आये दिन अख़बारों में आत्महत्या की खबरें प्रकाशित होती रहती हैं। इन खबरों में ऐसा कम ही होता है कि किसी व्यक्ति द्वारा की गयी आत्म-हत्या की खबर को राष्ट्रीय स्तर पर सुर्खियां मिलें। कुछ आत्महत्याओं की ख़बरें समाचार पत्रों की दहलीज पार करने से पूर्व ही दम तोड़ देतीं हैं, तो कुछ समाचार पत्रों का हिस्सा तो बनती हैं, लेकिन, पाठक इसे पढ़कर अफ़सोस जताते हुए आत्म-हत्या करने वाले की ही घोर निंदा करते हैं और अंत में उसे बेवक़ूफ़ ठहराकर अखबार मेज पर पटकते हुए अपने-अपने कामों में व्यस्त हो जाते हैं। और इसी तरह छपने वाली अनेकों आत्महत्याओं की खबरें अख़बारों मैं ही दम तोड़ देतीं हैं।
अख़बारों का दायित्व है समाज में घटित घटनाओं को संज्ञान में लाना, सो वह अपने दायित्वों का निर्वहन पूर्ण निष्ठा से करते हैं। प्रकाशित घटनाओं पर आम जन, समाज सेवी संगठन और सरकार के अधीनस्थ विभाग कितना संज्ञान लेते हैं यह उनकी विवेकशील-तत्परता पर निर्भर करता है। आम तौर पर पहले दिन छपी घटनाएं मृत-प्रायः होती हैं। अतः आवश्यक होने पर अख़बारों को ही मुद्रित घटनाओं का पुनः संज्ञान लेना होता है। जब वह खबरों का लगातार प्रकाशन करता है तो सरकारी विभाग, समाज सेवी संगठन, समाज सेवी जनों के साथ-साथ नेता, अभिनेता आदि घटना स्थल की ओर सहानुभूति और सहयोग के लिए कूँच करते हैं। सहयोगकर्ता अपनी-अपनी वाह-वाही कराने के लिय सहानुभूति और सहयोग के कसीदे पढ़ते हैं। लेकिन ऐसे सहयोग और सहानुभूति के कसीदे पढ़ने से क्या लाभ? जब, चिड़ियाँ चुंग गयीं खेत! लेकिन, इन सभी के बीच मानवाधिकार का राग अलापने वाले विशिष्ट लोग, कहीं दूर तक दिखाई नहीं पड़ते।
ख़ैर, अख़बारों का दायित्व होता है कि वह घटनाओं का संज्ञान लेकर, उन्हें सार्वजनिक करें। सो वह करते हैं। अब अख़बारों को रद्दी के भाव बेचने के लायक समझा जाय या उसे ‘पूर्ण-जन-जागरण’ का माध्यम बनाया जाय। यह हम पाठकों (जिसमें सरकार भी सम्मिलित है) की इच्छा पर निर्भर है।
आत्म-हत्या, आत्म-मंथन का विषय है। एक ओर यह मानवीय जीवन को आधार बनाकर मानवाधिकारों की वकालत करने वालों के मुख पर तमाचा है, तो दूसरी ओर यह हमारे समाज के उन लोगों के वर्चस्व को ख़ारिज करता है जो स्वयं को समाज का प्रबुद्धजन और ठेकेदार मानते हैं। आत्म-हत्या एक ऐसा सामाजिक अभिशाप है जो हमारे समाज के उन लोगों को मौत की नींद सुला देता है जो भीतर से बहुत उदार और मानवीय संवेदनाओं को आत्मसात् करने वाले होते हैं। ऐसा कम ही होता है कि अपराध बोध से प्रतिष्ठा धूमिल होने के डर से उत्पन्न आत्मग्लानि के कारण, कोई व्यक्ति आत्महत्या कर ले। यह एक अपवाद होगा।
आत्म-हत्या, किसी एक जाति अथवा किसी एक पंथ के लोगों के द्वारा ही नहीं की जाती। वरन् इसकी परधि में सम्पूर्ण मानवजाति है। इस सन्दर्भ में सबसे आश्चर्यजनक पहलू यह है कि यह हमारे और आपके बीच ही होती है और हम अनभिज्ञ रहते हैं। हमारी अनभिज्ञता, हमारी भयंकर भूल में परिवर्तित हो जाती है और हम भूल जाते हैं कि आत्म-हत्या करने वाला हमारे समाज और देश के लिए कितना महत्वपूर्ण था। हम भूल जाते हैं कि जिस छात्र ने गले में फंदा डालकर जान दी है वह हमारे देश के लिए क्या योगदान दे सकता था? क्या इस सच्चाई से इंकार किया जा सकता है कि आत्महत्या करने वाले छात्र में डॉक्टर, इंजीनियर, वैज्ञानिक, वीर सैनिक बनने की योग्यता नहीं थी? क्या उसमें नए भारत में एक सफल उद्योगपति बनने की राह पर चलने के लायक गुण नहीं थे? ऐसे अनेकों प्रश्न हैं, जिनके उत्तर हम सभी को स्वयं से ही पूंछने होंगे, और ध्यान रखना होगा कि आत्महत्या करने वाले प्रत्येक व्यक्ति की, स्वयं की महत्वाकांक्षा होती है जो उसे ऊँचे मुकाम पर ले जाना चाहती है। भले ही वह आर्थिक रूप से कितना ही निर्बल क्यों न हो।
प्रत्येक मानव-जीवन, जिसे जीने का जन्मसिद्ध अधिकार प्राप्त है। वह जीना चाहता है। वह नहीं चाहता कि वह समय से पूर्व मृत्यु (अकाल मृत्यु) का आलिंगन करे। लेकिन, वह कौन-कौन से तथाकथित कारण हैं जिनके चलते व्यक्ति को आत्महत्या के लिए विवश होना पड़ता है? विवशता के कारण की गयी आत्महत्या पर, एक विवेकी-बुद्धिजीवी का ह्रदय चीत्कार कर उठता है। लेकिन, यह आंतरिक चीत्कार किसी काम की नहीं ! क्यों? कदाचित् इसलिए कि हमने अपने उन कर्तव्यों को, जो हमें समाज के प्रति (सामाजिक उत्थान एवं मानवीय सहयोग) निभाना चाहिए थे, उन्हें भुला दिया है।
हमने स्वयं को समाज का बाहरी सदस्य मानकर, समाज के प्रति अपने उत्तरदायित्वों से मुक्ति पाकर धारणा बना ली है कि समाज की जिम्मेदारी अन्य सामाजिक सदस्यों की है या फिर सरकार की। यदि इसी दृष्टिकोण को समाज के सभी सदस्यों पर लागू कर दिया जाय, तो समाज बचता ही नहीं! अतः वह व्यक्ति जो समाज में रहते हुए भी, स्वयं को समाज का हिस्सा न मानकर, समाज के साथ बाहरी सदस्य के रूप में व्यवहार करता है। वह अपने सामाजिक दायित्वों की चोरी करते हुए, समाज के समस्त दायित्वों का भार अन्यों पर अथवा सरकार पर थोपने का कार्य करता है। जबकि, प्रत्येक व्यक्ति, समाज और सरकार का ही अभिन्न-अंग होता है।
वस्तुतः जो लोग स्वयं को समाज का हिस्सा मानते हैं। वह पीड़ित परिवार की यथा संभव सहायता करते ही हैं। लेकिन, यह तत्कालीन सहायता है, जिसे पीड़ित परिवार की आपातकालीन सहायता कहा जायेगा। क्या यह मृतक के ‘मानवीय-जीवन-मूल्य’ की भरपाई करती है? यदि नहीं, तो क्या समाज या सरकार इस भरपाई की जिम्मेदारी अपने ऊपर लेंगे? शायद नहीं। क्योंकि, ऐसा करने से समाज में उन लोगों के लिए नकारात्मक सन्देश जायेगा जो किसी न किसी कारण से आत्मदाह की दहलीज पर बैठे हैं, और वह आत्महत्या के लिए प्रेरित होंगे।
आत्महत्या एक ऐसा गंभीर एवं ज्वलंत विषय है जिसपर हमें गंभीर विश्लेषण कर, आत्महत्या के मूल कारणों को खोजना होगा। साथ ही हमें उन लोगों को भी खोजना होगा जो किसी न किसी कारण से अवसादीय मनोदशा से गुजर रहे हैं। यह आत्महत्या जैसे आत्मघाती कदम उठायें उससे पूर्ब ही हमें इनकी पहचान करनी होगी। यदि हम ऐसा कर पाते हैं तो यह हमारा आपातकाल मदद के पूर्व ही सहयोग की ओर बढ़ने वाला कदम होगा। अवसाद ग्रसित लोगों की पहचान हमें अपने कार्यस्थल, आसपड़ोस, अपने मित्रों, कुटुम्बियों, रिश्तेदारों सहित जहाँ तक हमारी पहुँच बन सके, वहां तक करनी होगी। तदोपरान्त, हमें अपने सकारात्मक व्यवहार से उनका आत्मबल बढ़ाना होगा। यदि हम ऐसा कर पाते हैं तो यह सामाजिक समरसता और सहयोग की पारस्परिक भावना को मुखरित करने वाला सर्वश्रेष्ठ मानवीय पहलू होगा, जो हमारे समाज को संगठित करेगा। यदि हम आगे बढ़कर अपने सतत् प्रयासों से ऐसा कर सके, तो हमारे समाज से आत्महत्या रुपी अभिशाप पर चमत्कारी गति से विराम लगने से कोई नहीं रोक सकता।