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आई. सी. यू.

मेरा तीसरा दिन है इस सात मंजिले बड़े अस्पताल में। इस अस्पताल में आई. सी. यू. के बाहर एक बड़ा हॉल है जिसमें ट्रेन के बर्थ की तरह बेड लगे है। आई. सी. यू. में एडमिट मरीज के किसी एक परिजन को इसमें रुकने की इजाजत दी जाती है। मुझे भी एक बेड दिया है इसी हॉल में। मेरे बाजू वाले बेड पर जो आदमी है वो सिर्फ मरीज से मिलने या सोने टाइम ही आता है। मुझ से बड़ा है उम्र में। मस्त दाढ़ी बढ़ा रखी है। जब भी आता है पीठ पर एक बैग टांगे रहता है। उसके फॉर्मल कपड़े और काले जूते से लगता है कि वो किसी ऑफिस से आ रहा है। हर वक्त गुमसुम और गमगीन रहता है और कभी किसी से कोई बातचीत नही करता। मुझसे भी नहीं की अभी तक। रात को चुप- चाप आता, बैग को सिरहाने के पास रख के लेट जाता और पता नही कब तक आँखे खोले करवटें बदलता रहता। मेरी जब नींद खुलती तो मैं देखता वो बिस्तर पर आँखे खोले शीशे की उस खिड़की से बाहर आसमान की ओर देख रहा होता। एक लगातर, बिना पलकें झपके। ऐसा लगता जैसे वो किसी को जाता हुआ देख रहा हो। ऐसा कुछ जिसे आसमान उसके अंदर से खिंचे जा रहा हो। मैं हर रोज देखता वो उस आसमान की ओर देखते-देखते अपना हाथ भी उसी ओर बढ़ा देता। ऐसे जैसे उसके और आसमान के बीच कोई है जिसे वो अपनी ओर खींच लेना चाहता है। शुरू- शुरू में जब वो आसमान की ओर हाथ बढ़ाता तो उसके आँखों मे नमी होती ऐसे जैसे वो आसमान से भीख माँग रहा हो। थोड़ी देर तक उम्मीद भी दिखती लेकिन कुछ ही पलों में वो अपनी उम्मीद खो देता। आसमान से उसका विश्वास उठ जाता। उसे लगता ये आसमान उस पर तरस नहीं खाएगी। कुछ देर तक वो आसमान से खींचातानी करता और फिर गुस्से में आ जाता और अपने उसी हाथ को आसमान की ओर बढ़ा कर झटके से मुट्ठी बाँध कर जोर से पटकता और तकिये में सर छुपा लेता फिर मुझे कुछ देर तक उसकी सिसकियाँ सुनाई देती। हर सुबह को सिसकते- सिसकते ही उठता और बैग टाँग के निकल जाता। आज मैं भी उसके पीछे- पीछे चला। लिफ्ट से हम दोनो नीचे आए। सामने ओवरब्रिज के नीचे बाँयी और कुछ देर पैदल चलते रहे फिर उसने कुछ देर फ़ोन पर बात की और वहीं रुक गया। थोड़ी देर बाद ऑटो से एक दूसरा आदमी उतरा। कद- काठी और चेहरे से बिल्कुल इस पहले आदमी की ही तरह। शायद दोनो भाई हों। दूसरे आदमी ने पहले की ओर नोटों की गड्डी बढ़ाई। पहले ने नोट गिने और कहा ‘ये तो कम है’। थोड़ी देर दोनो शांत होकर जमीन की ओर देखते रहे फिर पहले ने कहा ‘भाई अस्पताल वाले नही मानेंगे अब’। फिर कुछ देर तक कि चुप्पी रही और फिर पहले ने ही चुप्पी तोड़ी ‘तेरी गाड़ी के कितने मिले’ ‘पैंतीस’ और ‘मेरी गाड़ी के’ ‘चालीस’ दूसरे ने बस जवाब भर बोला। पहले ने फिर पूछा ‘जमीन का क्या हुआ’ ‘अभी तक ग्राहक नही मिला’। दूसरे के चेहरे पर निराशा और दुख की लकीर उभर आई। ‘ठीक है तू जा और जमीन की बात कर, अस्पताल वाले अब और नही मान रहे, ये पैसे देने के बाद भी काफी पैसा बाकी रह जाएगा और अगर जल्दी पैसा जमा नही हुआ तो इलाज रोक देंगे ये लोग’ इतना कह कर वो अस्पताल की ओर बढ़ा। अस्पताल में सीधे बिलिंग काउंटर पर गया और पैसे जमा किये। मरीज से मिलने का समय हो गया तो मैं पॉलीथिन के मोजे पहने, सीधे आई. सी. यू. में गया। मेरे पीछे वो भी आया पर वो आगे बढ़ गया। मैं उसके मरीज को देख नही पाया। वापस अपने बेड पर आया, थोड़ी देर बाद वो भी आकर बैठ गया। उसके चेहरे से निराशा का एक थोड़ा- सा टुकड़ा कम हो गया था और थोड़ी- सी चमक निखर रही थी। मैं कुछ समझ नही पाया। मुझे लगा इसका मरीज कुछ- कुछ ठीक हो रहा है इसलिए उस से मिल के आज पहली बार चैन की लंबी और ठंडी साँसे ले रहा है। कुछ देर वो ऐसे ही शांत बैठ कर कुछ सोचता रहा। उसने सोचा कि शायद अब इंतजार खत्म हो जाएगा। ट्रेन के बर्थ जैसे बिछावन और हर रोज की चीख- पुकार से शायद उसे अब छुटकारा मिल जाएगा। मेरे बेड के ठीक ऊपर एक छोटा- सा स्पीकर लगा था। उस स्पीकर में अचानक कुछ खुसुर- फुसुर हुई। हम दोनो उसी ओर देखने लगे। ‘रंधीर कुमार के परिजन अविलंब अपने मरीज के पास पँहुचे’ स्पीकर पर ये घोषणा खत्म होती उस से पहले ही अस्पताल का एक कर्मचारी दौड़ता हुआ आया और उसने दुहराया ‘रंधीर कुमार किनका मरीज है, जल्दी चलिए’ और दोनो दौड़ गए आई. सी. यू की ओर इस बेचैनी और जल्दबाजी से मैं समझ गया था कि अब स्थिति ज्यादा गंभीर हो गई है। मैं भी बाहर निकला तो देखा दवा की पर्ची लिए वो लिफ्ट के पास खड़ा है। उसने बिना रुके कई बार लिफ्ट का बटन दबाया और फिर सीढ़ियों से होता हुआ नीचे भागने लगा। मैं जब केमिस्ट की दुकान पर पहुँचा तो देखा वो दवा का लिफाफा लिए जेबें टटोल रहा था। ‘पैसा’ ‘हाँ, हाँ पैसा’ उसने फिर जेबें टटोली। फिर उसने कहा ‘बिल में जोड़ लीजिये न’ ‘नो सर दवा के पैसे आपको अभी ही जमा कराने होंगे’ केमिस्ट का जवाब सुन कर वो तीसरी बार अपनी जेबें टटोल ही रहा था कि मैंने दो हजार का नोट केमिस्ट की ओर बढ़ाया। उसने मेरी ओर एक नजर देखा और दवा का लिफाफा उठा, बिजली की रफ्तार से भागा। इस बार उसने लिफ्ट चेक भी नही किया। सीधे सीढ़ियों की ओर भागा। मैं भी उसके पीछे भागते हुए आया पर मुझे गार्ड ने आई. सी. यू के गेट पर ही रोक दिया। वो गेट से अंदर घुसा, थोड़ी देर आगे बढ़ा …. और सामने से डॉक्टर को आता देख ठिठक गया। कंधे पर हाथ रख कर डॉक्टर ने कहा ‘सॉरी’ …… तभी अस्पताल के एक दूसरे कर्मचारी ने उसके हाथ मे एक कागज थमाते हुए कहा ‘काउंटर पर पैसे जमा करा के बॉडी ले जाइए’। मैंने देखा उसके हाथ से वो कागज और दवा का लिफाफा दोनो छूट गया। उसका चेहरा सूख के लाल हो गया। मैं सोच रहा था कि वो रो क्यों नहीं रहा। मुझे लगा इतने दिनों से रोते- रोते शायद उसके आँसू सुख गए हों। उसने चारो और नजरें घुमायी। उसकी नजरें किसी अपने को ढूंढ रही थी। कोई अपना जिसका हाथ पकड़ के वो रो सके। कोई अपना जो उसे हिम्मत रखने के लिए हिम्मत दे सके। उसने कई बार नजरें घुमायी पर कोई उसकी ओर ध्यान नही दे रहा था सिवाए उस कर्मचारी और उस गार्ड के। इस असहनीय दर्द और अकेलेपन में पता नही उसे क्या सुझा जो मेरी ओर हाथ बढ़ा दिया। मैं उसकी ओर बढ़ा… इस बार गार्ड ने भी नही रोका। मैं उस तक पहुँचता तब तक वो जमीन पर गिर गया पर अभी भी रो नही रहा था। एक हाथ उसने मेरी ओर बढ़ा रखा था और दूसरे हाथ से उसने अपने कलेजे को दबा रखा था। मैंने जैसे ही उसका हाथ पकड़ा उसने झटके से मुझे अपनी ओर खींचा, मैं घुटने के बल जमीन पर आ गया फिर वो दोनो हाथों से गर्दन छान कर फूट-फूट कर बहने लगा। ऐसे जैसे उसके ये आँसू मेरे स्पर्श के लिए ही रुके थे। झाग से निकले बुलबुले को एक बार छुआ और बस, बस अब हो गया, अब सब खत्म हो गया। कुछ नही बचा अब। मैं समझ नही पाया कि मुझे क्या करना चाहिए…. मैं अपने- आप को बहुत कमजोर और मजबूर महसूस करने लगा…. रोते- रोते उसकी साँसे अटकने लगी, दर्द से कराहते हुए उसने दोनो हाथों से अपना कलेजा दबाया। मैंने उसको सहारा दिया और बेड पर ले आया। बेड पर भी वो कुछ देर तक रोता रहा…. खुद को संभालते हुए उसने फ़ोन निकाला और नंबर डायल किया। ‘पापा नही र……’ बात पूरी होने से पहले ही फिर से फुट- फुट के रोने लगा। मैंने उसके कंधे पर हाथ रखा। कुछ देर बाद उसने अपने आप को संभाला और….. ‘जमीन का कुछ होगा’। …… ‘श्राद्ध में कितना लग जाएगा’ जैसे सवाल पूछने लगा और अंत मे कुछ देर शांत बैठा रहा और फिर सिसकते हुए फ़ोन के दूसरी ओर वाले से पूछा ‘क्या करना है ? बॉडी लेना है कि नही’? मैं सन्न रह गया…. । ये, ये क्या पूछ रहा है…. जिस बाप के लिए मैंने इसे पिछले तीन दिनों से परकटे पंछी की तरह छटपटाते देखा है…. उसे इस तरह मुर्दा छोड़ कर जाने के सवाल पर पत्थर की तरह जम गया….. मैंने उसका बिल देखा। तीन लाख साठ हजार दो सौ रुपये बकाया …. जिसके पास दवा के लिए दो हजार रुपये नही थे वो ये बिल कैसे भरेगा। उसने मेरे हाथ से बिल ले लिया ….. बिल देखा….. फ़ोन देखा….. बैग देखा…. कुछ सोचा….. फिर बिल देखा……. फ़ोन देखा….. मुझे देखा…… कुछ सोचा और उसने बिल को बैग में डाला… बैग से कपड़ा निकाला….. चेहरा ढका और बैग लटका कर चोरों की तरह मुँह छिपाए जाने लगा…. उसने किसी- से नजरें नही मिलाई….. पता नही किस- से नजरें छिपाएं जा रहा था, मुझसे, अस्पताल के उस कर्मचारी से या अपने मुर्दा बाप से….. वो अकेला वापस नही जा रहा था, उसके पीछे- पीछे मेरे मन का एक टुकड़ा चल निकला था जो सोचता कि इसे रोक लूँ फिर उसके हालात को सोचता और चुप- चाप लौट आता। समझ मे नही आ रहा कि उस बेटे को अच्छा कहूँ या बुरा जिसने अपने जिंदा बाप के लिए खुद को इतना कंगाल कर दिया कि अपने मुर्दा बाप को लावारिश कर दिया….. –रवि सुमन ravisuman324@gmail.com
राजेन्द्र यादव का जन्म 28 अगस्त 1929 को उत्तर प्रदेश के आगरा जिले में हुआ था। शिक्षा भी आगरा में रहकर हुई। बाद में दिल्ली आना हुआ और कई व्यापक साहित्यिक परियोजनाएं यहीं सम्पन्न हुईं। देवताओं की मूर्तियां, खेल-खिलौने, जहां लक्ष्मी कैद है, अभिमन्यु की आत्महत्या, छोटे-छोटे ताजमहल, किनारे से किनारे तक, टूटना, अपने पार, ढोल तथा अन्य कहानियां, हासिल तथा अन्य कहानियां व वहां तक पहुंचने की दौड़, इनके कहानी संग्रह हैं। उपन्यास हैं-प्रेत बोलते हैं, उखड़े हुए लोग, कुलटा, शह और मात, एक इंच मुस्कान, अनदेखे अनजाने पुल। ‘सारा आकाश,’‘प्रेत बोलते हैं’ का संशोधित रूप है। जैसे महावीर प्रसाद द्विवेदी और ‘सरस्वती’ एक दूसरे के पर्याय-से बन गए वैसे ही राजेन्द्र यादव और ‘हंस’ भी। हिन्दी जगत में विमर्श-परक और अस्मितामूलक लेखन में जितना हस्तक्षेप राजेन्द्र यादव ने किया, दूसरों को इस दिशा में जागरूक और सक्रिय किया और संस्था की तरह कार्य किया, उतना शायद किसी और ने नहीं। इसके लिए ये बारंबार प्रतिक्रियावादी, ब्राह्मणवादी और सांप्रदायिक ताकतों का निशाना भी बने पर उन्हें जो सच लगा उसे कहने से नहीं चूके। 28 अक्टूबर 2013  अपनी अंतिम सांस तक आपने  हंस का संपादन पूरी निष्ठा के साथ किया। हंस की उड़ान को इन ऊंचाइयों तक पहुंचाने का श्रेय राजेन्द्र यादव को जाता है।

उदय शंकर

संपादन सहयोग
हंस में आई  कोई भी रचना ऐसी नहीं होती जो पढ़ी न जाए। प्राप्त रचनाओं को प्रारम्भिक स्तर पर पढ़ने में उदय शंकर संपादक का   सहयोग करते  हैं । 
हिंदी आलोचक, संपादक और अनुवादक उदय शंकर जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से पढ़े हैं। उन्होंने कथा-आलोचक सुरेंद्र चौधरी की रचनाओं को तीन जिल्दों में संपादित किया है। ‘नई कहानी आलोचना’ शीर्षक से एक आलोचना पुस्तक प्रकाशित।
उत्तर प्रदेश के बनारस जिले के लमही गाँव में 31 अक्टूबर 1880 में जन्मे प्रेमचंद का मूल नाम धनपतराय था।पिता थे मुंशी अजायब राय।शिक्षा बनारस में हुई। कर्मभूमि भी प्रधानतः बनारस ही रही। स्वाधीनता आंदोलन केनेता महात्मा गांधी से काफी प्रभावित रहे और उनके ‘असहयोग आंदोलन’ के दौरान नौकरी से त्यागपत्र भी देदिया। लिखने की शुरुआत उर्दू से हुई, नवाबराय नाम से। ‘प्रेमचंद’ नाम से आगे की लेखन-यात्रा हिन्दी में जारी रही। ‘मानसरोवर,’ आठ खंडों में, इनकी कहानियों का संकलन है और इनके। उपन्यास हैं सेवासदन, प्रेमाश्रम, निर्मला, रंगभूमि, कायाकल्प, गबन, कर्मभूमि, गोदान और मंगल सूत्र (अपूर्ण)। 1936 ई. में ‘गोदान’ प्रकाशित हुआ और इसी वर्ष इन्होंने लखनऊ में प्रगतिशील लेखक संघ’ की अध्यक्षता की। दुर्योग यह कि इसी वर्ष 8 अक्टूबर को इनका निधन हो गया। जब तक शरीर में प्राण रहे प्रेमचंद हंस निकालते रहे। उनके बाद इसका संपादन जैनेन्द्र,अमृतराय आदि ने किया। बीसवीं सदी के पांचवें दशक मेंयह पत्रिका किसी योग्य, दूरदर्शी और प्रतिबद्धसंपादक के इंतजार में ठहर गई, रुक गई।

नाज़रीन

डिजिटल मार्केटिंग / सोशल मीडिया विशेषज्ञ
आज के बदलते दौर को देखते हुए , तीन साल पहले हंस ने सोशल मीडिया पर सक्रिय होने का निर्णय लिया। उसके साथ- साथ हंस अब डिजिटल मार्केटिंग की दुनिया में भी प्रवेश कर चुका है। जुलाई 2021 में हमारे साथ जुड़ीं नाज़रीन अब इस विभाग का संचालन कर रही हैं। वेबसाइट , फेस बुक, इंस्टाग्राम , ट्विटर जैसे सभी सोशल मीडिया प्लेटफार्म के माध्यम से ये हंस को लोगों के साथ जोड़े रखती हैं। इन नए माध्यमों द्वारा अधिक से अधिक लोगों को हंस परिवार में शामिल करने का दायित्व इनके ऊपर है।

प्रेमचंद गौतम

शब्द संयोजक
कोरोना महामारी में हमसे जुदा हुए वर्षों से जुड़े हमारे कम्पोज़र सुभाष चंद का रिक्त स्थान जुलाई 2021 में प्रेमचंद गौतम ने संभाला। हंस के सम्मानित लेखकों की सामग्री को पन्नों में सुसज्जित करने का श्रेय अब इन्हें जाता है । मुख्य आवरण ले कर अंत तक पूरी पत्रिका को एक सुचारू रूप देते हैं। इस क्षेत्र में वर्षों के अनुभव और ज्ञान के साथ साथ भाषा पर भी इनकी अच्छी पकड़ है।

दुर्गा प्रसाद

कार्यालय व्यवस्थापक
पिछले 36 साल से हंस के साथ जुड़े दुर्गा प्रसाद , इस बात का पूरा ध्यान रखते हैं की कार्यालय में आया कोई भी अतिथि , बिना चाय-पानी के न लौटे। हंस के प्रत्येक कार्यकर्ता की चाय से भोजन तक की व्यवस्था ये बहुत आत्मीयता से निभाते हैं। इसके अतिरिक्त हंस के बंडलों की प्रति माह रेलवे बुकिंग कराना , हंस से संबंधित स्थानीय काम निबाटना दुर्गा जी के जिम्मे आते हैं।

किशन कुमार

कार्यालय व्यवस्थापक / वाहन चालक
राजेन्द्र यादव के व्यक्तिगत सेवक के रूप में , पिछले 25 वर्षों से हंस से जुड़े किशन कुमार आज हंस का सबसे परिचित चेहरा हैं । कार्यालय में रखी एक-एक हंस की प्रति , प्रत्येक पुस्तक , हर वस्तु उनकी पैनी नज़र के सामने रहती है। कार्यालय की दैनिक व्यवस्था के साथ साथ वह हंस के वाहन चालक भी हैं।

हारिस महमूद

वितरण और लेखा प्रबंधक
पिछले 37 साल से हंस के साथ कार्यरत हैं। हंस को देश के कोने -कोने तक पहुँचाने का कार्य कुशलतापूर्वक निभा रहे हैं। विभिन्न राज्यों के प्रत्येक एजेंट , हर विक्रेता का नाम इन्हें कंठस्थ है। समय- समय पर व्यक्तिगत रूप से हर एजेंट से मिलकर हंस की बिक्री का पूरा ब्यौरा रखते हैं. इसके साथ लेखा विभाग भी इनके निरीक्षण में आता है।

वीना उनियाल

सम्पादन संयोजक / सदस्यता प्रभारी
पिछले 31 वर्ष से हंस के साथ जुड़ीं वीना उनियाल के कार्यभार को एक शब्द में समेटना असंभव है। रचनाओं की प्राप्ति से लेकर, हर अंक के निर्बाध प्रकाशन तक और फिर हंस को प्रत्येक सदस्य के घर तक पहुंचाने की पूरी प्रक्रिया में इनकी अहम् भूमिका है। पत्रिका के हर पहलू से पूरी तरह परिचित हैं और नए- पुराने सदस्यों के साथ निरंतर संपर्क बनाये रखती हैं।

रचना यादव

प्रबंध निदेशक
राजेन्द्र यादव की सुपुत्री , रचना व्यवसाय से भारत की जानी -मानी कत्थक नृत्यांगना और नृत्य संरचनाकर हैं। वे 2013 से हंस का प्रकाशन देख रही हैं- उसका संचालन , विपणन और वित्तीय पक्ष संभालती हैं. संजय सहाय और हंस के अन्य कार्यकर्ताओं के साथ हंस के विपणन को एक आधुनिक दिशा देने में सक्रिय हैं।

संजय सहाय

संपादक

प्रेमचंद की तरह राजेन्द्र यादव की भी इच्छा थी कि उनके बाद हंस का प्रकाशन बंद न हो, चलता रहे। संजय सहाय ने इस सिलसिले को निरंतरता दी है और वर्तमान में हंस उनके संपादन में पूर्ववत निकल रही है।

संजय सहाय लेखन की दुनिया में एक स्थापित एवं प्रतिष्ठित नाम है। साथ ही वे नाट्य निर्देशक और नाटककार भी हैं. उन्होंने रेनेसांस नाम से गया (बिहार) में सांस्कृतिक केंद्र की स्थापना की जिसमें लगातार उच्च स्तर के नाटक , फिल्म और अन्य कला विधियों के कार्यक्रम किए जाते हैं.