एक मात्रा का बोझ
सिखाये गये उन्हें
धीरे धीरे बढ़ाते हुए
रोटी को पूरा
गोल आकार देने के नियम
भले ही मायने नहीं रखता
रोटी का गोल होना
पेट की आग के लिए
पूरे चाँद में छिपा
उसकी गोलाई का सिद्धांत
बताया नहीं गया उन्हें कभी भी
चारदीवारी के बाहर
कदम रखने के
नियमों की घुट्टी
ख़ुराक दर ख़ुराक
दी जाती रही उन्हें
हर रोज़
देह में धसती आँखों को
अपने नोंकदार नाखूनों से
नोंच कर फेंकने की कला
सिखाई नहीं गयी उन्हें कभी भी
कर्तव्यों की वेदी में
स्वाह होने की
सारी विधाएं रच दी गयीं
उनके मन मस्तिष्क की
दीवारों पर
कभी नहीं
थमाया गया उन्हें
अधिकारों का वो पन्ना
जिससे सुलगती चिंगारी को
दी जा सके
दहकते अंगार में बदलने को हवा
हिदायतों की गर्म सलाखों से
लगातार बनाया जा रहा था उन्हें
नर्म मुलायम मोम जिससे
किसी भी आकार के
फ्रेम की बेड़ियों में
जकड़ा जा सके
आज़ादी की मिट्टी से
स्वतः अपने आकर के
निर्माण की स्वतंत्रता
कभी नहीं सिखाई गयी उन्हें
अपने ज़ख्मों को
सीने की कारीगरी में
कर दिया गया पारंगत उन्हें
जीवन की विसात पर
बिछाई गयी
द्युत-क्रीड़ा में विजयी होकर
दुःशासन की आत्मा को
भरी सभा में
निर्वस्त्र करने का हुनर
कभी नहीं सिखाया गया उन्हें
मौन की सारी ऋचाएं
पंक्ति दर पंक्ति
कंठस्थ करा दी गयी उन्हें
अपनी इच्छाओं के
वेदों के मंत्रों का
सस्वर उच्चारण के तौर-तरीके
सिखाये नहीं गए कभी उन्हें
दबा दिया गया उन्हें
एक मात्रा के बोझ तले,
नर और नारी की असमानता की
परतदार चट्टानों के भीतर
छुपे गूढ़ रहस्यों को
खोज रहीं हैं सदियों से
“वो” अब तलक
*रश्मि सक्सेना*
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