधुनिक होने का तरीका, इसी तरीके से जीना पड़ेगा अब कबूतरों को भी! कबूतर के अंडे खतरे में हैं या पूरी दुनिया ही खतरे में है। अंडा और दुनिया दोनों गोल है और प्लास्टिक तो हर जगह है। यह विचार मनुष्य भी कर ले तो बेहतर है कबूतर तो सालों पहले यह बात जान चुके हैं। *********** 3.कविताएँ…! कविताएँ व्यक्तिगत नहीँ होती हैं, वे समाज की हर उस आँख की होती हैं जिन्हें वे चुभती हैं, हर उस कान की होती हैं जिन पर वे चीखती हैं, हर उस विवेक की होती हैं जिन्हें वे झाड़-पोंछ देती हैं। कविताएँ सार्वभौमिक होती हैं! कविताएँ नेताओं की भाषण नहीँ है कविताएँ शेयर बाज़ार की शेयर नहीँ हैं कविताएँ बाबाओं की प्रवचन नहीँ हैं कविताएँ अभिनेताओं की फ़िल्मी संवाद नहीँ हैं कविताएँ न्यूज चैनलों की खबरें नहीँ हैं। ये सब व्यक्तिगत लाभ है! कविताएँ सूरज की धुप है चन्द्रमा की चांदनी है बादलोँ की बरसात है कविताएँ पेड़ है कविताएँ नमक है कविताएँ भूख-प्यास है कविताएँ थकान है..! कविताएँ लिखने वाले की सिर्फ कलम खुद की स्याही खुद की कागज खुद का कविता है हर आँख,कान और विवेक की! ********* 4.प्यार…! बार-बार चिल्ला कर यह कहना कि हम तुम्हे बहुत प्यार करते हैं पर तुम्हे दिखाई नहीँ देता.. यह भी प्यार में मिला एक धोखा है। प्यार चीखकर कहने भर का विषय नहीँ निस्वार्थ भाव से देने का एक मौन उपक्रम है। जिसने कहा देखों इस फूल को मैंने बोया मैं ही इसके लिए गमला लाया वहााँ पर प्यार मर जाता है सिर्फ अधिकार जीवित रहता है। प्यार चिड़िया का दाना चुगना और अपने बच्चे की चोंच में वह दाना चुगाना है। प्यार गाय का अपने बछड़े को अंतिम बच्चा दूध अपने थन से पिलाना है प्यार नहीँ सिर्फ चिड़िया को दाना डालना या गाय को पाल कर उसका दूध निकालना। प्यार पर्वत से फूटते एक सोते का एक नदी में अनुवाद है समुद्र से उठी भाप का बरसात में रूपान्तरण है। प्यार बिना कवि का नाम देखे उसकी पहली कविता को जी भरकर पढ़ने का सुख है **********स्वरचित और मौलिक********** -पवन कुमार वैष्णव उदयपुर,राजस्थान 7568950638
राजेन्द्र यादव का जन्म 28 अगस्त 1929 को उत्तर प्रदेश के आगरा जिले में हुआ था। शिक्षा भी आगरा में रहकर हुई। बाद में दिल्ली आना हुआ और कई व्यापक साहित्यिक परियोजनाएं यहीं सम्पन्न हुईं। देवताओं की मूर्तियां, खेल-खिलौने, जहां लक्ष्मी कैद है, अभिमन्यु की आत्महत्या, छोटे-छोटे ताजमहल, किनारे से किनारे तक, टूटना, अपने पार, ढोल तथा अन्य कहानियां, हासिल तथा अन्य कहानियां व वहां तक पहुंचने की दौड़, इनके कहानी संग्रह हैं। उपन्यास हैं-प्रेत बोलते हैं, उखड़े हुए लोग, कुलटा, शह और मात, एक इंच मुस्कान, अनदेखे अनजाने पुल। ‘सारा आकाश,’‘प्रेत बोलते हैं’ का संशोधित रूप है। जैसे महावीर प्रसाद द्विवेदी और ‘सरस्वती’ एक दूसरे के पर्याय-से बन गए वैसे ही राजेन्द्र यादव और ‘हंस’ भी। हिन्दी जगत में विमर्श-परक और अस्मितामूलक लेखन में जितना हस्तक्षेप राजेन्द्र यादव ने किया, दूसरों को इस दिशा में जागरूक और सक्रिय किया और संस्था की तरह कार्य किया, उतना शायद किसी और ने नहीं। इसके लिए ये बारंबार प्रतिक्रियावादी, ब्राह्मणवादी और सांप्रदायिक ताकतों का निशाना भी बने पर उन्हें जो सच लगा उसे कहने से नहीं चूके। 28 अक्टूबर 2013  अपनी अंतिम सांस तक आपने  हंस का संपादन पूरी निष्ठा के साथ किया। हंस की उड़ान को इन ऊंचाइयों तक पहुंचाने का श्रेय राजेन्द्र यादव को जाता है।

उदय शंकर

संपादन सहयोग
हंस में आई  कोई भी रचना ऐसी नहीं होती जो पढ़ी न जाए। प्राप्त रचनाओं को प्रारम्भिक स्तर पर पढ़ने में उदय शंकर संपादक का   सहयोग करते  हैं । 
हिंदी आलोचक, संपादक और अनुवादक उदय शंकर जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से पढ़े हैं। उन्होंने कथा-आलोचक सुरेंद्र चौधरी की रचनाओं को तीन जिल्दों में संपादित किया है। ‘नई कहानी आलोचना’ शीर्षक से एक आलोचना पुस्तक प्रकाशित।
उत्तर प्रदेश के बनारस जिले के लमही गाँव में 31 अक्टूबर 1880 में जन्मे प्रेमचंद का मूल नाम धनपतराय था।पिता थे मुंशी अजायब राय।शिक्षा बनारस में हुई। कर्मभूमि भी प्रधानतः बनारस ही रही। स्वाधीनता आंदोलन केनेता महात्मा गांधी से काफी प्रभावित रहे और उनके ‘असहयोग आंदोलन’ के दौरान नौकरी से त्यागपत्र भी देदिया। लिखने की शुरुआत उर्दू से हुई, नवाबराय नाम से। ‘प्रेमचंद’ नाम से आगे की लेखन-यात्रा हिन्दी में जारी रही। ‘मानसरोवर,’ आठ खंडों में, इनकी कहानियों का संकलन है और इनके। उपन्यास हैं सेवासदन, प्रेमाश्रम, निर्मला, रंगभूमि, कायाकल्प, गबन, कर्मभूमि, गोदान और मंगल सूत्र (अपूर्ण)। 1936 ई. में ‘गोदान’ प्रकाशित हुआ और इसी वर्ष इन्होंने लखनऊ में प्रगतिशील लेखक संघ’ की अध्यक्षता की। दुर्योग यह कि इसी वर्ष 8 अक्टूबर को इनका निधन हो गया। जब तक शरीर में प्राण रहे प्रेमचंद हंस निकालते रहे। उनके बाद इसका संपादन जैनेन्द्र,अमृतराय आदि ने किया। बीसवीं सदी के पांचवें दशक मेंयह पत्रिका किसी योग्य, दूरदर्शी और प्रतिबद्धसंपादक के इंतजार में ठहर गई, रुक गई।

नाज़रीन

डिजिटल मार्केटिंग / सोशल मीडिया विशेषज्ञ
आज के बदलते दौर को देखते हुए , तीन साल पहले हंस ने सोशल मीडिया पर सक्रिय होने का निर्णय लिया। उसके साथ- साथ हंस अब डिजिटल मार्केटिंग की दुनिया में भी प्रवेश कर चुका है। जुलाई 2021 में हमारे साथ जुड़ीं नाज़रीन अब इस विभाग का संचालन कर रही हैं। वेबसाइट , फेस बुक, इंस्टाग्राम , ट्विटर जैसे सभी सोशल मीडिया प्लेटफार्म के माध्यम से ये हंस को लोगों के साथ जोड़े रखती हैं। इन नए माध्यमों द्वारा अधिक से अधिक लोगों को हंस परिवार में शामिल करने का दायित्व इनके ऊपर है।

प्रेमचंद गौतम

शब्द संयोजक
कोरोना महामारी में हमसे जुदा हुए वर्षों से जुड़े हमारे कम्पोज़र सुभाष चंद का रिक्त स्थान जुलाई 2021 में प्रेमचंद गौतम ने संभाला। हंस के सम्मानित लेखकों की सामग्री को पन्नों में सुसज्जित करने का श्रेय अब इन्हें जाता है । मुख्य आवरण ले कर अंत तक पूरी पत्रिका को एक सुचारू रूप देते हैं। इस क्षेत्र में वर्षों के अनुभव और ज्ञान के साथ साथ भाषा पर भी इनकी अच्छी पकड़ है।

दुर्गा प्रसाद

कार्यालय व्यवस्थापक
पिछले 36 साल से हंस के साथ जुड़े दुर्गा प्रसाद , इस बात का पूरा ध्यान रखते हैं की कार्यालय में आया कोई भी अतिथि , बिना चाय-पानी के न लौटे। हंस के प्रत्येक कार्यकर्ता की चाय से भोजन तक की व्यवस्था ये बहुत आत्मीयता से निभाते हैं। इसके अतिरिक्त हंस के बंडलों की प्रति माह रेलवे बुकिंग कराना , हंस से संबंधित स्थानीय काम निबाटना दुर्गा जी के जिम्मे आते हैं।

किशन कुमार

कार्यालय व्यवस्थापक / वाहन चालक
राजेन्द्र यादव के व्यक्तिगत सेवक के रूप में , पिछले 25 वर्षों से हंस से जुड़े किशन कुमार आज हंस का सबसे परिचित चेहरा हैं । कार्यालय में रखी एक-एक हंस की प्रति , प्रत्येक पुस्तक , हर वस्तु उनकी पैनी नज़र के सामने रहती है। कार्यालय की दैनिक व्यवस्था के साथ साथ वह हंस के वाहन चालक भी हैं।

हारिस महमूद

वितरण और लेखा प्रबंधक
पिछले 37 साल से हंस के साथ कार्यरत हैं। हंस को देश के कोने -कोने तक पहुँचाने का कार्य कुशलतापूर्वक निभा रहे हैं। विभिन्न राज्यों के प्रत्येक एजेंट , हर विक्रेता का नाम इन्हें कंठस्थ है। समय- समय पर व्यक्तिगत रूप से हर एजेंट से मिलकर हंस की बिक्री का पूरा ब्यौरा रखते हैं. इसके साथ लेखा विभाग भी इनके निरीक्षण में आता है।

वीना उनियाल

सम्पादन संयोजक / सदस्यता प्रभारी
पिछले 31 वर्ष से हंस के साथ जुड़ीं वीना उनियाल के कार्यभार को एक शब्द में समेटना असंभव है। रचनाओं की प्राप्ति से लेकर, हर अंक के निर्बाध प्रकाशन तक और फिर हंस को प्रत्येक सदस्य के घर तक पहुंचाने की पूरी प्रक्रिया में इनकी अहम् भूमिका है। पत्रिका के हर पहलू से पूरी तरह परिचित हैं और नए- पुराने सदस्यों के साथ निरंतर संपर्क बनाये रखती हैं।

रचना यादव

प्रबंध निदेशक
राजेन्द्र यादव की सुपुत्री , रचना व्यवसाय से भारत की जानी -मानी कत्थक नृत्यांगना और नृत्य संरचनाकर हैं। वे 2013 से हंस का प्रकाशन देख रही हैं- उसका संचालन , विपणन और वित्तीय पक्ष संभालती हैं. संजय सहाय और हंस के अन्य कार्यकर्ताओं के साथ हंस के विपणन को एक आधुनिक दिशा देने में सक्रिय हैं।

संजय सहाय

संपादक

प्रेमचंद की तरह राजेन्द्र यादव की भी इच्छा थी कि उनके बाद हंस का प्रकाशन बंद न हो, चलता रहे। संजय सहाय ने इस सिलसिले को निरंतरता दी है और वर्तमान में हंस उनके संपादन में पूर्ववत निकल रही है।

संजय सहाय लेखन की दुनिया में एक स्थापित एवं प्रतिष्ठित नाम है। साथ ही वे नाट्य निर्देशक और नाटककार भी हैं. उन्होंने रेनेसांस नाम से गया (बिहार) में सांस्कृतिक केंद्र की स्थापना की जिसमें लगातार उच्च स्तर के नाटक , फिल्म और अन्य कला विधियों के कार्यक्रम किए जाते हैं.