हंस के नवंबर 1935 के संपादकीय में प्रेमचंद ने ‘बैठक’ की जरूरत पर जोर दिया था, देश भर के साहित्यकारों के लिए “साहित्यकारों की एक संस्था बने, जिसकी बैठक कभी-कभी हुआ करे। इससे बजाय मुकाबले और द्वेष के आपस का मेल बढ़ेगा और हमारा साहित्य एक-दूसरे की तरक्की में मदद कर सकेगा।”
हंस का कार्यालय राजेन्द्र यादव और उनकी चैपाल के लिए जाना जाता रहा है जहां विचार-विमर्श, बहसें और छत-फोड़ ठहाकों का साम्राज्य रहता था। उनके जाने के बाद उस रिक्तता को महसूस किया गया और उसेे भरने के लिए हंस की बैठक जैसी अनौपचारिक सभाओं को आयोजित किया गया। हंस कार्यालय में समय≤ पर ये बैठकें रखी जाती हैं जिनमें किसी समसामयिक पुस्तक, लेख, कहानी या विषय पर चर्चा की जाती है। यह बैठक हंस पत्रिका प्रकाशित करने के साथ-साथ संवादी वातावरण बनाने में सहायक होती है
प्रेमचंद की तरह राजेन्द्र यादव की भी इच्छा थी कि उनके बाद हंस का प्रकाशन बंद न हो, चलता रहे। संजय सहाय ने इस सिलसिले को निरंतरता दी है और वर्तमान में हंस उनके संपादन में पूर्ववत निकल रही है।
संजय सहाय लेखन की दुनिया में एक स्थापित एवं प्रतिष्ठित नाम है। साथ ही वे नाट्य निर्देशक और नाटककार भी हैं. उन्होंने रेनेसांस नाम से गया (बिहार) में सांस्कृतिक केंद्र की स्थापना की जिसमें लगातार उच्च स्तर के नाटक , फिल्म और अन्य कला विधियों के कार्यक्रम किए जाते हैं.